शुक्रवार, 25 जून 2010

कैसे मुम्किन है मसाएल से न टकराए हयात्

कैसे मुम्किन है मसाएल से न टकराए हयात्।
कौन चाहेगा ख़मोशी से गुज़र जाये हयात् ॥

कोई तूफ़ान, कोई ज़्ल्ज़ला, कोई सैलाब,
ज़िन्दगी में न अगर हो तो किसे भाए हयात्॥

आ के मख़मूर हवाएं कभी नग़मा छेड़ें,
ख़ुश्बुओं का कोई आँचल कभी लहराए हयात्॥

रोज़ यूं टूटते रहने से किसी दिन यारब,
ऐसे हालात न हो जाएं के शर्माए हयात्॥

उसके ही ख़्व्बों से आती है बहारों की हवा,
उसके ही ज़िक्र से खिल उठते हैं गुलहाए हयात्॥
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1 टिप्पणी:

इस्मत ज़ैदी ने कहा…

कैसे मुम्किन है मसाएल से न टकराए हयात्
कौन चाहेगा ख़मोशी से गुज़र जाये हयात् ॥
हयात का फ़ल्सफ़ा ही यही है,जिसे आप ने इस ख़ूब्सूरती से क़लमबंद किया है


रोज़ यूं टूटते रहने से किसी दिन यारब,
ऐसे हालात न हो जाएं के शर्माए हयात्॥

बहुत ख़ूब!
यहां शर्माए का इस्तेमाल एक अलग लुत्फ़ दे रहा है