बुधवार, 5 मार्च 2008

ज्ञानेन्द्र अग्रवाल के दोहे

भक्त और भगवान् के, बीच स्वर्ण दीवार ।
इसीलिए मिलता नहीं, धर्म-कर्म में सार ॥
हार गए हम द्रौपदी, हमें न आयी लाज।
घर-घर में फिर क्यों न हो, दुर्योधन का राज॥
एक नहीं, दो भी नहीं, मन के हैं नौ द्वार।
इसके दसवें द्वार का महाशून्य संसार॥
केवल अपनी फिक्र है, नहीं देश का ध्यान।
वामपंथ खलिहान में, पूंजीपति का धान॥
गोलीबारी कर रहे , अब नाबालिग़ छात्र।
सिल्वर-जुबली पट-कथा, गोल्डन-जुबली पात्र॥
योगी भोगी हो गए, रोगी हुए निरोग।
ये साजिश है वक़्त की, या केवल संयोग॥
सुत- तृष्णा के सामने, कन्या विष का घूँट।
इंतजार में रह गया, बरगद घटकर ठूंट॥
तन समझौता चाहता, मन करता विद्रोह।
कर्म पाट में फँस गया, पल पल ऊहापोह ॥
लोहे का जंगल बनी, वसुन्धरा की देह।
जिनमें छत-आँगन नहीं, उभरे ऐसे गेह॥
मोदी के गुजरात में कट्टरता की जीत।
कांग्रेस को डस गया, उसका भ्रष्ट अतीत॥
इसकी उससे प्रीत है, उसका इससे बैर।
अगर यही चलता रहा, नहीं किसी की खैर॥
यही आज का सत्य है, यही तथ्य का सार।
अलग हुआ माँ-बाप से, बच्चों का घर-द्वार॥
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