मंगलवार, 10 नवंबर 2009

पहलू मेँ प्लस्टिक की थी नल्की लगी हुई ।

पहलू मेँ प्लस्टिक की थी नल्की लगी हुई ।
ख़ूँ रिस रहा था यूँ के बहोत बेकली हुई॥

ख़ाली थे घर के ताक़्चे, कुछ भी न था वहाँ,
मजबूरियों की फ़स्ल खड़ी थी पकी हुई॥

दालान से गुज़रती थी कल तक जो दोपहर,
अब उसके पास धूप नहीं थी बची हुई ॥

क्या रोशनाई वक़्त के सहरा से माँगता ,
अश्कों की थी सियाही वहाँ भी भरी हुई॥

यादों के ख़ैमे साथ लिये घूमता रहा,
चूल्हे पे दुख के, देग़ थी दिल की चढ़ी हुई॥

देखूँगा क्य मैं खोल के माज़ी की खिड़कियाँ,
एक फाँस सी है रूह के अन्दर चुभी हुई ॥

पेशानियाँ शऊर की हैं आज मुज़महिल,
इदराक की है नब्ज़ बहोत ही थकी हुई॥
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दिल के तवे पे जलते हैं लफ़ज़ों के कारवाँ।

दिल के तवे पे जलते हैं लफ़ज़ों के कारवाँ।
हो जायें राख राख न ख़्वाबों के कारवाँ॥

टुकड़ों में बँट गया है मेरा इस तरह वुजूद ,
हँसते हैं मेरी ज़ात पे अश्कों के कारवाँ ॥

मैं कल ज़मीन ओढ़ के सो जाऊँगा यहाँ ,
आयेंगे मेरे पास फ़रिश्तों के कारवाँ ॥

इक स्म्त हम को एटमी ताक़त का है ग़ुरूर,
इक स्म्त ख़ूँ-चकाँ हैं धमाकों के कारवाँ ॥

तरीख़ के हैं जिस्म पे नाख़ून के निशाँ,
बोसीदा हो चुके हैं किताबों के कारवाँ ॥

बीनाइयों की लाशें हुईं ख़ाक के सुपुर्द,
फिरते हैं अन्धी राह पे नस्लों के कारवाँ ॥

वो देखो उलटे लटके हैं सूली पे वक़्त की ,
कितनी हवास-बाख़्ता सदियोँ के कारवाँ ॥
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गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

न कोई क़िस्सा है अपना न दास्ताँ अपनी ।

न कोई क़िस्सा है अपना न दास्ताँ अपनी ।
के अब तो भूल चुकी है मुझे ज़ुबाँ अपनी॥

हुई थी मेरी कभी हुस्ने-लामकाँ को तलब,
जहाँ दिखायी थीं उसने निशानियाँ अपनी॥

निज़ामे-आतिशे इरफ़ाँ के गुलबदन अफ़्लाक,
सजा रहे हैं जबीनों पे कहकशाँ अपनी ॥

मेरा ही सर था जो काटा गया दरख्त के साथ,
जहाँ को रास नहीं आयीं खूबियाँ अपनी।

हवा में उड़ती फिरी ख़ाक मेरी चार तरफ़ ,
ज़माना ले गया ख़ुशबू कहाँ कहाँ अपनी॥
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मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

मैं यूसुफ़ के लिए जीता रहा याक़ूब की सूरत ।

मैं यूसुफ़ के लिए जीता रहा याक़ूब की सूरत ।
के हर लह्ज़ा मेरी आँखों में थी मह्बूब की सूरत ॥

हज़ारों बार सर कटता रहा पर दिल नहीं टूटा,
ज़मीं पर हर जगह उगता रहा मैं दूब की सूरत ॥

मिला इनआम दुनिया से यही बस हक़-पसन्दों को,
निज़ामे-अह्ले-दुनिया में रहे मातूब की सूरत्॥

जिन्हें कुछ मस्लेहत आती थी वो कहलाए दानिशवर,
जो दानिश्मन्द थे फिरते रहे मजज़ूब की सूरत ॥

निगाहे दुशमनाँ में सूरते-क़तिल नज़र आये,
मगर अहबाब की महफ़िल में थे यासूब की सूरत्॥

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बुधवार, 23 सितंबर 2009

परिन्दे पहले के जैसी उड़ान भरते नहीं ।

परिन्दे पहले के जैसी उड़ान भरते नहीं ।
के उनके उड़ने से अब आसमान भरते नहीं ॥

वो ख़्वाब क्या थे जिन्हें कोई नाम दे न सका,
वो ज़्ख़्म कैसे थे जिनके निशान भरते नहीं ॥

इबारतों का मज़ा सादगी में होता है,
दक़ीक़ लफ़्ज़ों को अहले-ज़बान भरते नहीं ॥

शऊर करती है बेदार हक़ शनास नज़र,
वसीअ क़ल्ब में वह्मो-गुमान भरते नहीं ॥

क़याम करते हैं सब होटलों की दुनिय में,
अज़ीज़ो-अक़रुबा से अब मकान भरते नहीं ॥

कोई भी शोबा तो ऐसा नज़र नहीं आता,
के जिस में लोग कहें बेइमान भरते नहीं ॥

हुआ है क्या तुम्हें ! क्यों इस क़दर तअम्मुल है,
के जाम मेरा, मेरे मेह्र्बान भरते नहीं ॥

वो अह्ले-इल्म हमारे लिए हैं लायानी,
समन्दरों क जो कूज़े में ग्यान भरते नहीं ॥
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मंगलवार, 22 सितंबर 2009

मेरे भी जिस्म पर कल एक सर था ।

मेरे भी जिस्म पर कल एक सर था ।
मैँ उस से इस क़दर क्यों बेख़बर था ॥

मेरी सांसों में थी सहरा-नवरदी,
मेरी आँखों में दरया का सफ़र था ॥

उजालों का वो कैसा कारवाँ था,
क़याम उस का बहोत ही मुख़्तसर था॥

यहाँ आँसू की क़ीमत कुछ नहीं थी,
वहाँ आँसू का हर क़तरा गुहर था ॥

गुलों ने क्यों मेरा सदक़ा उतारा,
चमन में क्यों मैं इतना मोतबर था ॥

वहाँ थे रेगज़ारों के समन्दर,
मैं उन के दरमियाँ मिस्ले शजर था ॥

जहाँ अब राख का इक ढेर सा है,
वहाँ पहले मेरा भी एक घर था ॥
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शनिवार, 29 अगस्त 2009

हमें है जाना जहाँ तक ये रास्ते जायें

हमें है जाना जहाँ तक ये रास्ते जायें।

इरादे बीच में कैसे जवाब दे जायें।।

घ्ररौन्दे हम तो बनाते रहेंगे साहिल पर ,

बला से मौजें इन्हें अपने साथ ले जायें ॥

उन्हें है आज भी माज़ी की सल्तनत का गुरूर,

किसी तरह तो देमाग़ों से ये नशे जायें ॥

ज़माल उसका वहाँ और भी नुमायाँ है,

बुराई क्या है अगर लोग बुतकदे जायें॥

न ख़ैरियत, न सलामो-दुआ, न ख़न्दालबी,

मिलें जो राह में बिल्कुल कटे-कटे जायें॥

कमाले-शेरो-सुख़न लज़्ज़ते-जमाल में है,

न हो जो हुस्न तो जीने के सब मज़े जायें॥

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बुधवार, 26 अगस्त 2009

ज़मीं के सीने का हर ज़ख्मे-तर उभारना है

ज़मीं के सीने का हर ज़ख्मे-तर उभारना है ।
शजर की तर्ह जहां भी हैं सर उभारना है॥

जो पत्थरों का जिगर चीर कर निकलता है,
उस आबशार का दिल में हुनर उभारना है ॥

सुलूक शम्सो-क़मर का हरेक से यकसां है ,
मआशरे को इसी राह पर उभारना है ॥

समन्दरों में हैं पोशीदा कितने ही गौहर,
लगा के ग़ोता वो सारे गुहर उभारना है॥

कलीमी बख़्श के तोड़े ग़ुरूरे-फ़िरऔनी,
इसी ज़मीं पे इक ऐसा शजर उभारना है ॥

सियाह दौलतें जितनी हैं ग़ैर मुल्कों में,
किसी तरह भी वो सब मालो-ज़र उभारना है ॥

बचा के रखना है इस राख की हरारत को,
के इस के बत्न से ताज़ा शरर उभारना है॥
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ज़माने के लिए मैं ज़ीनते-निगाह भी था ।

ज़माने के लिए मैं ज़ीनते-निगाह भी था ।
ये बात और है सर-ता-क़दम तबाह भी था॥

ख़मोशियों से मैं बढ़ता रहा सुए-मंज़िल ,
सियासतों का जहां जब के सद्दे-राह भी था॥

बयान कर न सका मैं सितम अज़ीज़ों के,
के ऐसा करने में अन्देशए-गुनाह भी था ॥

जो ख़ुद को करता था मेरे फ़िदाइयों में शुमार,
मेरे ख़िलाफ़ वही शख़्स कल गवाह भी था ॥

ख़ुलूस उस का बज़ाहिर बहोत ही दिलकश था,
बरत के देखा तो क़ल्बो-जिगर सियाह भि था॥

गुज़र रही थी फ़क़ीरी में ज़िन्दगी उस की,
ख़बर किसे थी सुख़न का वो बादशाह भी था ॥

उसी की सिम्त किया क़िब्ला रास्त खुसरो ने,
जो कज-कुलाह भी था और दीं-पनाह भी था॥*
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* अमीर खुसरो के गुरु हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने एक दिन कुछ हिन्दुओं को यमुना में नहाते देख कर सहज भाव से कहा - हर क़ौमे-रास्त राहे, दीने व क़िब्लागाहे। अर्थात प्रत्येक क़ौम का अपना सन्मार्ग होता है, धर्म होता है और पूज्य स्थल भी। हज़रत अमीर ख़ुसरो पास में ही खड़े थे, उन्हों ने अप्ने गुरु की ओर सकेत कर के तत्काल इस शेर को दूसरा चरण कह कर पूरा कर दिया - मन क़िब्ला रास्त करदम बर सिम्ते-कज-कुलाहे अर्थात मै अपना पूज्य स्थल तिर्छी टोपी वाले की ओर सीधा करता हूं।मुसलमानों में क़िब्ला [काबे] की ओर मुंह कर के नमाज़ पढ़ी जाती है और हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया तिरछी टोपी [कजकुलाह] लगाते थे।इस शेर में यही सकेत है।

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

अना की जितनी भी दीवारें थीं वो तोड़ गया

अना की जितनी भी दीवारें थीं वो तोड़ गया ।
मुहब्बतों से हवाओं के रुख़ को मोड़ गया ॥

वो हमसफ़र था मेरा उसपे था भरोसा मुझे,
सफ़र के बीच वो क्यों साथ मेरा छोड़ गया ॥

करिश्मा ये है के हुस्ने सुलूक से अपने,
कलाई ज़ुल्मो तशद्दुद की वो मरोड़ गया ॥

उसी के ज़िक्र से मिलता है हौसला मुझ को,
अजीब तर्ह का रिश्ता वो मुझ से जोड़ गया ॥

हक़ीक़तों की कुदालें थीं उस के हाथों में,
तवह्हुमात के भांडे सभी वो फोड़ गया ॥

मैं ग़फ़्लतों के समन्दर में डूब ही जाता,
भला हो उसका के आकर मुझे झिंजोड़ गया ॥

घड़ा ये मिटटी का नौए बशर की दौलत है,
ये टूट जाये तो समझो कई करोड़ गया ॥
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