गुरुवार, 26 जून 2008

पसंदीदा शायरी / अख्तरुल-ईमान [ 1915-1995 ]

तीन नज़्में
[ 1 ] ओहदे-वफ़ा
यही शाख तुम जिसके नीचे किसी के लिए चश्म-नम हो
अब से कुछ साल पहले
मुझे एक छोटी सी बच्ची मिली थी
जिसे मैंने आगोश में ले के पूछा था, 'बेटी
यहाँ क्यों खड़ी रो रही हो ?
मुझे अपने बोसीदा आँचल में फूलों के गहने दिखाकर
वो कहने लगी
मेरा साथी उधर, उसने उंगली उठाकर बताया,
उधर उस तरफ़ ही,
जिधर ऊंचे महलों के गुम्बद, मिलों की सियह चिमनियाँ
आस्मां की तरफ़ सर उठाये खड़ी हैं,
ये कह कर गया है
कि मैं सोने चांदी के गहने तेरे वास्ते
लेने जाता हूँ - रामी.

[ 2] आख़िरी मुलाक़ात
आओ कि जश्ने-मर्गे-मुहब्बत मनाएँ हम

आती नहीं कहीं से दिले-जिंदा की सदा
सूने पड़े हैं कूच'ओ-बाज़ार इश्क के
है शमए-अंजुमन का नया हुस्ने-जां-गुदाज़
शायद नहीं रहे वो पतंगों के वलवले
ताज़ा न रख सकेगी रिवायाते-दश्तो-दार
वो फ़ितनासर गये जिन्हें कांटे अज़ीज़ थे
अब कुछ नहीं तो नींद से आँखें जलाएं हम
आओ कि जश्ने-मर्गे-मुहब्बत मनाएँ हम

सोचा न था कि आएगा ये दिन भी फिर कभी
इक बार हम मिले हैं ज़रा मुस्कुरा तो लें
क्या जाने अब न उल्फ़ते-देरीना याद आए
इस हुस्ने-इख्तियार पे आँखें झुका तो लें
बरसा लबों से फूल तेरी उम्र हो दराज़
संभले हुए तो हैं पे ज़रा डगमगा तो लें
आओ कि जश्ने-मर्गे-मुहब्बत मनाएँ हम

[ 3] बे-तअल्लुकी
शाम होती है सहर होती है ये वक़्ते-रवां
जो कभी सर पे मेरे संगे-गरां बन के गिरा
राह में आया कभी मेरी हिमाला बन कर
जो कभी उक़दा बना ऐसा कि हल ही न हुआ
आज बे-वास्ता यूँ गुज़रा चला जाता है
जैसे मैं कश्मकशे-ज़ीस्त में शामिल ही नहीं
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बुधवार, 25 जून 2008

कविता के हस्ताक्षर / सुमित्रा नंदन पन्त [1900-1977 ]

[ 1 ] तप रे मधुर मधुर मन
विश्व वेदना में तप प्रतिपल,
जग-जीवन की ज्वाला में गल,
बन अकलुष, उज्जवल औ' कोमल
तप रे विधुर विधुर मन !

अपने सजल-स्वर्ण से पावन
रच जीवन की मूर्त्ति पूर्णतम,
स्थापित कर जग में अपनापन
ढल रे ढल आतुर मन !

तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन
गंध-हीन तू गंध-मुक्त बन
निज अरूप में भर स्वरुप, मन
मूर्त्तिमान बन निर्धन !
गल रे गल निष्ठुर मन !

[ 2 ] भारत माता ग्रामवासिनी
खेतों में फैला है श्यामल
धूल भरा मैला-सा आँचल
गंगा जमुना में आंसू जल
मिटटी की प्रतिमा उदासिनी !
भारत माता ग्रामवासिनी !

दैन्य जड़ित अपलक नत चितवन
अधरों में चिर नीरव रोदन
युग युग के तम् से विषंण मन
वह अपने घर में प्रवासिनी !
भारत माता ग्रामवासिनी !

तीस कोटि संतान, नग्न तन,
अर्ध क्षुधित, शोषित, निरस्त्र जन
मूढ़, असभ्य, अशिक्षित, निर्धन
नतमस्तक तरु-ताल निवासिनी !
भारत माता ग्रामवासिनी !

स्वर्ण शस्य पर पद-तल लुंठित
धरती-सा सहिष्णु मन कुंठित
क्रंदन कम्पित अधर मौन स्मित
राहू ग्रसित शरदिंदु हासिनी !
भारत माता ग्रामवासिनी !

चिंतित भृकुटि क्षितिज तिमिरांकित
नमित नयन नभ वाश्पाच्छादित
आनन् श्री छाया शशि उपमित
ज्ञानमूढ़ गीता प्रकाशिनी !
भारत माता ग्रामवासिनी !

सफल आज उसका तप संयम
पिला हिंसा स्तन्य सुधोपम
हरती जन-मन भय, भव तन भ्रम
जग जननी जीवन विकासिनी !
भारत माता ग्रामवासिनी !

[ 3 ] विजय
मैं चिर श्रद्धा लेकर आई
वह साध बनी प्रिय परिचय में
मैं भक्ति ह्रदय में भर लाई
वह प्रीती बनी उर परिणय में.

जिज्ञासा से था आकुल मन
वह मिती हुई कब तन्मय मैं,
विश्वास मांगती थी प्रतिक्षण
आधार पा गई निश्चय मैं !

प्राणों की तृष्णा हुई लीन,
स्वप्नों के गोपन संचय में,
संशय भय मोह विषाद हीन,
लज्जा करुणा में निर्भय मैं.

लज्जा जाने कब बनी मान
अधिकार मिला कब अनुनय में
पूजन आराधन बने गान
कैसे ! कब ? करती विस्मय मैं.

उर करुणा के हित था कातर
सम्मान पा गई अक्षय मैं
पापों अभिशापों की थी घर,
वरदान बनी मंगलमय मैं.

बाधा-विरोध अनकूल बने
अंतर्चेतन अरुणोदय में,
पथ भूल विहंस मृदु फूल बने
मैं विजयी प्रिय, तेरी जय में.
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कविता के हस्ताक्षर / जयशंकर प्रसाद [ 1889-1937 ]

[ 1 ] हिमाद्रि तुंग श्रृंग से
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला
स्वतंत्रता पुकारती
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पन्थ है, बढे चलो बढे चलो !

असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ
विकीर्ण दिव्य दाह सी
सपूत मातृ-भूमि के
रुको न शूर साहसी !
अराति-सैन्य-सिन्धु में,सुवाडवाग्नि से जलो
प्रवीर हो, जयी बनो - बढे चलो बढे चलो !
[ 2 ] अरुण यह मधुमय देश हमारा
अरुण यह मधुमय देश हमारा.
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा.

सरस तामरस गर्भ विभा पर नाच रही तरु शिखा मनोहर
छिटका जीवन हरियाली पर मंगल कुमकुम सारा.

लघु सुरधनु से पंख पसारे शीतल मलय समीर सहारे
उड़ते खग जिस ओर मुंह किए समझ नीद निज प्यारा.

बरसाती आंखों के बादल बनते जहाँ भरे करुणा जल
लहरें टकरातीं अनंत की पाकर जहाँ किनारा.

हेम कुम्भ ले उषा सवेरे भारती ढुलकाती सुख तेरे
मदिर ऊंघते रहते जब जगकर रजनी भर तारा.
[ 3 ] बीती विभावरी
बीती विभावरी जाग री.
अम्बर पनघट में डुबो रही, तारा घाट ऊषा नगरी.

खग कुल कुल कुल सा बोल रहा, किसलय का अंचल डोल रहा
लो यह लतिका भी भर लाई, मधु मुकुल नवल रस गागरी.

अधरों में राग अमंद लिए, अलकों में मलयज बंद किए
तू अब तक सोई है आली, आंखों में भरे विहाग री.
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मंगलवार, 24 जून 2008

कविता के हस्ताक्षर / महादेवी वर्मा [1907-1987 ]

[ १ ] मधुर मधुर मेरे दीपक जल
मधुर मधुर मेरे दीपक जल
युग युग, प्रतिदिन, प्रतिक्षण, प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर

सौरभ फैला विपुल धूप बन,
मृदुल मोम सा धुल रे मृदु तन'
दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित
तेरे जीवन का अणु गल गल !
पुलक,पुलक मेरे दीपक जल !

सारे शीतल कोमल नूतन
मांग रहे तुझसे ज्वाला-कण
विश्व-शलभ सर धुन कहता 'मैं
हाय न जल पाया तुझ में मिल'
सिहर सिहर मेरे दीपक जल

जलते नभ में देख असंख्यक
स्नेह हीन नित कितने दीपक
जलमय सागर सा उर जलता,
विद्युत् ले घिरता है बादल !
विहंस विहंस मेरे दीपक जल !

द्रुम के अंग हरित कोमलतम,
ज्वाला को करते हृदयंगम
बसुधा के जड़ अन्तर में भी,
बंदी है तापों की हाचल !
बिखर बिखर मेरे दीपक जल !

मेरे निःश्वासों से दुस्तर,
सुभग न तू बुझने का भय कर,
मैं अंचल की ओट किए हूँ,
अपनी मृदु पलकों से चंचल !
सहज सहज मेरे दीपक जल !

सीमा ही लघुता का बंधन
है अनादि तू मत घडियां गिन,
मैं दृग के अक्षय-कोशों से
तुझमें भरती हूँ आंसू जल !
सजल सजल मेरे दीपक जल !

तब असीम तेरे प्रकाश चिर
खेलेंगे नव खेल निरंतर,
तम् के अणु अणु में विद्युत् सा-
अमिट चित्र अंकित करता चल !
सरल सरल मेरे दीपक जल !

तू जल जल जितना होता क्षय
या समीप आता छलनामय
मधुर मधुर में मिट जाना तू
उसकी उज्जवल स्मित में घुल खिल !
मदिर मदिर मेरे दीपक जल !

[ २ ] धूप सा तन, दीप सी मैं
उड़ रहा नित एक सौरभ धूम लेखा में बिखर तन
खो रहा निज को अथक आलोक साँसों में पिघल मन
अश्रु से गीला सृजन पल
औ विसर्जन पुलक उज्जवल
आ रही अविराम मिट मिट
स्वजन और समीप सी मैं
धूप सा तन दीप सी मैं

सघन घन का चल तुरंगम चक्र झंझा के बनाए
रश्मि विद्युत् ले प्रलय रथ पर भले तुम शांत आए
पंथ से मृदु स्वेद कण चुन
छाँह से भर प्राण उन्मन
तम् जलधि में नेह का
मोती रचुंगी सीप सी मैं
धूप सा तन दीप सी मैं
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पसंदीदा शायरी / मजाज़ लखनवी [ 1911-1955 ]

दो नज़्में
[ १ ] एतराफ़
अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो ?

मैंने माना कि तुम इक पैकरे-रानाई हो
चमने-दहर में रूहे-चमन-आराई हो
तलअते-मेह्र हो,फिरदौस की रानाई हो
बिन्ते-महताब हो गर्दूं से उतर आई हो
मुझसे मिलने में अब अंदेशए-रुसवाई है
मैंने ख़ुद अपने किए की ये सज़ा पाई है

ख़ाक में आह मिलाई है जवानी मैंने
शोला-ज़ारों में जलाई है जवानी मैंने
शहरे-खूबां में गंवाई है जवानी मैंने
ख्वाब-गाहों में जगाई है जवानी मैंने
हुस्न ने जब भी इनायत की नज़र डाली है
मेरे पैमाने-मुहब्बत ने सिपर डाली है

उन दिनों मुझपे क़यामत का जुनूं तारी था
सर पे सरशरीओ-इशरत का जुनूं तारी था
माहपारों से मुहब्बत का जुनूं तारी था
शहरयारों से रक़ाबत का जुनूं तारी था
बिस्तरे-मख्मलो-संजाब थी दुनिया मेरी
एक रंगीनो-हसीं ख्वाब थी दुनिया मेरी

जन्नते-शौक़ थी बेगानए- आफ़ाते-सुमूम
दर्द जब दर्द न हो, काविशे-दरमाँ मालूम
ख़ाक थे दीदए-बेबाक में गर्दूं के नुजूम
बज़्मे-परवीं थी निगाहों में कनीज़ों का हुजूम
लैलिए-नाज़ बरअफ़्गंदा-नक़ाब आती थी
अपनी आंखों में लिए दावते-ख्वाब आती थी

संग को गौहरे-नायाबो-गरां जाना था
दश्ते-पुर-खार को फ़िर्दौसे-जिनां जाना था
रेग को सिलसिलए-आबे-रवां जाना था
आह ये राज़ अभी मैंने कहाँ जाना था
मेरी हर फ़तह में है एक हज़ीमत पिनहाँ
हर मसर्रत में है राज़े-ग़मो-इशरत पिनहाँ

क्या सुनोगी मेरी मजरुह जवानी की पुकार
मेरी फर्यादे-जिगर-दोज़, मेरा नालए-ज़ार
शिद्दते-करब में डूबी हुई मेरी गुफ़्तार
मैं कि ख़ुद अपने मजाके-तरब-आगीं का शिकार
वो गुदाज़े-दिले-मरहूम कहाँ से लाऊं
अब मैं वो जज्बए- मौसूम कहाँ से लाऊं

मेरे साए से डरो तुम मेरी गुरबत से डरो
अपनी जुरअत की क़सम अब मेरी जुरअत से डरो
तुम लताफ़त हो अगर मेरी लताफ़त से डरो
मेरे वादों से डरो मेरी मुहब्बत से डरो
अब मैं अल्ताफो-इनायत का सज़ावार नहीं
मैं वफ़ादार नहीं हाँ मैं वफ़ादार नहीं

अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो ?
[ २ ] नन्ही पुजारन
इक नन्ही मुन्नी सी पुजारन
पतली बाहें पतली गर्दन
भोर भये मन्दिर आई है
आई नहीं है, माँ लाई है
वक़्त से पहले जाग उठी है
नींद अभी आंखों में भरी है
ठोडी तक लट आई हुई है
यूँ ही सी लहराई हुई है
आंखों में तारों की चमक है
मुखड़े पर चांदी की झलक है
कैसी सुंदर है क्या कहिये
नन्ही सी इक सीता कहिये
धूप चढ़े तारा चमका है
पत्थर पर इक फूल खिला है
चाँद का टुकडा फूल की डाली
कमसिन, सीधी, भोली भाली
दिल में लेकिन ध्यान नहीं है
पूजा का कुछ ज्ञान नहीं है
कैसी भोली और सीधी है
मन्दिर की छत देख रही है
माँ बढ़कर चुटकी लेती है
चुपके चुपके हंस देती है
हँसना रोना उसका मज़हब
उसको पूजा से क्या मतलब
ख़ुद तो आई है मंदर में
मन उसका है गुडिया घर में
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सोमवार, 23 जून 2008

सूरदास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [ क्रमशः-1 ]

[ 1 ]
चरन कमल बन्दौं हरि राई.
जाकी कृपा पंगु गिरी लंघै, अंधे कौ सब कछु दरसाई.
बहिरौ सुनै, गुंग पुनि बोलै, रंक चलै सिर छत्र धराई.
सूरदास स्वामी करुनामय, बार बार बन्दौं तिहि पाई.


मैं तो बस मालिके-कुल हरी राय के
हूँ कँवल जैसे चरनों में सज्दाकुनां
जिनका फ़ैज़ो-करम हो तो मफ़्लूज भी
पार करले पहाड़ों की ऊंचाइयां
जिनकी आंखों में बीनाई मुतलक़ न हो
देख लें वो भी कुदरत की रानाइयां
बहरे उनकी इनायत से सुनने लगें
और गूंगों को मिल जाए फिर से जुबां
मुफ़लिसों का मुक़द्दर बदल जाय यूँ
सर पे शाहों की रख कर चलें छतरियां
मेरे आक़ा हैं ऐ 'सूर' दर्द-आशना
पाए-अक्दास का उनके हूँ मैं मद'ह-ख्वाँ
[ 2 ]
नमो नमो करुनानिधान.
चितवत कृपा कटाच्छ तुम्हारी,मिटि गयो तम अग्यान..
मोह निशा कौ लेश रह्यो नहिं, भयो विवेक विहान..
आतम रूप सकल घाट दरस्यो, उदय कियो रवि ज्ञान..
मैं मेरी अब रही न मेरे, छूट्यो देह अभिमान..
भावै परो आजुही यह तन, भावै रहो अमान..
मेरे जिय अब यहै लालसा, लीला श्री भगवान..
श्रवन करौं निसि बासर हित सौं, सूर तुम्हारी आन..


अस्सलाम ऐ दर्दमंदी के समंदर अस्सलाम
पड़ते ही चश्मे - इनायत आप की
मिट गई ज़ुल्मत जहालत की तमाम
उल्फ़ते-दुनिया की शब् रुख़सत हुई
सुब्हे - अक़्लो - होश का फैला निज़ाम
जिसमे-खाकी में नज़र आया जमाले-रुए-ज़ात
आफताब इरफ़ान का रौशन हुआ बालाए-बाम
मिट गई मैं और मेरी की हवस
रह न पाया जिस्म का पिन्दारे-खाम
'सूर' की है आप से यह सिद्क़े-दिल से आरज़ू
रोज़ो-शब् सुनाता रहूँ मैं आपकी लीला मदाम
[ 3 ]
अविगत गति जानी न परै.
मन-बच-कर्म अगाध, अगोचर, किहि बिधि बुधि संचरै..
अति प्रचंड पौरुष बल पाएं, केहरि भूख मरै..
अनायास, बिनु उद्यम कीन्हें, अजगर उदर भरै..
रीतै भरै भरै फुनि ढारै, चाहै फेरि भरै..
कबहुँक तृन बूडै पानी मैं, कबहुँक सिला तरै..
बागर तैं सागर करि डारै, चहुँ दिसि नीर भरै..
पाहन बीच कमल बिकसावै, जल मैं अगिनि जरै..
राजा रंक, रंक तैं राजा, लै सिर छत्र धरै..
'सूर' पतित तरि जाई छिनक मैं, जो प्रभु नेकु ढरै ..


किस तरह जाने कोई औसाफ़े-ज़ाते-लामकां
नफ़्स वो रखता नहीं आज़ाद है वो नुत्क़ से
और अमल उसका, किसी पर भी नहीं होता अयां
कैसे फिर ये अक्ल बन सकती है उसकी राज़दां
शेर को माबूद ने बख्शी है ताक़त बे पनाह
भूक से मरता है वो, कुदरत की देखो खूबियां
और अजगर जो पड़ा रहता है हिलता तक नहीं
पेट भर लेता है, खालिक उसपे है यूँ मेह्रबां
ज़र्फ़ वो चाहे तो भर दे, भरके फिर खाली करे
और मरज़ी हो, दोबारा भर दे यकता हुक्मरां
गर्क हो जाता है तिनका बतने-दरया में कभी
और कभी पानी पे पत्थर मिस्ले-तिनका है रवां
वो अगर चाहे, समंदर कर दे रेगिस्तान को
उसकी मरज़ी हो तो हो सैलाब ता अरज़ो-समां
हुक्म हो उसका तो पत्थर में भी खिल जाए कमल
हो अगर उसकी रज़ा दरया बने आतिश-फ़िशां
वो अगर चाहे तो कर दे शाह को पल में गदा
और अगर चाहे बना दे वो गदा को हुक्मरां
'सूर' कहते हैं कि हो जाए अगर उसका करम
हो शिफ़ाअत आसियों की, पाएं वो तसकीने-जां
[ 4 ]
सोई रसना जो हरि गुन गावै.
नैनन की छबि यहै चतुरता ज्यों मकरंद मुकुन्दहि ध्यावै..
निर्मल चित तौ सोई सांचौ, कृष्ण बिना जिय और न भावै..
श्रवनन की जु यहै अधिकाई,सुनि रस कथा सुधा रस प्यावै..
कर तेई जो स्यामहि सेवै, चरनन चलि वृन्दाबन जावे..
'सूरदास' जैये बलि ताके, जो हरि जू सों प्रीती बढ़ावै ..


ज़बाँ वो है जो हरि की मद्ह गाये
वही है चश्मे-खुशअतवार जिस में
जमाले-हुस्न का परतव समाये
वही है क़ल्बे-सिद्दीको-मुतःहर
जिसे बे कृष्न कोई शय न भाये
वही है गोश का हुस्ने-समाअत
जो सुनकर रस कथा अमृत पिलाये
वही है हाथ जो है श्याम की खिदमत में मसरूफ़
वही है पाँव, जो चलकर के वृन्दाबन को जाये
फ़िदा हो जाइए सूर उस बशर पर
जो दिल में श्याम की उल्फ़त बढाए
[ 5 ]
आजु हौं एक एक करि टरिहौं
कै तुमहीं, कै हमहीं माधौ, अपुन भरोसैं लरिहौं..
हौं तो पतित सात पीढीन कौ,पतितै ह्वै निस्तरिहौं..
अब हौं उघरि नचत चाहत हौं, तुम्हैं बिरद बिन करिहौं
कत अपनी परतीति नसावत, मैं पायो हरि हीरा
'सूर' पतित तबहीं उठिहैं प्रभु, जब हँसि दैहौ बीरा


आज तो फ़ैसला होकर ही रहेगा यारब
या तो मैं बाक़ी रहूँगा, या रहोगे तुम ही
मैं फ़क़त अपने भरोसे पे लडूंगा यारब
सात पुश्तों से हूँ आसीओ-गुनहगार हुज़ूर
हूँ इसी हाल में बखशिश का तलबगार हुज़ूर
बेझिझक सामने हर एक के उरियां हो कर
झूम कर नाचूँगा मैं दस्त-ब-दामां हो कर
आपकी शाने-करीमी की उठा दूँगा नक़ाब
अज़मतें आपकी बे-परदा करूँगा यारब
क्यों मिटाने पे हैं आमादा हुज़ूर अपना वक़ार
मैं ने तो पाया हरी जैसा है हीरा सरकार
होके खुश आप जब आसी पे करेगे रहमत
'सूर' कहते हैं उसी वक़्त उठूंगा यारब.
[ 6 ]
अविगत गति कछु कहत न आवै.
ज्यों गूंगे मीठे फल कौ रस, अन्तरगत ही भावै..
परम स्वाद सबही सु निरंतर, अमित तोष उपजावै..
मन बानी कौं अगम अगोचर, सो जानै जो पावै..
रूप,रेख,गुन, जाति जुगति बिनु, निरालम्ब मन चक्रित धावै..
सब बिधि अगम बिचारहिं ताते, 'सूर' सगुन लीला पद गावै..


ज़ाते-मुत्लक़ की हकीक़त कभी कहते न बने
जैसे गूंगा कोई, लज्ज़त किसी मीठे फल की
दिल में महसूस करे और बयाँ कर न सके
लज्ज़ते-आला सुकूं-बख्श है हर इक के लिए
क़ल्ब पहोंचे न , सुखन उसको कभी छू न सके
उस से वाकिफ़ है फ़क़त वो, जो उसे पा जाये
सूरतो-खाकाओ-औसाफ़े-ज़मानी के बगैर
नस्ल की क़ैद से पाक और दलाएल से बलंद
बे सुतूं अक़्ल तअज्जुब में रहे सरगर्दां
फ़िक्र क़ासिर है, किसी तर्ह नहीं उसका गुज़र
इसलिए 'सूर' ने औसाफ़े मजाजी के ये नगमे गाये
[ 7]
मेरे गुन अवगुन चित न बिचारौ.
कीजै लाज सरन आये की, रबि सुत त्रास निबारौ..
जोग,जग्य, जप-तप नहिं कीन्हौं, बेद बिमल नहिं भाख्यौ ..
अति रस लुब्ध स्वान जूठन ज्यों, अनत नाहिं चित राख्यौ..
जिहिं जिहिं ज्योनि फिरयो संकट बस, तिहिं तिहिं यहै कमायौ
काम क्रोध मद् लोभ ग्रसित ह्वै, विषय परम विष खायौ..
जो मसि गिरिपति घोरि उदधि मैं, लै सुर तरु बिधि हाथा.
मम कृत दोस लिखै बसुधा भरि, तऊ नाहिं मिति नाथा.
तुम सर्बग्य सबै बिधि समरथ, असरन सरन मुरारी..
मोह समुद्र 'सूर' बूडत है, लीजै भुजा पसारी..


नेकी बदी पे मेरी न कुछ गौर कीजिये
आया हूँ मैं अमान में रख लीजिये मुझे
डर मुझसे दूर मौत का फ़िल्फ़ौर कीजिये
कोई रियाज़ कोई इबादत न की कभी
वैदिक रिचाओं की भी तिलावत न की कभी
दुनिया की लज्ज़तों से रहा इस तरह घिरा
जूठन को जैसे देख के कुत्ता है दौड़ता
जुज़ उल्फ़ते-जहाँ न कहीं और दिल गया
ठोकर मुसीबतों ने खिलाई जिधर - जिधर
लाया कमा के सिर्फ़ गुनाहों के मालो-ज़र
गुस्सा, गुरूर, हिर्सो-हवस, ख्वाहिशाते-बद
चख कर ये सारे ज़हर कमाई हयाते-बद
कोहे-सियाह को भी समंदर में घोल कर
कुदरत उठाके हाथ में फिरदौस का शजर
कोताहियाँ मेरी जो लिखे कुल ज़मीन पर
तहरीर हो न पायेंगी कुछ हैं वो इस कदर
तुम हो अलीम क़ादिरे-मुतलक़ हो ऐ खुदा
बे-आसरों का एक तुम्हीं तो हो आसरा
डूबे कहीं न 'सूर' समंदर में हिर्स के
बाजू पकड़ के उसका बचा लीजिये उसे..
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क्रमशः

सूरदास के रूहानी नग़मे / भूमिका

सोई रसना जो हरि गुन गावै
आचार्य वल्लभ के भक्ति-दर्शन को केन्द्र में रख कर सूर-काव्य को व्याख्यायित एवं विवेचित करने की अपनी एक समृद्ध परम्परा है. किंतु यह परम्परा सूर के अध्ययन को इतना सीमित कर देती है कि विशुद्ध काव्य-सौन्दर्य के अनेक महत्त्वपूर्ण आयाम पाठक की दृष्टि से न केवल छूट जाते हैं, अपितु सूर की प्रासंगिकता पर भी अनेक प्रश्न-चिह्न लगा देते हैं. मैं समझता हूँ कि सूर के जो अध्येता वल्लभ सम्प्रदाय के पुष्टिमार्ग में दीक्षित नहीं हैं, और जिन्होंने आचार्यश्री की कृतियों का अपेक्षित अध्ययन नहीं किया है, उन्हें भी सूर-काव्य न केवल अपने सशक्त चुम्बकीय गुणों के साथ आकृष्ट करता है, अपितु अपनी प्रभावक अभिव्यक्ति, नाटकीय प्रस्तुति, गतिशील चित्रात्मकता, सूक्ष्म अवलोकन दृष्टि, रंगों, बिम्बों, ध्वनियों और आकारों की अंतरंग एकस्वरता और उनकी अर्थ-विस्तार क्षमता के कारण अपना अदभुत प्रशंसक बना देता है.
मध्ययुगीन इतिहास के विवादास्पद बिन्दुओं को गहराकर सूर के विभिन्न आलोचकों ने एक विशेष दृष्टिकोण को जिस प्रकार बारम्बार रेखांकित करने का प्रयास किया है, उससे मध्ययुगीन हिन्दी काव्य की सौहार्दपूर्ण वैचारिकता लगभग लड़खड़ा सी जाती है. जीव, जगत और ब्रह्म के अंतर्संबंधों को विवेचित करने की प्रत्येक जाति, धर्म और देश में एक लम्बी परम्परा रही है. सिद्ध और नाथ कवियों ने इस परम्परा को केवल बौद्धिकता के स्तर पर मूल्यांकित करने का प्रयास किया. सूफी संतों के प्रादुर्भाव से विशुद्ध ज्ञान की इस परम्परा में प्रेम के रस की चाशनी कुछ इस प्रकार घुल-मिल गई कि सम्पूर्ण चिंतन जीवंत हो उठा. लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम को शब्द और अर्थ देने की सूफी परम्परा ने सगुण ब्रह्म की उपासना के लिए न केवल उर्वर भूमि तैयार कर दी अपितु वैष्णव चिंतन को लोकप्रिय बनाने में सशक्त भूमिका का निर्वाह किया. आचार्य रामचंद्र शुक्ल की यह मान्यता यदि स्वीकार कर ली जाय कि श्री वल्लभाचार्य ने अपने पुष्टिमार्ग का प्रदर्शन बहुत कुछ देश काल देख कर किया तो इस तथ्य को सहज ही नकारा नहीं जा सकता कि ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती (बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी ई0) तथा उनके शिष्यों द्वारा स्थापित एवं प्रचारित समा (सूफियों का आध्यात्मिक गायन-वादन) की गोष्ठियों में निरंतर गहराते प्रेम-मूलक भक्ति के भाव से श्री वल्लभाचार्य प्रभावित अवश्य हुए. पुष्टिमार्ग में लौकिकता को अलौकिकता का साधन, माध्यम या प्रतीक मानने के पीछे कहीं-न कहीं परंपरागत सूफी भावना काम कर रही थी, जो प्रेमी, प्रेम और प्रेय को एक दूसरे से पृथक नहीं मानती.
मध्ययुग तक आते-आते कबीर का निर्गुण राम, सूफी प्रेम-मूलक भक्ति की मर्यादित परम्परा का प्रभावगत कोमल स्पर्श पाकर सगुण ब्रह्म के रूप में मर्यादा-पुरुषोत्तम राम की रामानंदीय छवि के साथ प्रतिष्ठित हो गया.किंतु रामकाव्य की परम्परा ब्राह्मणवादी चिंतन की सिद्धान्तगत संकीर्ण परिधियों को लांघकर अन्य धर्मावलम्बियों के मध्य अपने लिए स्थान नहीं बना सकीं. इसके विपरीत कृष्ण के रूप में सगुण ब्रह्म की स्वछन्द लीलाओं का गुणगान, क्षेत्र और धर्म की परिधियों से निकलकर सम्पूर्ण भारतीय जनमानस में इस प्रकार रच-बस गया कि हिन्दुओं से इतर अनेक प्रतिष्ठित मुस्लमान कवियों ने कृष्ण के रूप-सौंदर्य के विवेचन में स्वयं को पूरी तरह निमज्जित पाया. इसका एक कारण यह भी था कि सूफियों की सौंदर्यमूलक प्रेमाभक्ति, जिसकी आधारशिला ही इस हदीस पर थी कि परमात्मा सौन्दर्यशील है और वह सौंदर्य को प्रिय रखता है, कृष्ण-भक्ति-काव्य में अपनी पर्याप्त गूँज महसूस कर रही थी.
शास्त्रीय चिंतन जहाँ अपने सैद्धांतिक पक्ष के कारण छोटे-छोटे खेमों में बटा दिखाई देता है, वहीँ आध्यात्मिक विचारधारा एक निरंतर प्रवाहित सरिता की भांति अपना विस्तार नापती रहती हैं. भक्ति-काव्य के मूल में यही सौंदर्यमूलक आध्यात्मिक वैचारिकता है जो न केवल इसे अर्थ प्रदान करती है, अपितु जाति, धर्म, देश,काल और भाषा से ऊपर उठकर, इसके आस्वादन के लिए प्रेरित करती है. कदाचित यही कारण है कि सूर के विनय के गीति पदों में और सूफियों की नातिया रचनाओं में अनेक स्थलों पर जो भाव-साम्य दिखाई देता है वह धर्मगत आस्थाओं की विभाजन रेखाओं को मेरे लिए तोड़ देता है. सूफी चिंतकों ने हज़रात मुहम्मद के जन्म के बहुत पूर्व,सृष्टि के आरम्भ के ही उनकी दिव्य-ज्योति के अस्तित्व को स्वीकार किया है. इसास्था की बुनियाद में नबी श्री की दो हदीसें 1. 'परमात्मा ने सबसे अफल मेरी ज्योति पैदा की" तथा 2. "मैं उस समय भी था जब आदि पुरूष आदम अस्तित्व धारण करने की स्थिति में थे." स्वीकार की गई हैं. इस प्रकार सभी नबी हज़रात मुहम्मद के ही अंशभूत हैं.फ़ारसी के प्रसिद्द कवि एवं सूफी चिन्तक महमूद शाबिस्त्री (मृ0 1320 ई0) के अनुसार अहमद (नबीश्री) तथा अहद (परब्रह्म) में केवल एक मीम अक्षर का अन्तर है और इसी एक मीम के भीतर सम्पूर्ण जगत समाहित है –
ज़ 'अहमद' ता 'अहद', यक 'मीम' फ़र्क़ अस्त
जहाने अन्दराँ यक 'मीम', ग़र्क़ अस्त

'अहमद' और 'अहद' के इसी ऐक्य को शेख अब्दुलकुद्दूस गंगोही (ज0 1456 ई0) ने इन शब्दों में व्यक्त किया है -"महमद महमद जग कहै, चीन्है नाहीं कोय / अहमद मीम गँवाइया, कह क्यों दूजा होय." पदमावत (1540 ई0) में सम्पूर्ण सृष्टि की रचना को नबीश्री मुहम्मद की प्रीती का परिणाम बताया गया है-"प्रथम ज्योति बिधि तेहि कै साजी / औ तेहि प्रीती सिस्टि उपराजी."
सूफी चिंतन नबीश्री के गुणतत्त्वों के प्रकाश में उन्हें पूर्ण पुरूष (इन्साने-कामिल) मानता है. पुष्टिमार्ग में इसी उच्चतम तत्त्व को पुरुषोत्तम स्वीकार किया गया है. ब्रह्मवाद, समस्त देवों सहित जगत का पुरुषोत्तम से प्रकट होना स्वीकार करता है. सूर ने "कृशनहि ते यह जगत प्रकट है, हरि में लय ह्वै जावै" के माध्यम से इसी तथ्य का संकेत किया है. मुहम्मद अव्वल भी हैं, आख़िर भी और इस दृष्टि से अनंत, अनुपम और अविनाशी भी हैं. सूरदास श्रीकृष्ण के पुरुषोत्तम रूप का निरूपण इन्हीं शब्दों में करते हैं -"अविगत, आदि, अनंत, अनुपम, अलख,पुरूष, अविनाशी"
नबीश्री को श्रीप्रद कुरआन में 'मुदस्सिर' (चादर ओढ़ने वाला) और 'मुज़म्मिल' (कमली ओढ़ने वाला) कहा गया है. सूर के आराध्य कृष्ण पीताम्बर धारी भी हैं और कमली धारी भी. नबीश्री 'हिरा' पर्वत के भीतर प्रवेश करके और श्रीकृष्ण गोवर्धन पर्वत को धारण कर के अपने विराट रूप से साक्षात्कार करते हैं. मुहम्मद का सौन्दर्य अद्वितीय है. सभी नबियों में जो सौन्दर्य पृथक-पृथक था वह सब का सब नबीश्री में एक साथ एकत्र हो गया है. सूर के आराध्य कृष्ण का सौन्दर्य अनुपम और अदभुत है. वे सुन्दरता के ऐसे सागर हैं जिन का विवेचन बुद्धि-बल और विवेक-बल के आधार पर नहीं किया जा सकता. उस सौन्दर्य का आनंद मन-ही-मन लिया जा सकता है.
मैं ने 1984 ई0 में जिस समय राम-काव्य (अब किसे बनवास दोगे) की रचना की, मेरे चिंतन के मूल में राम के सम्पूर्ण चरित्र को एक सांस्कृतिक किरणबिन्दु के भीतर से विकसित करने का उद्देश्य था. मैं अपने प्रयास में कितना सफल हुआ इसका अनुमान मैं इस तथ्य के प्रकाश में सहज ही कर सकता हूँ कि पण. बद्री नारायण तिवारी अबतक मानस संगम कानपुर से इसके तीन संस्करण प्रकाशित कर चुके हैं. वस्तुतः यह सांस्कृतिक किरण बिन्दु वैष्णव अथवा गैर वैष्णव न होकर मिली-जुली संस्कृति का विशुद्ध भारतीय किरण-बिन्दु था जिसके कथा-बीज में मेरी सौन्दर्य-मूलक चेतना अपना विस्तार तलाश रही थी.
मैं विगत तीस-पैंतीस वर्षों से सूर-काव्य का स्वान्तः सुखाय अद्ययन करता रहा हूँ. मुझे सूर काव्य में भारतीय ओके-संस्कृति की जिस भीनी-भीनी कस्तूरी सौगंध का बोध हुआ उसपर मैं पूरी तरह मुग्ध हो उठा. सूर द्वारा प्रतिपादित श्रीकृष्ण का गुणातीत, निर्विशेष, कर्त्ता, निर्विकार एवं संसार के सब धर्मों से रहित स्वरुप मुझे मेरी आस्था के साथ एकस्वर दिखायी दिया. कदाचित इसीलिए मुझे रूपांतर करते समय भी मूल रचना के आनंद की प्रतीति हुई. मुझे महसूस हुआ कि सूर वास्तव में अंधे नहीं थे. उनका अंधापन उस सांसारिकता के प्रति था जो आराध्य से दृष्टि हटाकर भक्त को भटकाव की स्थिति में छोड़ देती है. जगत की परिणति निश्चय ही ब्रह्म से भिन्न नहीं है. सूर के पदों का अनुवाद मेरे लिए श्रीकृष्ण के लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक ब्रह्म को पहचानने और उसके प्रति समर्पित हो जाने का एक प्रयास है.
मुझे इस बात का दुःख है कि भारत में मुसलामानों के प्रवेश को मुस्लिम शासकों की आक्रामक पृष्ठभूमि में ही सदैव मूल्यांकित किया गया. जबकि तथ्य यह है कि गोरी और ग़ज़नवी से बहुत पहले उत्तरी भारत में मुस्लिम सूफी साधक एक बड़ी संख्या में आ चुके थे और सौम्य स्वाभाव एवं सौहार्दपूर्ण व्यवहार के कारण पर्याप्त लोकप्रिय भी हो चुके थे. दक्षिण भारत में तो व्यापारिक संबंधों के कारण भाईचारे का वातावरण बहुत पहले से बनने लगा था. वहाँ किसी मुस्लिम शासक का कोई आक्रमण कभी नहीं हुआ. स्पष्ट है कि दक्षिण भारत में भक्ति का प्रचार-प्रसार किसी मुस्लिम साम्राज्य द्बारा हिन्दुओं पर किए गए अत्याचार, आतंक अथवा दबाव का परिणाम नहीं था. भक्ति की स्वच्छंद धारा किसी आतंक अथवा अत्याचार के वातावरण में स्वच्छ शीतल निर्झर की भांति प्रवाहित भी नहीं हो सकती थी.
मध्ययुगीन मानसिकता में रूढिवादिता और जड़ता को देखना आंशिक सत्य को उजागर करता है. मुस्लिम शास्त्रचार्यों अथवा पंडितों की रूढिवादिता के समानान्तर नाथपंथियों, संतों और सूफ़ियों के प्रगतिशील असहमतिमूलक आक्रोश को जड़ता का नाम नहीं दिया जा सकता. भारतीय जनमानस मुल्लाओं और पंडितों की अपेक्षा नाथपंथियों, सूफ़ियों और संतों से कहीं अधिक निकट से जुड़ा हुआ था. कृष्णभक्त कवियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने अपने युग के सभी प्रेममूलक रंगों को अपने भीतर समाहित किया. फलस्वरूप सूफी संतों ने भी विष्णुपदों के लालित्य के साथ एकरंगता महसूस की, जिसकी ध्वनि अकबरकालीन सूफ़ी चिन्तक मेरे अब्दुलवाहिद बिलग्रामीकृत 'हक़ायक़े -हिन्दी' नामक ग्रन्थ में अनुभव की जा सकती है, जिसमें लेखक ने विष्णुपदों की शब्दावली की सूफ़ीपरक व्याख्या प्रस्तुत की है (यह ग्रन्थ नगरी प्रचारिणी सभा वाराणसी से प्रकाशित हो चुका है). सैयद गुलाम अली 'रसखान' और बरकतुल्लाह 'पेमी' की रचनाओं को इसी के प्रकाश में व्याख्यायित किया जाना उपयुक्त है. सच पूछा जाय तो कृष्णभक्ति काव्य भारतीय जनमानस को विभिन्न स्तरों पर एक-दूसरे से जोड़ने का कार्य कर रहा था. सूरदास का इस दिशा में अविस्मरणीय योगदान स्वीकार किया जाना चाहिए.
सूर का काव्य कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से अदभुत है. उसमें उन्मेषशालिनी प्रतिभा भी है और बिम्ब-संयोजन की कलात्मक क्षमता भी. सूर के सौन्दर्य-बोध को मानसिक और कल्पनाशील स्वीकार करना और तुलसी के सौन्दर्य-बोध को लौकिक और जीवन-सापेक्ष समझाना सूर के साथ अन्याय करना है. द्रष्टव्य यह है कि सूर का काव्य-लोक जीवन से किसी स्टार पर भी कटा हुआ नहीं है. बल्कि यह कहना अनुपयुक्त न होगा कि तुलसी की तुलना में सूर की लोकजीवन-दृष्टि कहीं अधिक पैनी है. उसका फलक ग्रामीण जीवन के सहज क्रिया-कलापों से ऊर्जा प्राप्त करता है, मथुरा से सम्बद्ध कृष्ण की समस्त गतिविधियों का शांत मन से अवलोकन करता है, उद्धव और गोपियों के संवाद के माध्यम से युगीन सामाजिक, दार्शनिक, राजनीतिक और आस्थागत मुद्दों का जायज़ा लेता है और काव्य-संगीत के लयात्मक आरोह-अवरोह से जन्मी प्रकाशयुक्त जीवन तरंगों पर तैरता है.
सूर युगीन फ़ारसी ग़ज़ल अपनी कोमल मधुर शब्दावली, अद्भुत कल्पनाशीलता,सहज दो-टूक संप्रेषण क्षमता और सूक्ष्म युगबोध की कलात्मक प्रस्तुति के कारण भारतीय भाषाओं के लिए एक चुनौती बनी हुई थी. दोहे की कविता में ग़ज़ल के शेरों का गुण अवश्य था जो उसे जन सामान्य में लोकप्रिय बनाए हुए था, किंतु ग़ज़ल की विभिन्न रागों में ढल जाने वाली आकर्षक लयात्मकता से वे पूरी तरह वंचित थे.सूर ने विभिन्न भरतीय रागों पर आधारित गीति-पदों की रचना कर के ब्रज भाषा काव्य को फ़ारसी ग़ज़ल के सामानांतर खड़ा कर दिया. मुल्ला दाऊद, कुतुबन, मंझन, जायसी, तुलसी आदि फ़ारसी की मसनवी के समकक्ष अवधी कथा-काव्य परम्परा को समृद्ध कर चुके थे. सूर काव्य में भक्ति की चाशनी के साथ ग़ज़ल का लालित्य सहज ही इस प्रकार समाविष्ट हो गया कि उसका प्रभाव निरंतर गहराता गया और सूर युगीन फ़ारसी कवि भी गीति-पद की ओर आकृष्ट हुए बिना न रह सके.
सूर के काव्य में रूप-सौन्दर्य की मूर्त्त रमणीय अभिव्यक्ति है. नैसर्गिकता, स्वच्छन्दता, असाधारणता और कल्पनाशीलता का अनुकूल सहयोग पाकर, यह अभिव्यक्ति और भी स्पन्दनशील हो उठती है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मर्यादा-ग्रस्त पैमाना सूर द्वारा प्रस्तुत राधा-कृष्ण प्रेम प्रसंगों को मूल्यांकित करने के लिए छोटा पड़ जाता है. उनकी स्थूल दृष्टि बाह्यार्थ-निरूपक तत्त्वों से टकराकर वापस लौट आती है. वे लीला-प्रसंगों में अंतर्मुखी-अनुभूति की तरलता और तीव्रता को महसूस करने में असमर्थ हैं. कवि और पात्रों की अनुभूति, अभिव्यंजना के औचित्य का स्पर्श पाकर ऐन्द्रिय-सौन्दर्य जगत से आत्मिक-सौन्दर्य जगत में कब और किस समय अनायास चली जाती है, शुक्ल जी इस तथ्य का आभास नहीं कर सके हैं. सूर का रूप-सौन्दर्य केवल भौतिक ऐन्द्रिय-सौन्दर्य नहीं है, उसमें सौन्दर्य के बाह्य एवं अभ्यंतर पक्षों के बारीक-से-बारीक पहलुओं की स्थिति-जन्य गतिशील अभिव्यंजना सहज ही देखी जा सकती है.
सूर काव्य के सांस्कृतिक पक्ष का सूर के अध्येताओं ने सविस्तार विवेचन किया है, किंतु सूर की सामाजिक एवं राजनीतिक जागरूकता को पूरी तरह नज़र अंदाज़ कर दिया गया है. कारण शायद यह है कि विद्वानों ने यह पहले से ही स्वीकार कर लिया है कि सूर की वैचारिक परिधियों में सामाजिक एवं राजनीतिक विषयों के लिए कोई स्थान नहीं है. किंतु ध्यान पूर्वक देखने पर सूर काव्य में जहाँ वाक्चातुर्य से लैस संवादों की प्रभावक प्रस्तुति है, बाल सुलभ चेष्टाओं की विनोदपूर्ण नट-खट सजीव अभिव्यंजना है, ममत्व का परिस्थिति-जन्य आह्लादमय आस्वादन है, नन्द और यशोदा के संवेदनशील मन की वात्सल्य रस से सिक्त छटपटाहट है, रूठना, मनाना, खीझना-रीझाना, नाचना-झूमना,उलाहने देना, ताने कसना, बात से मुकर जाना आदि अनेक मानव मनोविज्ञान से जुड़े प्रसंग हैं, वहीं युग, समाज और व्यवस्था पर कहीं हलकी, कहीं तीखी चोट करते रहना सूर के गीति-पदों की एक विशिष्ट पहचान है.
उद्धव के साथ गोपियों के संवाद का फलक, यदि बारीकी से देखा जाय, तो राजनीतिक स्थितियों के व्यंग्यात्मक चित्रों से भरा हुआ मिलेगा. सूर युगीन दुर्बल प्रशासनिक व्यवस्था पर गोपियाँ उद्धव को संबोधित कर के पैनी चोट करती हैं -
ऊधौ ! तुम्हारा तौर तरीका भी खूब है
राजा भी खूबतर है, रिआया भी खूब है
तुम जैसा उनका अफ़्सरे-आला भी खूब है
आमों को काट कर के लगाते हो तुम बबूल
चंदन को ख़त्म कर के उडाते हो सिर्फ़ धूल
तुम शाह को पकड़ते हो चोरों को छोड़ कर
नज़रों में हैं तुम्हारी चुगलखोर मोतबर
ऐ 'सूर' कैसे होगा भला इस तरह निबाह
सरकार बेलगाम है, जनता है सब तबाह.

सूर की दृष्टि में 'अंधाधुंध' सरकार के साथ निर्वाह कर पाना बड़ा ही कष्टसाध्य कार्य है. और वह भी ऐसी स्थिति में, जब चुगली करने वाले विश्वसनीय समझे जाएँ और अपराधियों को मुक्त कर के सीधे-सच्चे लोगों को अपराधी ठहराकर बंदी बनाया जाय. राजा को तो वास्तव में ऐसा होना चाहिए कि उसकी प्रजा हर प्रकार के अन्याय और अत्याचार से मुक्त हो -
राजा का 'सूर' फ़र्ज़ तो होता है बस यही
जौरो-सितम से उसकी रिआया न हो दुखी

किंतु सूर के युग की विचित्र विडम्बना है -
ऐ 'सूर' हैं ये सिर्फ़ ज़माने की खूबियाँ
मिलाता है शातिरों को ही फ़िल्फ़ौर फल यहाँ

सच पूछिए तो "सूरदास यह जग की महिमा, कुटिल तुरत फल पावत" की स्थिति सूर युगीन समाज की तुलना में आज कहीं अधिक प्रासंगिक है. प्रेमचन्द ने जिस समय महाजनी सभ्यता पर निबंध लिखा और महाजनों तथा साहूकारों क्र अत्याचार के चित्र कथा-साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत किए, वामपंथी आलोचकों ने उनकी प्रगतिशीलता को एक ख़ास नज़रिए से मूल्यांकित किया. सूर महाजनी सभ्यता के इस रुख से अच्छी तरह परिचित थे. स्थिति यह थी कि महाजन क़र्ज़ का पैसा वापस न मिलने के बदले में मवेशी तो खोल ही ले जाता था, घर में बचे-खुचे चारा-पानी को भी हज़म कर जाने की इच्छा उसमें पर्याप्त बलवती थी -
पहले तो 'सूर' खोले महाजन ने जानवर
अब चारा हज़्म करने पे आमादा है लईं

ज़मीनदारों और पटवारियों के अत्याचार की कथाएं प्रेमचंद साहित्य में पर्याप्त महत्त्व रखती हैं. सूर का किसान प्रेमचंद के किसान से कुछ कम पीड़ित नहीं है. गाँव की ऊसर ज़मीन पर खेती करने से कितनी उपज हो सकती है यह सहज ही महसूस किया जा सकता है. पंचजन यदि कारकुन से मिलकर मन-ही-मन षड़यंत्र रचें और ज़मीनदार खेत के कागजात माँगने लगे,तो बेचारे किसान की कितनी दयनीय स्थिति होगी ( विस्तार के लिए देखिये सीताराम चतुर्वेदी संपादित सूर ग्रंथावली, खंड 4, पद 4491 )
सूरदास के पदों का काव्यानुवाद करते समय मैंने इस बात का विशेष ध्यान रक्खा है कि कवि का प्रतिनिधि साहित्य पाठकों तक पहुँचा सकूँ. विनय, वात्सल्य और श्रृंगार से इतर, अनेक ऐसे प्रसंगों को भी मैं ने समेटने का प्रयास किया है, जिन से सूर के काव्य-फलक की सीमाएं समझी जा सकें. सूर सागर के विभिन्न संपादित संस्करणों में जो पाठ भेद हैं उन से मुझे बड़ी कठिनाई हुई है. फिर भी मैं ने स्तरीय पाठ को ही आधार बनाया है.
प्रारंभ में जब मैं ने कुछ पदों के अनुवाद किए तो मेरे वरिष्ठ विभागीय सहयोगी प्रो. गोवर्धन नाथ शुक्ल ने उनकी जिन शब्दों में प्रशंसा की उस से मुझे कल्पनातीत प्रोत्साहन मिला. उन्हीं दिनों मित्रवर लल्लन प्रसाद जी व्यास ने कुछ काव्यानुवाद 'विश्व हिन्दी दर्शन' में प्रकाशित किए जिन्हें पाठकों ने बहुत अधिक सराहा. किंतु अनेक पारिवारिक परीशानियों से घिरा होने के कारण मैं वर्षों इस कार्य की ओर ध्यान न दे सका. इधर मेरे अग्रज प्रो. कैलाशचंद्र भाटिया ने मुझे बार-बार टोक कर इस कार्य के लिए पुनः प्रेरित किया. मुझे प्रसन्नता है कि मैं सूरदास के एक सौ एक पदों का काव्यानुवाद करने के अपने संकल्प को पूरा कर सका. वैसे तो मैं ने बहुत ही ईमानदारी से मनोयोग पूर्वक इस कार्य को संपन्न करने का प्रयास किया है, फिर भी कहीं मैं यदि सूर जैसे महान कवि की भावनाओं को यथावत रूपांतरित नहीं कर सका हूँ, तो इसका कारण मेरी अपनी काव्य-प्रतिभा की कमी ही हो सकती है. मुझे विशवास है कि सूर के पाठक मेरे दोषों के लिए मुझे क्षमा कर देंगे
10 जून, 1998 प्रो. शैलेश ज़ैदी
पूर्व अध्यक्ष, हिन्दी विभाग
अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय

रविवार, 22 जून 2008

पसंदीदा शायरी / शहरयार

पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]
जिंदगी जैसी तमन्ना थी, नहीं, कुछ कम है
हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है
घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक़्शे के मुताबिक़ ये ज़मीं कुछ कम है
बिछड़े लोगों से मुलकात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफ़ी है, यकीं कुछ कम है
अब जिधर देखिये लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ चीज़ ज़ियादा है कहीं कुछ कम है
आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
ये अलग बात है पहली सी नहीं, कुछ कम है
[ 2 ]
अजीब सानेहा मुझ पर गुज़र गया यारो
मैं अपने साए से कल रात डर गया यारो
हर एक नक़्श तमन्ना का हो गया धुंधला
हर एक ज़ख्म मेरे दिल का भर गया यारो
भटक रही थी जो कश्ती वो गर्के-आब हुई
चढ़ा हुआ था जो दरया उतर गया यारो
वो कौन था, वो कहाँ का था, क्या हुआ था उसे
सुना है आज कोई शख्स मर गया यारो
[ 3 ]
हम पढ़ रहे थे ख्वाब के पुर्जों को जोड़ के
आंधी ने ये तिलिस्म भी रख डाला तोड़ के
इक बूँद ज़हर के लिए फैला रहे हो हाथ
देखो कभी ख़ुद अपने बदन को निचोड़ के
कुछ भी नहीं जो ख्वाब की सूरत दिखायी दे
कोई नहीं जो हम को जगाये झिंझोड़ के
इन पानियों से कोई सलामत नहीं गया
है वक़्त अब भी कश्तियाँ ले जाओ मोड़ के
[ 4 ]
जुस्तुजू जिसकी थी उसको तो न पाया हम ने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हम ने
तुझ को रुसवा न किया ख़ुद भी पशेमां न हुए
इश्क़ की रस्म को इस तर्ह निभाया हम ने
कब मिली थी कहाँ बिछड़ी थी हमें याद नहीं
जिंदगी तुझ को तो बस ख्वाब में देखा हम ने
ऐ अदा और सुनाये भी तो क्या हाल अपना
उम्र का लंबा सफर तय किया तनहा हम ने
[ 5]
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता
जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है
ज़ुबां मिली है मगर हम-ज़ुबां नहीं मिलता
बुझ सका है भला कौन वक्त के शोले
ये ऐसी आग है जिसमें धुआं नहीं मिलता
तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो
जहाँ उमीद हो इसकी वहाँ नहीं मिलता
********************

शनिवार, 21 जून 2008

पसंदीदा शायरी / बशीर बद्र

पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में, के मेरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे, मगर उसके बाद सेहर न हो
वो बड़ा रहीमो-करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ, तो दुआ में मेरी असर न हो
मेरे बाजुओं में थकी-थकी, अभी महवे-ख्वाब है चाँदनी
न उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो
कभी दिन की धूप में झूम के, कभी शब् के फूल को चूम के
यूँही साथ-साथ चलें सदा, कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो
ये ग़ज़ल कि जैसे हिरन की आँख में पिछली रात की चाँदनी
न बुझे खराबे की रोशनी, कभी बे-चराग़ ये घर न हो
मेरे पास मेरे हबीब आ, ज़रा और दिल के करीब आ
तुझे धडकनों में बसा लूँ मैं, कि बिछड़ने का कभी डर न हो
[ 2]
अभी इस तरफ़ न निगाह कर, मैं ग़ज़ल की पलकें संवार लूँ
मेरा लफ्ज़-लफ्ज़ हो आइना, तुझे आइने में उतार लूँ
मैं तमाम दिन का थका हुआ, तू तमाम शब् का जगा हुआ
ज़रा ठहर जा इसी मोड़ पर, तेरे साथ शाम गुज़ार लूँ
अगर आस्मां की नुमाइशों में, मुझे भी इज़ने-क़याम हो
तो मैं मोतियों की दूकान से, तेरी बालियाँ, तेरे हार लूँ
कई अजनबी तेरी राह के, मेरे पास से यूँ गुज़र गए
जिन्हें देख कर ये तड़प हुई, तेरा नाम ले के पुकार लूँ
[ 3 ]
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में
और जाम टूटेंगे इस शराबखाने में
मौसमों के आने में मौसमों के जाने में
हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं
उम्र बीत जाती है दिल को दिल बनाने में
फाख्ता की मजबूरी ये भी कह नहीं सकती
कौन सांप रखता है उसके आशियाने में
दूसरी कोई लड़की जिंदगी में आयेगी
कितनी देर लागती है उसको भूल जाने में
[ 4 ]
मुहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला
अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला
घरों पे नाम थे नामों के साथ ओहदे थे
बहोत तलाश किया कोई आदमी न मिला
तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था
फिर इसके बाद मुझे कोई अजनबी न मिला
बहोत अजीब है ये कुर्बतों की दूरी भी
वो मेरे साथ रहा और मुझे कभी न मिला
खुदा की इतनी बड़ी कायनात में मैं ने
बस एक शख्स को माँगा मुझे वही न मिला
[ 5 ]
यूँही बेसबब न फिरा करो, कोई शाम घर भी रहा करो
वो ग़ज़ल की एक किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो
कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो
अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आएगा कोई जायेगा
तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया, उसे भूलने की दुआ करो
मुझे इश्तेहार सी लगती हैं, ये मुहब्बतों की कहानियां
जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सूना नहीं वो कहा करो
कभी हुस्ने-पर्दानशीं भी हो, ज़रा आशिक़ाना लिबास में
जो मैं बन संवर के कहीं चलूँ, मेरे साथ तुम भी चला करो
ये खिज़ां की ज़र्द सी शाम में, जो उदास पेड़ के पास है
ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आंसुओं से हरा करो
नहीं बेहिजाब वो चाँद सा, कि नज़र का कोई असर न हो
उसे इतनी गर्मिए-शौक़ से, बड़ी देर तक न तका करो
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पसंदीदा शायरी / 'जिगर' मुरादाबादी

पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]
दास्ताने-गमे-दिल उनको सुनाई न गई
बात बिगडी थी कुछ ऐसी कि बनायी न गई
सब को हम भूल गए जोशे-जुनूं में लेकिन
इक तेरी याद थी ऐसी कि भुलाई न गई
इश्क़ पर कुछ न चला दीदए-तर का जादू
उसने जो आग लगा दी वो बुझाई न गई
क्या उठायेगी सबा ख़ाक मेरी उस दर से
ये क़यामत तो ख़ुद उनसे भी उठाई न गई

[ 2 ]
अगर न जोहरा-जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे जिंदगी ,कहाँ गुज़रे
जो तेरे आरिज़ो-गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो वो लम्हे बलाए-जाँ गुज़रे
मुझे ये वह्म रहा मुद्दतों कि जुरअते-शौक़
कहीं न खातिरे-मासूम पर गरां गुज़रे
हरेक मुक़ामे-मुहब्बत बहोत ही दिलकश था
मगर हम अहले-मुहब्बत कशां-कशां गुज़रे
जुनूं के सख्त मराहिल भी तेरी याद के साथ
हसीं-हसीं नज़र आए, जवां-जवां गुज़रे
खता मुआफ ज़माने से बदगुमाँ होकर
तेरी वफ़ा पे भी क्या-क्या हमें गुमाँ गुज़रे
उसी को कहते हैं दोज़ख उसी को जन्नत भी
वो जिंदगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को खबर न हुई
रहे-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तहाँ गुज़रे
कोई न देख सका जिनको दो दिलों के सिवा
मुआमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे
बहोत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद 'जिगर'
वो हादिसाते-मुहब्बत जो नागहाँ गुज़रे

[ 3 ]
बराबर से बच कर गुज़र जाने वाले
ये नाले नहीं बे-असर जाने वाले
मुहब्बत में हम तो जिये हैं जियेंगे
वो होंगे कोई और मर जाने वाले
मेरे दिल की बेताबियाँ भी लिये जा
दबे पाँव मुंह फेर कर जाने वाले
नहीं जानते कुछ कि जाना कहाँ है
चले जा रहे हैं मगर जाने वाले
तेरे इक इशारे पे साकित खड़े हैं
नहीं कह के सबसे गुज़र जाने वाले

[ 4 ]
हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हमसे ज़माना ख़ुद है, ज़माने से हम नहीं
मेरे जुबां पे शिकवए-अहले-सितम नहीं
मुझको जगा दिया यही एहसान कम नहीं
यारब हुजूमे-दर्द को दे और वुसअतें
दामन तो क्या अभी मेरी आँखें भी नम नहीं
ज़ाहिद कुछ और हो न हो मयखाने में मगर
क्या कम ये है कि शिकवए -दैरो-हरम नहीं
मर्गे-'जिगर' पे क्यों तेरी आँखें हैं अश्क-रेज़
इक सानेहा सही, मगर इतना अहम् नहीं

[ ५ ]
इक लफ़्ज़े-मुहब्बत का अदना सा फ़साना है
सिमटे तो दिले-आशिक फैले तो ज़माना है
क्या हुस्न ने समझा है, क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है
वो हुस्नो-जमाल उनका, ये इश्क़ो-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का बहाना है
अश्कों के तबस्सुम में, आहों के तरन्नुम में
मासूम मुहब्बत का मासूम फ़साना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ, इतना तो समझ लीजे
इक आग का दरया है और डूब के जाना है
आंसू तो बहोत से हैं, आंखों में 'जिगर' लेकिन
बिंध जाए सो मोती है, रह जाए सो दाना है

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