मंगलवार, 17 मार्च 2009

सड़कों के नल से आता है तश्ना-लबों का शोर.

सड़कों के नल से आता है तश्ना-लबों का शोर.
पानी के बर्तनों में है प्यासे घरों का शोर.
बारिश की एक बूँद भी जिनमें न थी कहीं,
कल आसमान पर था उन्हीं बादलों का शोर.
कोई तो है जो बैठा है सैयाद की तरह,
ख़्वाबों के हर दरख्त पे है तायरों का शोर.
मंजिल-शनास होते नहीं जो भी रास्ते,
जाँ-सोज़ो-दिल-शिकस्ता है उन रास्तों का शोर.
सन्नाटा बस्तियों में है, खाली हैं सब मकाँ,
छाया हुआ फ़िज़ाओं में है मरघटों का शोर.
दरिया को अपनी राह पे चलना पसंद है,
साहिल मचाते रहते हैं पाबंदियों का शोर.
फूलों का एहतेजाज चमन में सुनेगा कौन,
महसूस बागबाँ ने किया कब गुलों का शोर.
********************

गुरुवार, 12 मार्च 2009

मैं हर शजर से सरे-राह पूछता कैसे.

मैं हर शजर से सरे-राह पूछता कैसे.
के उसका होना यहाँ बे-समर हुआ कैसे.
कोई लगाव यक़ीनन था इससे भी, वर्ना,
पुकारता हमें इस तर्ह बुतकदा कैसे.
मजाज़ और हकीकत अलग-अलग तो नहीं,
छुपे खजाने का दुनिया है आइना कैसे.
ज़रा सा फ़ासला लाज़िम है देखने के लिए,
करीबतर था वो इतना तो देखता कैसे.
धड़क रहा था मेरे दिल की वो सदा बनकर,
मैं उसका खाका बनाता भी तो भला कैसे.
अभी-अभी तो मेरे सामने था हुस्न उसका,
अभी-अभी पसे-दीवार छुप गया कैसे.
वो आजतक तो मेरी बात सुनती आई थी,
तगैयुर उसमें ये आया मेरे खुदा कैसे.
********************

बुधवार, 11 मार्च 2009

ये वो सफ़र है के जाना है कब पता ही नहीं.

ये वो सफ़र है के जाना है कब पता ही नहीं.
मगर न जाये कोई, ये कभी सुना ही नहीं.
न रास्ते से हैं वाक़िफ़, न मंज़िलों की खबर,
बढायें खुद से क़दम, इतना हौसला ही नहीं.
हवा के सामने लौ जिसकी थरथराई न हो,
चरागे-ज़ीस्त कभी इस तरह जला ही नहीं,
तमाम उम्र ही मेहनत-कशी में गुज़री है,
सभी ये समझे मेरा कोई मुद्दुआ ही नहीं.
हर एक ज़ाविए से उसको देखता आया,
सरापा देखूं उसे ऐसा ज़ाविया ही नहीं.
अगर वो पूछ ले, क्या अपने साथ लाये हो,
मैं क्या कहूँगा मुझे इसकी इत्तेला ही नहीं.
*******************

मंगलवार, 10 मार्च 2009

सुब्ह के इन्तेज़ार में, रात तवील हो गयी.

सुब्ह के इन्तेज़ार में, रात तवील हो गयी.
आँखें पिघल-पिघल गयीं, नींद ज़लील हो गयी.
सरदियों की ये मौसमी, खुन्कियां सर-बरहना हैं,
धूप भी इत्तेफ़ाक़ से, कितनी बखील हो गयी.
राज़ था राज़ ही रहा, उसका वुजूद आज तक,
उसको न मैं समझ सका, उम्र क़लील हो गयी.
रौज़ने-फ़िक्र में कई, और दरीचे वा हुए,
कोई तो रास्ता मिला, कुछ तो सबील हो गयी.
मंजिलों के पड़ाव हैं, अहले-जुनूँ के जेरे-पा,
तायरे-नफ़्स के लिए, राहे-नबील हो गयी.
सिलसिलए-हयातो-मौत, सिर्फ सफ़र है रूह का,
वस्ल की आरजू हुई, ज़ीस्त क़तील हो गयी.
*****************

सोमवार, 9 मार्च 2009

रिश्ते बेटे बेटियों से अब महज़ कागज़ पे हैं.

रिश्ते बेटे बेटियों से अब महज़ कागज़ पे हैं.
उन्सियत के बेल बूटे सब महज़ कागज़ पे हैं
अपने-अपने तौर के सबके हुए मसरूफियात,
लोग आपस में शगुफ्ता-लब महज़ कागज़ पे हैं.
जीस्त का मकसद समझना चाहता है कौन अब,
दर हकीकत सब मुहिब्बे-रब महज़ कागज़ पे हैं.
ज़हन बाज़ारों में रोज़ो-शब नहीं करता तलाश,
आज सुबहो-शाम, रोज़ो-शब महज़ कागज़ पे हैं.
घर की दीवारों में या ज़ेरे-ज़मीं कुछ भी नहीं,
सीमो-ज़र के सब खजाने अब महज़ कागज़ पे हैं.
अब तो क़दरें रह गयी हैं बस नसीहत के लिए,
ज़िन्दगी बेढब है सारे ढब महज़ कागज़ पे हैं।

********************

सोमवार, 2 मार्च 2009

ज़र्द पत्ते की तरह चेहरे पे मायूसी लिए.

ज़र्द पत्ते की तरह चेहरे पे मायूसी लिए.
जीस्त की राहों से गुज़रे लोग नासमझी लिए.
क्या हुआ फूलों को आखिर क्यों हैं सबख़ामोश लब,
रतजगे रुख़सार पर आँखों में बेख्वाबी लिए.
कैसे समझेगा समंदर की कोई गहराइयां,
जब भी नदियों ने बहाए जितने आंसू पी लिए,
बेखबर आतश-फ़िशां हरगिज़ नहीं हालात से,
आग का दरिया रवां है प्यास कुछ गहरी लिए.
क्यों किसी के साथ कुछ तफरीक ये करतीं नहीं,
क्यों ये सूरज की शुआएं फ़िक्र हैं सबकी लिए.
ख्वाब का फुक़ादान, फ़िक्रों से बसीरत लापता,
ये भी कोई ज़िन्दगी है, जैसे चाहा जी लिए।
*****************

रविवार, 1 मार्च 2009

जिंदा रहना है तो फिर मौत से डरना कैसा.

जिंदा रहना है तो फिर मौत से डरना कैसा.
मक़्सदे-ज़ीस्त का अन्दर से बिखरना कैसा.
ज़ह्ने-इंसान की परवाज़ हदों में नहीं क़ैद,
इस हकीकत को समझकर भी मुकरना कैसा.
पाँव की ठोकरों में जब हो गुलिस्ताने-हयात,
नाउमीदी के बियाबाँ से गुज़रना कैसा.
ले के माजी का कोई ज़ख्म, उलझते क्यों हो,
हट के राहों से नशेबों में ठहरना कैसा.
सीखो दरयाओं से आहिस्ता खरामी के मज़े,
मौजों की तर्ह ये पल-पल पे बिफरना कैसा.
कोई भी मसअला इनसे तो कभी हल न हुआ,
फिर इन्हीं आहों से तन्हाई को भरना कैसा।

******************

शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

आँखों की रोशनी ही जो तलवार खींच ले।

आँखों की रोशनी ही जो तलवार खींच ले.
मल्लाह तू भी कश्ती से पतवार खींच ले.
तस्लीम है मुझे कि मैं बागी हूँ, ज़िन्दगी!
क्या सोचती है, मुझको सरे-दार खींच ले.
ज़ख्मी है संगबारियों से वो बुरी तरह,
बढ़कर कोई उसे पसे-दीवार खींच ले.
आजिज़ हूँ, सल्ब कर ले तू मुझसे मेरा शऊर,
अपनी इनायतों की ये रफ़्तार खींच ले.
तंग आ चूका वो अपनों के बेजा सुलूक से,
अच्छा है उसको महफ़िले-अग़यार खींच ले.
हो जाय इल्म जब के नहीं वो वफ़ा-शनास
कैसे न अपना हाथ तलबगार खींच ले.
इस ज़िन्दगी का हाल भी है कुछ उसी तरह,
हम पढ़ रहे हों और तू अखबार खींच ले.
ढीले पड़े हैं साज़, शिकस्ता हैं उंगलियाँ,
बेहतर है अब सितार से हर तार खींच ले।
********************

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

ऐ मौत के फ़रिश्ते ! झिजकता है किस लिए.

ऐ मौत के फ़रिश्ते ! झिजकता है किस लिए.
लेजा हयात, गोशे में सिमटा है किस लिए.
इस ज़िन्दगी के हम कभी मालिक नहीं बने,
फिर ज़िन्दगी की हमको तमन्ना है किस लिए.
ये रिश्ते-नाते जितने भी हैं, सब हैं आरज़ी,
इंसान इनसे प्यार से लिपटा है किस लिए.
वैसे ही जल रहा हूँ, जलाती है और क्यों,
दुनिया! ये तेरी हरकते-बेजा है किस लिए.
बाज़ार में सजी हुई हर जिन्स की तरह,
हम भी थे, हमको तू ने खरीदा है किस लिए.
तेरे बताये रास्ते पर चल रहा था मैं,
मंज़िल जब आ गयी, मुझे रोका है किस लिए.
मौतो-हयात दोनों की है मांग हर तरफ़,
ख्वाहिश है जिसकी जो, नहीं मिलता है, किस लिए।


**************

हंसते हुए दुनिया से गुज़र जाने की ख्वाहिश.

हंसते हुए दुनिया से गुज़र जाने की ख्वाहिश.
हालात हैं ऐसे कि है मर जाने की ख्वाहिश.
उस कतरए-नैसाँ को थी आगोशे-सदफ़ में,
मानिन्दे-गुहर हुस्न से भर जाने की ख्वाहिश.
अब दे भी चुके सुब्ह को सब अपने उजाले,
बेहतर है करो मिस्ले-कमर जाने की ख्वाहिश.
गुलरंग न हो पाता ज़मीं का कभी दामन,
फूलों की न होती जो बिखर जाने की ख्वाहिश.
मयखाने के दस्तूर से वाकिफ तो नहीं हम,
दिल में है मगर बादाओ-पैमाने की ख्वाहिश.
ऐ काली घटाओ न हमें खौफ दिलाओ,
हम रखते हैं ज़ुल्मात से टकराने की ख्वाहिश.
झरने न उतरते जो पहाडों से ज़मीं पर,
दिल में ही दबी रहती निखर जाने की ख्वाहिश।
**************