बुधवार, 12 मार्च 2008

पसंदीदा शायरी : ग़ज़ल

आज के माहौल में खंजर बुरे लगते नहीं ।
हाथ लोगों के लहू से तर बुरे लगते नहीं ॥
दर्द में डूबे हुए मंज़र बुरे लगते नहीं ।
अब किसी को भी बुरे रहबर बुरे लगते नहीं ॥
आस्तीं के सांप की औकात क्या है आजकल।
आस्तीनों में छिपे अजगर बुरे लगते नहीं॥
बात का मतलब सही हो तो अधूरी बात के ।
कसमसाते टूटते अक्षर बुरे लगते नहीं॥
हादसों की धूप ना बर्दाश्त कर पाएं तो क्या?
देखने में कांच के भी घर बुरे लगते नहीं॥
फिर हमें अपनी निगाहों पर भरोसा क्यों नहीं।
इन परिन्दों को भी अपने पर बुरे लगते नहीं॥

1 टिप्पणी:

अमिताभ मीत ने कहा…

भाई कमाल. बहुत ही उम्दा रचना.
फिर हमें अपनी निगाहों पर भरोसा क्यों नहीं।
इन परिन्दों को भी अपने पर बुरे लगते नहीं॥
वाह !