गुरुवार, 13 मार्च 2008

राही मासूम रज़ा की याद में (नज़्म)

तुम्हारा नाम दर्सगाह के वरक-वरक पे है,
मगर तुम्हारे दौर की,
सभी इबारतें हैं आज अजनबी।
कि इन इबारतों के आज ,
राज़दां नहीं रहे ,
खुलूस की रिवायतों के कारवाँ नहीं रहे।
अदब का जौक वैसे तो है आज भी,
मगर वो पहले जैसा इनहिमाक अब यहाँ नहीं
नहा के ज़िंदगी की रोशनी में गुनगुना सकें
वो रोजोशब यहाँ नहीं,
तमाम रात महफिले -सुखन के जाम पी सकें,
वो तशनालब यहाँ नहीं.
यहाँ बजाय अंजुमन के , लोग बट गये हैं अब,
कई-कई गिरोह में
हजारों तरह की, दिलों में पल रही हैं रंजिशें,
मफाद के लिए न जाने कितनी ,
हो रही हैं रोज़ साजिशें.
नफाके-बाहमी का रक्स है हरेक गिरोह में .
यकीं करो, कि तुम थे खुशनसीब जो चले गये,
तुम्हारे फन को बम्बई में
रूहे-ज़िंदगी मिली.
तुम्हारे दम से मुल्क को
कलम की रौशनी मिली.
मकाल्मों को तुमने जो ज़बान दी,
वो प्यार में ढली मिली,
तुम्हारी फिक्र , तफ़रकों से दूर,
एक जूए-इल्तिफात थी,
तुम्हारे लफ्ज़-लफ्ज़ में, हयात थी.
तुम्हारा आधा गाँव, जानते थे तुम
कि ख़ुद तुम्हारी अपनी ज़िंदगी का एक बाब था.
फिजाए- खारदार में खिला हुआ गुलाब था.
हुरूफ़ के चमन की धडकनों में
खुशबुओं का इजतिराब था.
तुम्हारा जिस्म भी था भीष्म की तरह छिदा हुआ,
तुम्हारा अज्म था जुनूने-मक्सदे-हयात से भरा हुआ.
तुम्हीं थे पांडव,
तुम्हीं थे कौरवों के राह्बर,
नफस-नफस तुम्हारा था,
तुम्हारी अपनी जंग से घिरा हुआ.
निशाने-फतह था तुम्हारे हाथ में,
निशाने-फतह है तुम्हारे हाथ में,
तुम्हारा नाम दर्सगाह के वरक-वरक पे है,
मगर तुम्हारे दौर की, सभी इबारतें हैं आज अजनबी।
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