सोमवार, 10 नवंबर 2008

रिश्ता नहीं किसी का किसी फ़र्द से मगर.

रिश्ता नहीं किसी का किसी फ़र्द से मगर.
हम-मज़हबों के साथ हैं हमदर्द से मगर.
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जब आई घर पे बात तो लब बंद हो गए,
पहले बहोत थे गर्म, हैं अब सर्द से मगर.
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दहशत-गरी की गर्द न चेहरे पे आ पड़े,
परहेज़ भी, लगाव भी है गर्द से मगर.
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आजाद थे तो करते थे मर्दानगी की बात,
पकड़े गए तो हो गए नामर्द से मगर.
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आंधी चमन में आई तो सब बेखबर रहे,
कुछ सुर्ख फूल हो गए क्यों ज़र्द से मगर.
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ज़हनों को ऐसा क्या हुआ आख़िर अवाम के.

ज़हनों को ऐसा क्या हुआ आख़िर अवाम के.
हैराँ हूँ फ़र्क़ मिट गये क्यों सुब्हो-शाम के.
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फैलाए बाँहें देर से मंज़िल है मुन्तज़िर,
ऐ रह-रवाने-शौक़! बढो दिल को थाम के.
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नफ़रत में और उल्फ़ते-दुनिया में इश्क़ है,
रिश्ते हैं इनके जैसे शराब और जाम के.
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वो ख़ुद-ग़रज़ है और वो बे-लौस है तो क्या,
बस फ़ासले हैं दोनों में दो-चार गाम के.
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मैंने समन्दरों को भी पाया न मुत्मइन,
शिकवे उन्हें भी लोगों के हैं इज़्दहाम के.
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दो-चार लम्हों के लिए आया था वो फ़क़त,
नज़रें तवाफ़ करती रहीं उसके बाम के.
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रविवार, 9 नवंबर 2008

पानी भरा हुआ कोई बादल है ज़िन्दगी.

पानी भरा हुआ कोई बादल है ज़िन्दगी.
बरसे कहाँ कि ज़ख्मों से बोझल है ज़िन्दगी.
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इतने पड़े हैं काम समेटे तो किस तरह.
दो-चार रोज़ की ही तो हलचल है ज़िन्दगी,
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मुमकिन नहीं लिबास बदल ले किसी तरह
अश्कों में सर से पाँव तलक शल है ज़िन्दगी.
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राहों में कैसे-कैसे नशेबो-फ़राज़ हैं,
पल-पल यहाँ पे मौत है, पल-पल है ज़िन्दगी.
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जब प्यार मिल रहा था तो बेहद सुकून था,
अब नफरतें मिली हैं तो पागल है ज़िन्दगी,
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समझेंगे क्या वो फ़ाका-कशों की ज़रूरतें,
आंखों में जिनकी नर्म सा मख़मल है ज़िन्दगी.
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साँसों के आने-जाने का है सिल्सिला मगर,
मैं देखता हूँ कब से मुअत्तल है ज़िन्दगी.
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तारीख की किताबों में तब्दीलियाँ हुईं.

तारीख की किताबों में तब्दीलियाँ हुईं.
नफ़रत की दाग़-बेल पड़ी, तल्खियां हुईं.
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आया जब इक़तिदार में, बोये वो उसने बीज,
बदबूएँ जिनकी ज़ह्न पे बारे-गरां हुईं.
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खूं-रेज़ियों से कुछ ये ज़मीं लाल हो गई,
मजरूह कुछ शऊर की भी वादियाँ हुईं.
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तहजीब दाग-दाग थी, खतरे में था वुजूद,
इस तर्ह इन्तक़ाम की फ़िकरें जवाँ हुईं.
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दहशत-गरी के फैल गये पाँव हर तरफ़,
जानें गयीं, जहान में रुसवाईयाँ हुईं.
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तक़रीरें गर्म-गर्म हुईं शह्र-शह्र में,
कुछ दुख्तराने-कौम भी आतश-फ़िशां हुईं.
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‘जाफ़र’ वतन के चाहने वाले लरज़ गये,
जो कोशिशें थीं प्यार की सब रायगाँ हुईं.
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पेश कितनी भी दलीलें करो, मानेगा नहीं.

पेश कितनी भी दलीलें करो, मानेगा नहीं.
दूसरे भी हैं सही, ये कभी समझेगा नहीं.
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ऐब देखेगा वो तुम में, ये है फ़ितरत उसकी,
ख़ुद कभी अपने गरीबान में झांकेगा नहीं.
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लुत्फ़ ये है कि समझता है वो आलिम ख़ुद को,
यानी, कम-इल्मी के इक़रार से गुज़रेगा नहीं.
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नाग का ज़ह्र भी है उसमें, है खसलत भी वही,
जिसके पड़ जायेगा पीछे, उसे बख्शेगा नहीं.
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वो समझता है कि सब कुछ है उसी के दम से,
अपनी खुश-फ़हमियों के खोल से निकलेगा नहीं.
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जानलेवा हुआ करता है ये मज़हब का नशा,
जिसको चढ़ जायेगा, आसानी से उतरेगा नहीं.
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चराग़ राह में लेकर चला है नाबीना.

चराग़ राह में लेकर चला है नाबीना.
शऊरे-अहले-नज़र देखता है नाबीना.
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दिखायी देते नहीं रास्ते मुहब्बत के,
हमारा मुल्क भी अब हो गया है नाबीना.
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मिलाते हैं जो सियासत के साथ मज़हब को,
समझते हैं वो यक़ीनन, खुदा है नाबीना.
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खड़ा है फ़ाक़ा-कशों की मुंडेर पर लेकिन,
तरक़्क़ियों को दुआ दे रहा है नाबीना.
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जला रहा है वो इस घर में नफ़रतों के दिए,
कहूँ मैं क्या कि वो अब हो चुका है नाबीना.
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जब आया था वो तो आँखें भी थीं शऊर भी था,
मगर वो बज़्म से होकर उठा है नाबीना.
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शनिवार, 8 नवंबर 2008

शैलेश ज़ैदी के दोहे

देख लिए हमने सभी, शीत-ग्रीष्म के रूप।
जीवन के अवसान में, क्या छाया क्या धूप।
सोने का मृग ले गया, रामचंद्र को दूर।
सुनकर रावण-याचना, सीता थीं मजबूर।
उसका निर्णय था अडिग, जैसे अंगद पाँव।
इस निर्णय को देखकर, चकित था सारा गाँव।
मदिरा पीकर मस्त था, खो बैठा था होश।
आज समय की चाल में, नहीं था कोई जोश।
बैठी है एकांत में, ममता खाकर चोट।
जाने कैसी कब पड़े, राजनीति की गोट।
रंग-मंच संसद-भवन, सांसद नाटक-पात्र।
लक्ष्मी नाची झूमकर, नग्न हुए कुछ गात्र।
समझौता परमाणु का, अमेरिका के साथ।
बुश मनमोहन खुश हुए , मिले हाथ से हाथ।
मनमोहन की बांसुरी, बजी सोनिया संग।
दिल्ली के आकाश पर, छाया ब्रज का रंग।
'साध्वी जी' का सिंह से,कभी न था अलगाव।
संकट आते देखकर, खेल गये वे दाव।
खोज-बीन ऐसी हुई, तर्क हो गये ढेर।
अब आए हैं सामने, जब हो गई अबेर।
'ऊमा जी' के पैतरे, तीखे थे निःशंक।
जागी उस पल भाजपा, चुभे कई जब डंक।
दोशारोपी साध्वी, हुई पुरोहित साथ।
प्रभु बैठे हैं मौन क्यों, धरे हाथ पर हाथ।
मुसलमान निकृष्ट हैं, हिन्दू हैं उत्कृष्ट।
नित विज्ञापित हो रही, यह धारणा विशिष्ट।
सावरकर के गर्भ से, जन्मा था 'हिंदुत्व'।
बहुसंख्यक मस्तिष्क ने, इसको दिया प्रभुत्व ।
चकित रह गया देख कर, धर्मों का यह रूप।
कलजुग के सब देवता, जैसे अँधा कूप।
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जब भी खिलते हैं तो इस तरह महकते हैं गुलाब.

जब भी खिलते हैं तो इस तरह महकते हैं गुलाब.
मेरी बेख्वाब सी आंखों में उतर आते हैं ख्वाब.
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झाँक कर देखता हूँ ख़ुद को तो लगता है मुझे,
मैं कुछ ऐसा हूँ कि जैसे हो समंदर बे-आब.
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मौजे-दरया की तरह उमड़े हुए हैं बाज़ार,
डूब जाने का है इमकान, हैं ऐसे गिर्दाब.
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ज़िन्दगी ! तुझको मैं पढ़ता हूँ, निराले ढब से,
खोलकर पढ़ता हो जैसे कोई बच्चों की किताब.
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शख्सियत लोगों की है जाहिरो-बातिन में अलग,
ज़िद है पानी ही कहा जाय उसे, गो हो सराब.
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न है छोटों से मुहब्बत, न बड़ों की ताज़ीम,
गुम हुए जाते हैं तहज़ीब के सारे आदाब.
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शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

अब समाचार भी लगते हैं मनोरंजन से.

अब समाचार भी लगते हैं मनोरंजन से.
हर सुबह लोग इन्हें पढ़ते हैं हलकेपन से.
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वो नहीं घर में, कहूँ किससे बुला दे उनको,
हूक सी उठती है तंग आ गई इस सावन से.
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लकडियाँ भीग गई हैं मेरी आंखों की तरह,
आग की गंध भी आती नहीं अब ईंधन से.
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टपके आंसू तो कुछ ऐसा मुझे आभास हुआ,
बूँद पानी की गिरी गर्म तवे पर छन से.
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मन की धरती के गहन गर्भ से निकले आंसू,
गंगा जल की ही तरह मुझको लगें पावन से.
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चूड़ियाँ तोड़ दीं वैधव्य ने कर्कश होकर,
गूंजते गीत विलापों के सुने कंगन से.
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ठण्ड ऐसी है कि निकलूँ तो ठिठुरने का है डर,
धूप को भी है बहुत बैर मेरे आँगन से.
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वो तलाश करता रहा मुझे, नए मौसमों के गुबार में,

वो तलाश करता रहा मुझे, नए मौसमों के गुबार में.
उसे क्या पता था दबा हूँ मैं, कहीं हादसों के गुबार में.
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वही चाँदनी जो अभी-अभी, मेरे सह्न में थी थिरक रही,
उसे आके ले उड़ी क्यों हवा, घने बादलों के गुबार में.
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उन्हें लोग पूछते तक नहीं, जिन्हें फ़ख्र अपनी खुदी पे था,
वो पड़े हुए हैं अलग-थलग, वहाँ ख़ुद-सरों के गुबार में.
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वो गरीब जिनके घरों में अब, हैं गुज़रते फ़ाकों में रोजो-शब,
वो हैं कैदखानों में बेसबब, कहीं मुजरिमों के गुबार में.
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जो लिखे थे उसने मुझे कभी, वो खुतूत मेरी थे मिलकियत,
मैं तलाशता रहा देर तक, उसे उन खतों के गुबार में.
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वो नुकूश जितने थे सल्तनत के, वो ख़ाक-ख़ाक से हो गए,
वो हयात जिसपे गुरूर था, वो है खंडहरों के गुबार में.
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