रविवार, 24 अगस्त 2008
वो फूल अब कहाँ / ज़ैदी जाफ़र रज़ा
बेकार ज़ाया करते हो तुम रोज़ो-शब कहाँ
इस दौर का खुलूस भी है मस्लेहत-शनास
मिलते हैं लोग रोज़, मगर बे-सबब कहाँ
उन्वाने-फ़िक्र आज है दहशतगरों का ज़ह्र
कुछ भी पता नहीं कि ये फैलेगा कब, कहाँ
अब चाँदनी का हुस्न भी सबके लिए नहीं
गुरबत की ठोकरों में है हुस्ने-तलब कहाँ
हर साज़ तेज़-गाम, हर आवाज़ तेज़-रव
ठहराव आज मक़्सदे-बज़्मे-तरब कहाँ
कच्चे मकानों में भी न बाक़ी बचा खुलूस
वो सादगी, वो प्यार, वो जीने के ढब कहाँ
सैराब पहले से हैं जो दरिया उन्हीं का है
साहिल तक आ सकेंगे कभी तशना-लब कहाँ
क्यों तुमको साया-दार दरख्तों की है तलाश
इस दौरे-बे-अदब में मिलेगा अदब कहाँ
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यह जानना अभी शेष है / शैलेश ज़ैदी
कितने पवित्र हैं यह शब्द और इनकी ध्वनियाँ !
किसी छोटे से जलाशय में
जिसमें गन्दगी भरी हो
यदि इन शब्दों को डुबो दिया जाय
तो यह कुरूप तो हो सकते हैं
पवित्र फिर भी रहेंगे.
कलाकृतियाँ चाहे हुसैन की हों
या आपकी या मेरी
उन्हें परखने के लिए दृष्टि चाहिए
और यह दृष्टि केसरिया दिमागों में नहीं है.
श्रीराम और भारत माता जैसे पवित्र शब्द भी
इन दिमागों की संकीर्ण परिधियों में
सिकुड़ गए हैं
और इनसे मुक्त होकर
अपनी सुगंध फैलाने के लिए छटपटा रहे हैं.
कलाकृतियाँ नष्ट करने से
सांस्कृतिक धरोहर फालिज-ग्रस्त हो सकते हैं
और जय श्री राम का सांस्कृतिक धरोहर भी
अपना अर्थ खो सकता है.
केसरिया दिमागों को
यह जानना अभी शेष है.
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[नई दिल्ली में एम्. ऍफ़. हुसैन के पक्ष में लगाई गई एक प्रदर्शनी में 'जय श्रीराम' और 'भारत माता की जय' का नारा लगाते हुए एक समूह ने वितंडावाद फैलाया और कई पेंटिंग्स नष्ट कर दीं .इस समाचार ने जन्म दिया है 'यह जानना अभी शेष है' कविता को. शैलेश ज़ैदी ]
मैं तब भी आगे बढूंगा / शैलेश ज़ैदी
यह जानते हुए भी मैं आगे बढ़ रहा हूँ
निरंतर आगे बढ़ रहा हूँ
कंटीली झाडियाँ हवाओं के साथ हैं
वे चाहती हैं कि मेरे शरीर पर खरोंच आ जाय.
मेरे पैरों में कांटे चुभ जाएँ
मेरी गति धीमी पड़ जाय
मैं वहाँ न पहुँच सकूँ
जहाँ कुछ लोग मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं.
हवाएं झाडियों के साथ
कानाफूसी कर रही हैं
मैं एक-एक शब्द सुनते हुए भी
आगे बढ़ रहा हूँ
मुझे विशवास है अपने पैरों पर
अपने संकल्प पर.
मैं वहाँ ज़रूर पहोंचूंगा
जहाँ कुछ लीग मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं.
लेकिन मैं अगर वहाँ पहोंच गया
और लोग वहाँ नहीं मिले
तब ?
मैंने उनके पैरों के निशान तलाश किए
और निशान नहीं मिले
तब ?
मैंने उन्हें आवाजें दीं
और उत्तर नहीं मिला
तब ?
मैं तब भी आगे बढूंगा
अपने निशान छोड़ता हुआ
अपनी आवाजें बिखेरता हुआ
दरख्त की एक-एक टहनी से
अपनी बात कहता हुआ.
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दीवार पर टंगा आदमी / शैलेश ज़ैदी
जिसे मैं कमरे की दीवार पर टांग दूँ
और वह फुर से उड़ जाने के बजाय
कमरे में नज़रबंद हो जाय.
वह कंप्यूटर से संचालित कोई रोबोट भी नहीं है
जिसे मैं जहाँ और जैसे चाहूँ इस्तेमाल करुँ
और जब इच्छा हो
राख के ढेर में तब्दील कर दूँ.
मैंने जब से आँखें खोली हैं
उसे बार-बार देखा है
रूप और रंग बदलते
लहू के कई काई दरिया एक साथ फलांगते
अच्छे-भले आदमी के दिमाग के भीतर
पर्त-दर-पर्त उतरते.
मैंने देखा है कि उसके हाथ
उसकी उंगलियाँ, उसके जबड़े
सब आदमी के पेट के भीतर हैं
और यह आदमी !
अपने पेट के भीतर होने के बजाय
लकड़ी से तराशी मैना की तरह
दीवार पर टंगा है.
अन्तर केवल इतना है
कि लकड़ी की मैना
लकडी की भाषा जानती है
और दीवार पर टंगा आदमी
अपनी भाषा भूल चुका है.
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फूल का लाल होना / शैलेश ज़ैदी
उसका रंग लाल है.
मैं रोज़ सुबह उसे देखता हूँ
वह कभी नहीं मुरझाता
सूरज की किरणें उसे और भी चमका देती हैं
रात उसकी सुर्खी को
अपने अंधेरों में डुबो नहीं पाती.
उसका दहकता लाल रंग
प्रतिकूल परिस्थितियों में
और भी दहकने लागता है
फूल का लाल होना
फूल का स्वभाव नहीं है
मेरी ज़रूरत है.
मैं फूल को हमेशा लाल ही देखता हूँ
मेरे आँगन में जो फूल खिला है
वह अगर मेरे आँगन में न भी होता
तो भी लाल होता
हर वह आँगन जहाँ कोई फूल खिलता है
मेरा अपना आँगन होता है
और मेरा आँगन
मेरे भीतर कहीं दूर-दूर तक फैला हुआ है.
रात मेरे आँगन में उतरने से डरती है
और अगर कभ उतर भी आए
तो मैं उसे एक काला चमकदार पत्थर समझूंगा
अपने ढंग से तराशूंगा
और अपने आँगन के उजले फर्श में
संग-मर्मर में जडी लिखावट की तरह
अक्षर-अक्षर जड़ दूंगा
ताकि रात कैदी बनी रहे
ताकि मेरे आँगन का सुर्ख-सफ़ेद चेहरा
और भी धारदार हो जाय.
ताकि लोग जान लें
की फूल का रंग चाहे जैसा भी हो
सिर्फ़ लाल होता है
और फूल का लाल होना
फूल का स्वभाव नहीं है
मेरी ज़रूरत है.
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आख़िर क्यों हुआ ऐसा ! / ज़ैदी जाफ़र रज़ा
बता मुझ को दिले-बेताब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
निकलती आई थी अब तक जो तूफानों की ज़द से भी
वो कश्ती हो गई गर्क़ाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
हवा कैसी चली जिसके असर से ख़ुद मेरे घर के
हुए लायानी सब आदाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
सभी कहते थे वो राहें बहोत महफूज़ थीं फिर भी
सभी के लुट गये अस्बाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
समंदर में महारत थी जिसे गोंते लगाने की
उसी पर सख्त थे गिर्दाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
दिया था साथ मैं ने हक़ का, इसमें क्या बुराई थी
हुए दुश्मन सभी अहबाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
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दायरा / मुस्तफ़ा शहाब
जिसके साए में सड़क जाती है
वो उसी पेड़ के नीचे से हमेशा अपना
सर झुकाए हुए चुप-चाप गुज़र जाता है.
उसने ये भी नहीं मालूम किया
के हरेक शाख पे उस पीपल की
ज़िन्दगी और भी शक्लों में रहा करती है
कई पत्ते, कई कीडे, कई चिड़ियाँ, कई साँप
कीडे पत्तों को चबा जाते हैं
चिड़ियाँ कीडों को पकड़ लेती हैं
साँप चिडियों को निगल जाते हैं
और पीपल नये पत्तों को जनम देता है.
वो कभी सुब्ह, कभी शाम ढले
उस घने पेड़ के नीचे से हमेशा अपना
सर झुकाए हुए चुप-चाप गुज़र जाता है
कभी दफ्तर, कभी घर जाता है.
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14 द गार्डेन्स पिनर मिडिलसेक्स
एच. ए. 5 डी. डब्ल्यू. युनाइटेड किंगडम.
गुज़र अवक़ात /नसीम सैयद
एक-एक पल
मेरे एहसास के कशकोल में गिरता जाए
आज खैरात पे माएल है मुहब्बत की नज़र
आज ये कासए-उम्मीद छलक जाने दो
कल ये खैरात बुरे वक़्त में काम आएगी
फिर उगायेंगे
धरेंगे
यही गुज़रा हुआ वक़्त
गुज़र अवक़ात की सूरत तो निकल आएगी.
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115-HILEREST-AVE
2214 APTS, MISSISSAUGA
ONT, 56 379, CANADA
शनिवार, 23 अगस्त 2008
स्वागत! / सुधीर सक्सेना 'सुधि'
झोंपड़ी की टूटी-फूटी छ्त से
पंछियों से भरा आसमान दीखता है.
पंछियों की चहचहाहट सुनती
लेटी हुई बीमार माँ
पूछती है अपनी लड़की से-
'तेरे हाथ में क्या है बेटी?'
'पंछी का संवलाया पंख माँ.'
'जा बेटी, चूल्हे पर हंडिया चढ़ा दे,
तेरे बापू खेत से आते ही होंगे.'
माँ कहती है और
दर्द से कराहते हुए
अपने मर्द और शाम का
स्वागत करने को उठ बैठती है.
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75/44, क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020
बे-ईमान / शैलेश ज़ैदी [लघु-कथा]
बामियान में महात्मा बुद्ध अचानक एक दिन रेतीले पहाडों के बीच शांत मुद्रा में खड़े दिखायी दिए। एक लम्बी यात्रा तै करते-करते उनका क़द इतना ऊंचा हो गया था कि आस-पास के पहाड़ भी उनके सामने छोटे पड़ गए। मूर्ति पूजा उन्हें पसंद नहीं थी, इसलिए उन्होंने अपने ठहरने के लिए कोई घनी आबादी चुनने के बजाय एक ऐसा मैदान चुना जिसमें केवल पहाड़ थे। हरियाली कहीं दूर तक नहीं थी. भूला-भटका कोई यात्री यदि वहाँ तक पहुँच भी जाय तो दो बूँद पानी तक को तरस जाय. वो निश्चिंत थे कि यहाँ आकर कोई उनकी पूजा नहीं करेगा. इसलिए इस शान्ति-खंड में चुप-चाप पहाडों के झुरमुट में खड़े हो जाने में कोई हर्ज नहीं था. अजानता को भी उन्होंने इसी लिए चुना था. जनता रहित स्थान साँय-साँय तो करता है पर इस निःशब्द ध्वनि में अनायास ही ब्रह्म-ज्ञान की प्राप्ति होती है. बामियान के उस सपाट चटियल मैदान तक आदमियों का कोई झुंड तो कभी नहीं आया, हाँ कुछ सैलानी चिडियां वहाँ ज़रूर पहुँच गयीं. चिडियों ने वहाँ जो कुछ देखा और महसूस किया उस से उनकी आँखें खुल गयीं. ये चिडियां ब्रह्म-ज्ञान>बम्ह्ज्ञान >बम्मियान >बामियान चिल्लाती हुई आकाश में उड़ गयीं. रोशनी का एक सैलाब सा उमड़ पड़ा. आवाजों की गूँज इतनी तेज़ थी, कि और सारी आवाजें गूंगी हो गयीं. अफगानी आँखें ब्रह्म-ज्ञान के उस प्रतीक पर पड़ने के लिए विवश थीं. और वह प्रतीक इन आंखों की हलचल से बेखबर था. भारत से आधुनिक देवताओं के चिंतन का सनातनी सोमरस मंगाया गया और उस से अफगानी धर्म संसद की हरी शराब घोलकर काकटेल तैयार की गई. आंखों ने सारी की सारी काकटेल अपने भीतर उतार लली. उनका रंग ललाल हो गया और उन से चिंगारियां फूटने लगीं. चिंगारियां नशीले ब्रह्मास्त्रों में बदल गयीं. धमाके के साथ शांत मुद्रा में खड़े महात्मा बुद्ध की विशाल काया टूट कर विलुप्त हो गई. हलकी सी आंधी आई और उस काया की रेत उड़कर समूचे अफगानिस्तान पर छा गई. सैलानी चिडियों को चिंता हुई और वो पहले की तरह एक बार फिर बामियान के उस मैदान में उतरीं. इस बार उनकी आंखों में बारूद की गंध भर गई. बेचैनी से वो चीख पडीं बामियान>बेमियायाँ>बेइमान>बे-ईमान >बे-ईमान. और चीखती हुई उड़ गयीं.
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[अलीगढ़, नवम्बर 2000]