तुम नहीं हो तो ये तनहाई भी है आवारा।
जा-ब-जा शहर में रुस्वाई भी है आवारा॥
कोयलें साथ उड़ा ले गयीं आँगन की फ़िज़ा,
पेड़ ख़ामोश हैं अँगनाई भी है आवारा॥
पहले आ-आ के मुझे छेड़ती रहती थी मगर,
अब तो लगता है के पुर्वाई भी है आवारा॥
जाने क्यों ज़ह्न कहीं पर भी ठहरता ही नहीं,
फ़िक्र की मेरे वो गहराई भी है आवारा॥
तेरी गुलरंग सेहरकारियाँ ओझल सी हैं,
दिल के सहरा में वो रानाई भी है आवारा॥
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4 टिप्पणियां:
सुन्दर गजल।
कितनी देर मतले पर ही अतकी रही --लाजवाब । पूरी गज़ल बहुत अच्छी लगी धन्यवाद्
जाने क्यों ज़ह्न कहीं पर भी ठहरता ही नहीं,
फ़िक्र की मेरे वो गहराई भी है आवारा
इस में तो कोई शक ही नहीं है कि आप की फ़िक्र में गहराई बहुत है
कोयलें साथ उड़ा ले गयी आँगन की फ़ज़ा
पेड़ खामोश हैं, अंगनाई भी है आवारा
हुज़ूर , 'अंगनाई' को 'आवारा' के साथ
किस खूबसूरती के साथ
निस्बत दे कर ऐसा अछा शेर कह डाला आपने.... !!
और वो
फ़िक्र की मेरी वो गहराई भी है आवारा
ज़हनी कशमकश का वो अजीब आलम
और ये असर
एक अच्छी ग़ज़ल के लिए दिली दाद कुबूल फरमाएं
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