बुधवार, 11 मार्च 2009

ये वो सफ़र है के जाना है कब पता ही नहीं.

ये वो सफ़र है के जाना है कब पता ही नहीं.
मगर न जाये कोई, ये कभी सुना ही नहीं.
न रास्ते से हैं वाक़िफ़, न मंज़िलों की खबर,
बढायें खुद से क़दम, इतना हौसला ही नहीं.
हवा के सामने लौ जिसकी थरथराई न हो,
चरागे-ज़ीस्त कभी इस तरह जला ही नहीं,
तमाम उम्र ही मेहनत-कशी में गुज़री है,
सभी ये समझे मेरा कोई मुद्दुआ ही नहीं.
हर एक ज़ाविए से उसको देखता आया,
सरापा देखूं उसे ऐसा ज़ाविया ही नहीं.
अगर वो पूछ ले, क्या अपने साथ लाये हो,
मैं क्या कहूँगा मुझे इसकी इत्तेला ही नहीं.
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3 टिप्‍पणियां:

"अर्श" ने कहा…

होली की ढेरो बधाई ..... सभी शे'र उम्दा... मगर मैं मतले के दोनों शे'र के ताल्लुकात को समझ नहीं पाया... कृपया मैं समझ नहीं पाया आप मेरी शंका को दूर करे... गुजारिश है ..


अर्श

युग-विमर्श ने कहा…

प्रिय श्री अर्श
यह यात्रा जीवन की अंतिम यात्रा है जिसका कोई समय निश्चित नहीं है. स्वेच्छा का इसमें हस्तक्षेप संभव नहीं. कोई इस यात्रा पर न जाय यह बात कभी सुनाने में नहीं आई. पहले शेर में इसी तथ्य का संकेत है. दूसरे शेर में इसी विषय को आगे बढाया गया है. कोई भी यात्री इस यात्रा के मार्ग से परिचित नहीं है और अपने गंतव्य-स्थल का भी उसे ज्ञान नहीं है. यदि इस दिशा में वह स्वयं क़दम बढ़ाना चाहे तो सभी कुछ शून्य में होने के कारण उसमें यह उत्साह भी नहीं पैदा होता.
क्या शेर अब भी स्पष्ट नहीं हैं ? होली का यह सुखद प्राकृतिक पर्व आपके लिए मंगलमय हो.
शैलेश ज़ैदी

Dr. Amar Jyoti ने कहा…

'सरापा देखूं उसे…'
शानदार।