ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / न कोई क़िस्सा है अपना लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

न कोई क़िस्सा है अपना न दास्ताँ अपनी ।

न कोई क़िस्सा है अपना न दास्ताँ अपनी ।
के अब तो भूल चुकी है मुझे ज़ुबाँ अपनी॥

हुई थी मेरी कभी हुस्ने-लामकाँ को तलब,
जहाँ दिखायी थीं उसने निशानियाँ अपनी॥

निज़ामे-आतिशे इरफ़ाँ के गुलबदन अफ़्लाक,
सजा रहे हैं जबीनों पे कहकशाँ अपनी ॥

मेरा ही सर था जो काटा गया दरख्त के साथ,
जहाँ को रास नहीं आयीं खूबियाँ अपनी।

हवा में उड़ती फिरी ख़ाक मेरी चार तरफ़ ,
ज़माना ले गया ख़ुशबू कहाँ कहाँ अपनी॥
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