रविवार, 28 मार्च 2010

सामने रातिब की थी मक़दार कम्

सामने रातिब की थी मक़दार कम्।
जानवर थे भूक से बेज़ार कम्॥
सायेबानों में रहा करते थे लोग,
थी दिलों को हाजते दीवार कम॥
अब तो है हर शख़्स में बेगानापन,
पहले शायद होते थे अग़यार कम्॥
गिड़गिड़ाने से नहीं कुछ फ़ायदा,
कर नहीं सकता सितम ख़ूंख़्वार कम्॥
हाथ फैलाने लगा हर आदमी,
रह गये हम में बहोत ख़ुददार कम॥
उठता जाता है ज़माने से ख़ुलूस,
मिलते हैं मुख़्लिस हमें हर बार क्म॥
तैरने की ख़्वाहिशें रखते हैं सब,
पर पहोंचते हैं नदी के पार कम्॥
मंज़िलें आसानतर होती गयीं,
राह में आये नज़र अशजार कम॥
धूप शायद सीढियाँ चढ़ने लगी,
दिन के अब बचने के हैं आसर कम्॥
ख़ाक में उसको भी सौंप आया हूं मैं,
जो न करता था कभी ईसार कम्॥
कह रहा हूं ज़िन्दगी को अल्विदा,
होगा इस दुनिया का कुछ तो भार कम्॥
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शनिवार, 27 मार्च 2010

मिली थी जो भी विरासत संभाल पाया न मैं

मिली थी जो भी विरासत संभाल पाया न मैं।
ग़मों का बोझ था ऐसा के मुस्कुराया न मैं॥

इनायतें तेरी मुझ पर हमेशा होती रहीं।
तेरी नज़र में कभी हो सका पराया न मैं॥

तेरे हुज़ूर में जब भी मैं सज्दा-रेज़ हुआ
,तेरी रिज़ा के सिवा और कुछ भी लाया न मैं॥

वो तेरी हम्द है जो नगमए दिलो-जाँ है,
कलाम और किसी लमहा गुनगुनाया न मैं॥

तमाम लोग सताइश करें तो क्या होगा,
ये ज़िन्दगी है अबस गर तुझे ही भाया न मैं॥
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शुक्रवार, 26 मार्च 2010

यादें छोड़ आये थे जज़ीरों में

यादें छोड़ आये थे जज़ीरों में।
हम भी थे इश्क़ के असीरों में॥
देखता हूं हरेक का चेहरा,
वो भी शामिल है राहगीरों में॥
नीयतों में ख़राबियाँ आयीं,
ज़ंग सा लग गया ज़मीरों में॥
उसका ही नक़्श क्यों उभरता है,
ज़िन्दगी तेरी सब लकीरों में॥
सच बताना तलाश किसकी है,
आ गये कैसे तुम फ़क़ीरों में॥
शाया कर के जरीदए-हस्ती,
हम नुमायाँ हुए मुदीरों में॥
तुम भी नाहक़ ख़ुलूस ढूँडते हो,
आजकल के नये अमीरों में॥
कितनी गहराइयाँ चुभन की हैं,
ख़ामुशी के नुकीले तीरों में॥
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गिरफ़्तारे-बला हरगिज़ नहीं हूं ।

गिरफ़्तारे-बला हरगिज़ नहीं हूं ।
मैं घबराया हुआ हरगिज़ नहीं हूं॥

बिछा दो राह में कितने भी काँटे,
मैं वापस लौटता हरगिज़ नहीं हूं॥

निकल जाऊंगा मैं इन ज़ुल्मतों से,
के मैं इनमें घिरा हरगिज़ नहीं हूं॥

पता है ख़ूब मुझको साज़िशों का,
मैं लुक़्मा वक़्त का हरगिज़ नहीं हूं॥

हरेक दिल की दुआ है ज़ात मेरी,
किसी की बददुआ हरगिज़ नहीं हूं॥
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गुरुवार, 25 मार्च 2010

ज़मीनें दूसरों पर तंग करना उसका शेवा है

ज़मीनें दूसरों पर तंग करना उसका शेवा है।
हमें कमज़ोर पाकर जंग करना उसका शेवा है॥

हम अपनी छोटी सी दुनिया में भी ख़ुश रह नहीं पाते,
हमारी ज़िन्दगी बदरंग करना उसका शेवा है॥

अज़ीयत में किसी को देखना है मशगला उसका,
दिले-इन्सानियत को नंग करना उसका शेवा है॥

जहाँसाज़ी में है उसको महारत इस क़दर हासिल,
मुख़ालिफ़ को भी हम आहंग करना उसका शेवा है॥

बना देता है वो अदना मसाएल को भी पेचीदा,
ज़रा सी बात को ख़रसग करना उसका शेवा है॥
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बुधवार, 24 मार्च 2010

मौत के फूल

रात के तीसरे पहर में कहीं /
किसी वीरान यख़-ज़दा शब में /
बाज़ुओं की हरारतों से भरे/
ठोस लेकिन गुदाज़ झूले में/
बाप लिपटाये अपने बच्चे को /
प्यार से दे रहा है ढारस सी /
कसती जाती है मौत की रस्सी /
ज़र्द चेहरा रुकी-रुकी साँसें /
लफ़्ज़ शीशे की तर्ह टूटे हुए /
आँखें वीरानियों में खोई हुई /
मामता आस्माँ से झाँकती है /
मौत के फूल अपने आँचल में /
आँसुओं की ज़ुबाँ से टाँकती है।
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दुमदार सितारों की है यलग़ार ज़मीं पर्

दुमदार सितारों की है यलग़ार ज़मीं पर्।
कुछ बर्फ़ की गेंदें हैं शररबार ज़मीं पर॥
रहते थे फ़रिश्तों में तो अच्छे थे बहोत हम,
ख़ालिक़ ने उतारा हमें बेकार ज़मीं पर्॥
तस्बीह के दानों की तरह बिखरे हैं तारे,
टूटी हुई मुद्दत से है ज़ुन्नार ज़मीं पर्॥
इन्साँ के लिए आये क़वानीने-ख़ुदावन्द,
ज़ालिम के ख़िलाफ़ आयी है तलवार ज़मीं पर्॥
ख़ुशहाली पे नाज़ाँ हैं जहाँ साहिबे-दौलत,
रहते हैं वहीं मुफ़्लिसो-नादार ज़मीं पर्॥
ख़ूँरेज़ियाँ करता है बशर फिर भी है ज़िन्दा,
आज़ाद हैं फ़िकरों से गुनहगार ज़मीं पर्॥
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शुक्रवार, 19 मार्च 2010

शमअ के सामने तारीकियाँ सिमटी हुई हैं

शमअ के सामने तारीकियाँ सिमटी हुई हैं।
दिल है रौशन तो बलाएं सभी सहमी हुई हैं॥

प्यार का नफ़रतों से कोई तअल्लुक़ है ज़रूर,
ख़स्लतें दोनों की कुछ-कुछ कहीं मिलती हुई हैं॥

लकड़ियाँ गीली हैं जलने पे धुवाँ उठता है,
घर की दीवारें इसी वजह से काली हुई हैं॥

जानता हूँ मैँ उसे ख़ूब वो ऐसा तो नहीं,
तुहमतें उसपे बहरहाल ये थोपी हुई हैं॥

रेगज़ारों में था ये क़ाफ़्ला किस बेकस का,
किस की लाशें हैं जो इस तर्ह से कुचली हुई हैं॥

मेरे सीने में तो अब कोई हरारत ही नहीं,
बर्फ़ की भारी चटानें हैं जो रक्खी हुई हैं॥

खाइयाँ पहले से मौजूद थीं दिल में लेकिन,
उसकी बातों से ये कुछ और भि गहरी हुई हैं॥
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गुरुवार, 18 मार्च 2010

आजिज़ हूँ इन अफ़सानों से

आजिज़ हूँ इन अफ़सानों से।
कौन कहे कुछ दीवानों से॥
रातें सहराओं जैसी हैं,
दिन लगते हैं शमशानों से॥
ज़ुन्नारों ने जंगें की हैं,
क्यों तस्बीहों के दानों से॥
लौट रहा हूँ ख़ाली-ख़ाली,
उजड़े-उजड़े मयख़ानों से॥
क्यों जानें ज़ाया करते हैं,
पूछे कौन ये परवानों से॥
इल्म की क़ीमत आँक रहे हैं,
हम रिश्तों के पैमानों से॥
अबके फ़साद हुए कुछ ऐसे,
घर-घर हैं क़ब्रिस्तानों से॥
गौतम बुद्ध बनें तो कैसे,
वाक़िफ़ कब हैं निर्वानों से॥
क्या-क्या आवाज़ें सुनता हूं,
शेरो-सुख़न के काशानों से॥
फ़स्लें क़ीमत माँग रही हैं,
राख हुए इन खलियानों से॥
बढती रहेगी दहशतगर्दी,
हम भी जायेंगे जानों से॥
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क्यों ताज़ा है यादों में अभी तक वही मंज़र

क्यों ताज़ा है यादों में अभी तक वही मंज़र।
महफ़ूज़ है आँखों में अभी तक वही मज़र्॥

नक़्श उसके बहोत गहरे हैं क्यों सफ़हए-दिल पर,
आ जाता है ख़्वाबों में अभी तक वही मंज़र्॥

वहशत सी हुआ करती है अहसास से जिसके,
है काली घटाओं में अभी तक वही मज़र्॥

वो कूचए-जानाँ था के मक़्तल की ज़मीं थी,
मिट पाया न बरसों में अभी तक वही मज़र्॥

केसर की कुदालों की है हर चोट नुमायाँ,
तक़्सीम है फ़िरक़ों में अभी तक वही मंज़र्॥
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