शुक्रवार, 20 मार्च 2009

कहीं भी शान्ति का स्थल नहीं है.

कहीं भी शान्ति का स्थल नहीं है.
कि मन शीतांशु सा शीतल नहीं है.
लिये हैं सिन्धु सा ठहराव आँखें,
विचारों में कोई हलचल नहीं है.
भटकता हूँ मैं क्यों निस्तब्धता में,
मेरी उलझन का कोई हल नहीं है.
मैं देखूं क्या यहाँ संभावनाएं,
कि पौधों में कोई कोंपल नहीं है.
मरुस्थल करवटें लेते हैं मन में,
कि उद्यानों में भी अब कल नहीं है.
नहीं कोई भगीरथ मेरे भीतर,
मेरी आँखों में गंगाजल नहीं है.
अनाथों सी हैं अब संवेदनाएं,
सरों पर प्यार का आँचल नहीं है.
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1 टिप्पणी:

Dr. Amar Jyoti ने कहा…

बहुत,बहुत,बहुत ही सुन्दर। हर शेर अपने आप में हासिल-ए-ग़ज़ल। पर जो बात विस्मित करती है वो है हताशा/निराशा का अतिरेक।