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शनिवार, 21 जून 2008

पसंदीदा शायरी / बशीर बद्र

पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में, के मेरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे, मगर उसके बाद सेहर न हो
वो बड़ा रहीमो-करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ, तो दुआ में मेरी असर न हो
मेरे बाजुओं में थकी-थकी, अभी महवे-ख्वाब है चाँदनी
न उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो
कभी दिन की धूप में झूम के, कभी शब् के फूल को चूम के
यूँही साथ-साथ चलें सदा, कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो
ये ग़ज़ल कि जैसे हिरन की आँख में पिछली रात की चाँदनी
न बुझे खराबे की रोशनी, कभी बे-चराग़ ये घर न हो
मेरे पास मेरे हबीब आ, ज़रा और दिल के करीब आ
तुझे धडकनों में बसा लूँ मैं, कि बिछड़ने का कभी डर न हो
[ 2]
अभी इस तरफ़ न निगाह कर, मैं ग़ज़ल की पलकें संवार लूँ
मेरा लफ्ज़-लफ्ज़ हो आइना, तुझे आइने में उतार लूँ
मैं तमाम दिन का थका हुआ, तू तमाम शब् का जगा हुआ
ज़रा ठहर जा इसी मोड़ पर, तेरे साथ शाम गुज़ार लूँ
अगर आस्मां की नुमाइशों में, मुझे भी इज़ने-क़याम हो
तो मैं मोतियों की दूकान से, तेरी बालियाँ, तेरे हार लूँ
कई अजनबी तेरी राह के, मेरे पास से यूँ गुज़र गए
जिन्हें देख कर ये तड़प हुई, तेरा नाम ले के पुकार लूँ
[ 3 ]
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में
और जाम टूटेंगे इस शराबखाने में
मौसमों के आने में मौसमों के जाने में
हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं
उम्र बीत जाती है दिल को दिल बनाने में
फाख्ता की मजबूरी ये भी कह नहीं सकती
कौन सांप रखता है उसके आशियाने में
दूसरी कोई लड़की जिंदगी में आयेगी
कितनी देर लागती है उसको भूल जाने में
[ 4 ]
मुहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला
अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला
घरों पे नाम थे नामों के साथ ओहदे थे
बहोत तलाश किया कोई आदमी न मिला
तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था
फिर इसके बाद मुझे कोई अजनबी न मिला
बहोत अजीब है ये कुर्बतों की दूरी भी
वो मेरे साथ रहा और मुझे कभी न मिला
खुदा की इतनी बड़ी कायनात में मैं ने
बस एक शख्स को माँगा मुझे वही न मिला
[ 5 ]
यूँही बेसबब न फिरा करो, कोई शाम घर भी रहा करो
वो ग़ज़ल की एक किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो
कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो
अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आएगा कोई जायेगा
तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया, उसे भूलने की दुआ करो
मुझे इश्तेहार सी लगती हैं, ये मुहब्बतों की कहानियां
जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सूना नहीं वो कहा करो
कभी हुस्ने-पर्दानशीं भी हो, ज़रा आशिक़ाना लिबास में
जो मैं बन संवर के कहीं चलूँ, मेरे साथ तुम भी चला करो
ये खिज़ां की ज़र्द सी शाम में, जो उदास पेड़ के पास है
ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आंसुओं से हरा करो
नहीं बेहिजाब वो चाँद सा, कि नज़र का कोई असर न हो
उसे इतनी गर्मिए-शौक़ से, बड़ी देर तक न तका करो
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