सोमवार, 17 मार्च 2008

कबतक ? : - शैलेश ज़ैदी

गुलाबों की हरी टहनियों को
चाटते रहेंगे कबतक
मिटटी से जन्मे , बदनीयत- बदहवास कीड़े ?
कबतक भूखे पशुओं का भरती रहेगी पेट
धरती पर लहलहाती हरी दूब ?
अच्छा होता कि आदमी स्वप्न देखने के बजाय,
संजो पाता अपने भीतर
निर्णय लेने की शक्ति।
परम्पराओं-मर्यादाओं के नीचे दबे-दबे,
पल-पल गिनते रहना अपनी एक-एक साँस
विधाता की बनायी नियति नहीं है
कोरी कायरता है ,
जिसे झेलते हैं सभी पराजित माँ-बाप
और उंडेल लेती हैं इस कायरता को अपने आँचल में,
इस देश की ढेर सारी बेटियाँ ।
जिनकी नाक में पति-सेवा की नथ डालकर
छोड़ दिया जाता है
मर्यादाओं-परम्पराओं की सियाह धरती पर
जीने के लिए एक कंटीली ज़िंदगी।
बेटियों के माँ -बाप शायद नहीं जानते,
कि समस्या का समाधान कर लेना,
स्वप्नों को साकार करना नहीं है।
स्वप्न केवल माँ-बाप ही नहीं देखते
बेटियाँ भी देखती हैं ,
रंगीन तितलियों जैसा।
जिनमें समय-समय पर भरते रहते हैं मां-बाप
गुलाबों की भीनी-भीनी जादुई - खुशबू ।
बेटी को एक अदद पति दे देना,
और दायित्व से मुक्त हो जाना,
अंधी परम्पराओं की लीक पीटना है।
यह परम्पराएं ,
नहीं जानतीं बेटियों के होंठों की मुस्कराहट,
और आंखों की चमक का अर्थ।
नहीं समझना चाहता कोई पराजित पिता
कि हर चमकती आँख
और सभी मुस्कुराते होंठ,
स्वप्नों की रंगीन खुशबुएँ नहीं बिखेरते
नहीं फैलती उन मुस्कुराहटों की गंध,
मकान के भीतर और बाहर एक जैसी।
बेटियाँ हंसती हैं, मुस्कुराती हैं,
ठहाके भी लगाती हैं.
और समझते हैं माँ-बाप,
कि वह बहुत खुश हैं,
कि बहुत सुखी है उनका दाम्पत्य-जीवन,
कि बहुत चाहते है उन्हें उनके पति.
किंतु, नहीं होता अधिकतर बेटियों का
बाहर- भीतर एक जैसा.
क्योंकि नहीं चाहतीं वो,
कि उनकी सिसकती छाया से लग जाय
उनके चांदनी भरे मायके में ग्रहण.
कि उनके आंसुओं के वज़न से,
झुक जाय उनके मां-बाप की कमर .
संजो कर रखती हैं वो अपने आंसू,
एकांत के उन क्षणों के लिए।
जहाँ नहीं होता कोई और,
केवल होते हैं अतीत के थके-हारे स्वप्न।
बेटियाँ सोंचती हैं,
मैं भी सोंचता हूँ ,
और शायद सोंचते हों आप भी मेरी तरह।
कब तक पीटते रहेंगे हम
मर्यादाओं-परम्पराओं की यह लीक ?
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