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बुधवार, 26 अगस्त 2009

ज़मीं के सीने का हर ज़ख्मे-तर उभारना है

ज़मीं के सीने का हर ज़ख्मे-तर उभारना है ।
शजर की तर्ह जहां भी हैं सर उभारना है॥

जो पत्थरों का जिगर चीर कर निकलता है,
उस आबशार का दिल में हुनर उभारना है ॥

सुलूक शम्सो-क़मर का हरेक से यकसां है ,
मआशरे को इसी राह पर उभारना है ॥

समन्दरों में हैं पोशीदा कितने ही गौहर,
लगा के ग़ोता वो सारे गुहर उभारना है॥

कलीमी बख़्श के तोड़े ग़ुरूरे-फ़िरऔनी,
इसी ज़मीं पे इक ऐसा शजर उभारना है ॥

सियाह दौलतें जितनी हैं ग़ैर मुल्कों में,
किसी तरह भी वो सब मालो-ज़र उभारना है ॥

बचा के रखना है इस राख की हरारत को,
के इस के बत्न से ताज़ा शरर उभारना है॥
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