रविवार, 19 अप्रैल 2009

मन के नीरव कुञ्ज में वंशी की मीठी तान पर.

मन के नीरव कुञ्ज में वंशी की मीठी तान पर.
गोपियों के नृत्य की अनुपम छटा है शान पर. .

इन कदम्बों के ये कुसुमित पुष्प गहरे हैं बहोत,
कुछ चकित होते नहीं ये प्यार के अनुदान पर.

देख कर चंचल नयन की भाव भीनी भावना,
हो गयीं राधा समर्पित कृष्न की मुस्कान पर.

अब नहीं आता कभी मन में किसी का भी विचार,
दृष्टि केन्द्रित हो चुकी है अब उसी के ध्यान पर.

हम गली-कूचों में गोकुल के उसे देखा किये,
हमने पायी उसकी महिमा आज भी पर्वान पर.

दी थी जमुना की रुपहली रेत ने चेतावनी,
देखो पग रखना संभल कर प्रेम के सोपान पर.
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शनिवार, 18 अप्रैल 2009

प्रयास मन कभी ऐसे अनर्थ का न करे.

प्रयास मन कभी ऐसे अनर्थ का न करे.
के सुन के बांसुरी, गोकुल की कल्पना न करे.

मैं उसके प्यार को मन में उतार बैठा हूँ,
दवा ये ऐसी नहीं है जो फ़ायदा न करे.

रहेगी कैसे वो जीवित कभी विचारों में,
दिलो-दिमाग़ को आकृष्ट जो कला न करे.

हुआ हूँ उससे अलग, पर ये हो नहीं सकता,
के उसके पक्ष में ये मन कभी दुआ न करे.

पसंद आये न कोई तो साथ क्यों रहिये,
जो साथ रहना है तो दिल कभी बँटा न करे.

न जाने कबसे है नारी विमर्श चर्चा में,
घरों में फिर भी किसी के असर ज़रा न करे.

जमें न पाँव कभी जिसके अंगदों की तरह,
वो लंकाधीशों में जाने का हौसला न करे.
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शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

धर्म की दीमक हुआ करती है वैसे भी सशक्त.

धर्म की दीमक हुआ करती है वैसे भी सशक्त.
लोकतांत्रिक कुर्सियों पर दृष्टि है इसकी सशक्त.

स्वात-घाटी से कोई अनुबंध हो सकता न था,
होते सत्ता में अगर थोडा भी ज़रदारी सशक्त.

पाके जन-आधार विकसित जब हुई संकीर्णता,
नींव कट्टर-पंथ की होती गयी खुद ही सशक्त.

उस अयोध्या में परस्पर प्रेम से रहते थे सब,
धर्म के भूकंप ने आकर घृणा कर दी सशक्त.

साम्प्रदायिक भाषणों में और कुछ हो या न हो,
राजनेताओं की इनसे हो गयी कुर्सी सशक्त.

करके नर-संहार लोकप्रीयता ऐसी मिली,
सब चकित से रह गए, होते गए मोदी सशक्त.

भूमिकाएं अब चुनावों की बहोत रोचक सी हैं,
सब दलों ने चुन लिए हैं अपने कुछ साथी सशक्त.

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रविवार, 29 मार्च 2009

मैं शिव नहीं हूँ, के गंगा जटा से निकलेगी.

मैं शिव नहीं हूँ, के गंगा जटा से निकलेगी.
मनुष्य हूँ, ये मेरी साधना से निकलेगी.

नहा के आया हूँ मंदाकिनी के तट से अभी,
कला संवर के मेरी हर सदा से निकलेगी.

वो द्रौपदी थी जिसे पांडव थे हार चुके,
न कोई महिला कभी यूँ सभा से निकलेगी.

कटा हुआ वो अंगूठा हूँ एकलव्य का मैं,
कि जिसकी आह गुरू दक्षिणा से निकलेगी.

कहा था सपनों में 'ल्यूनार्दो' ने मुझसे कभी,
ये 'कैथारीना' ही 'मोनालिज़ा' से निकलेगी.

करेंगे यज्ञ युधिष्ठिर कि मुक्त पाप से हों,
दुआ शगुन की, दलित आत्मा से निकलेगी.

मिथक के बिम्ब नहीं हैं कहीं त्रिवेणी में,
बस एक श्रद्धा की छाया फ़िज़ा से निकलेगी.
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शनिवार, 28 मार्च 2009

हम इतने तजस्सुस से न देखें तो करें क्या.

हम इतने तजस्सुस से न देखें तो करें क्या.
जानें तो सही, लोगों की हैं आरज़ुएं क्या.
छुपती है कहाँ चेहरे पे आई हुई सुर्खी,
एहसास है, कहती हैं ये कानों की लवें क्या.
वो कहते हैं अच्छा नहीं लोगों से उलझना,
होता हो कहीं ज़ुल्म, तो खामोश रहें क्या.
क्यों खैरियतें पूछते हैं आप मुसलसल,
देना भी अगर चाहें, जवाब आपको दें क्या.
देहलीज़े-सियासत में क़दम रखना है मुश्किल,
किसको है खबर कब यहाँ तूफ़ान उठें क्या.
हर लम्हा तो रहती है उसे फ़िक्र हमारी,
आँखों में किसी शख्स की अब और चुभें क्या.
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शुक्रवार, 27 मार्च 2009

ये आँखें जब कभी इतिहास के मलबे से निकलेंगी.

ये आँखें जब कभी इतिहास के मलबे से निकलेंगी.
हमें विशवास है अलगाव के फंदे से निकलेंगी.

किसी मस्जिद में तुलसीदास का बिस्तर लगा होगा,
अज़ानें भी किसी मंदिर के दरवाज़े से निकलेंगी.

बजाहिर जो दिखाई दे वही सच हो नहीं सकता,
गुबारों की तहें क़ालीन के नीचे से निकलेंगी.

परिस्थितियों से लड़ते लेखकों के दिन भी लौटेंगे,
विदेशों की तरह जब पुस्तकें रुतबे से निकलेंगी.

हमारे संस्कारों की जड़ें मज़बूत हैं अब भी,
ज़मीनें तोड़ कर दुनिया के हर गोशे से निकलेंगी.

छुपी हैं आज प्रतिभाएं जो पिछडेपन के परदे में,
समय अनुकूल होने पर ये खुद परदे से निकलेंगी.

स्वयं अपने ही घर वाले सुनेंगे किस तरह उनको,
वो आहें भीगने पर रात जो चुपके से निकलेंगी.

गुरुवार, 26 मार्च 2009

रचनाओं में झलकता नहीं आत्मा का रंग.

रचनाओं में झलकता नहीं आत्मा का रंग.
भौतिक प्रदर्शनों ने है छीना कला का रंग.
उद्योग के विकास के हैं रास्ते खुले,
हर स्वस्थ-प्रक्रिया में है संभावना का रंग.
उत्साह ने प्रशस्त किये पथ, तो चल पड़ा,
सीमाओं में बंधा न किसी भी युवा का रंग.
अब झांकते हैं विश्व के वातायनों से हम,
अब किस में बाप-दादा की है संपदा का रंग.
दुख है तो संसदीय शिथिलताओं पर हमें,
क्या लौट पायेगा कभी निश्चिन्तता का रंग.
संसद के ये चुनाव अशिक्षित समाज को,
देते नहीं विचारों की स्वाधीनता का रंग.
कर्जे ने तोड़ दी है कमर हर किसान की,
सरकार है खुदा, तो उड़ा है खुदा का रंग.
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रिक्त हैं आँखों से सपने, नींद भी है लापता.

रिक्त हैं आँखों से सपने, नींद भी है लापता.
शून्य में साँसें टंगी हैं, ज़िन्दगी है लापता.
कैसी नीरवता है, ध्वनियाँ तक नहीं होतीं कहीं,
पाश में हैं सब तिमिर के, रोशनी है लापता.
गाँव के सन्नाटे पथ में रात बस भीगी ही थी,
सब ठगे से हैं, वधू की पालकी है लापता.
जी चुके जितना था जीना,लक्ष्य अब कोई नहीं,
किस दिशा में जाएँ, क्या सोचें, ख़ुशी है लापता.
हम न सुन पाए उजालों की कभी शहनाईयां,
राग जिसमें थे हजारों, वो नदी है लापता.
हम पुराने लोग सीखें कैसे ये जीने के ढब,
टीम-टाम इतने बहोत हैं, सादगी है लापता।
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सोमवार, 23 मार्च 2009

घर पे ऐसे लोग आकर सांत्वना देते रहे.

घर पे ऐसे लोग आकर सांत्वना देते रहे.
चोट गहरी जो निरंतर बारहा देते रहे.

आत्मा तक जिनके हर व्यवहार से घायल मिली,
हम उन्हें भी निष्कपट होकर दुआ देते रहे.

अब किसी सद्कर्म की आशा किसी से क्या करें,
अनसुनी करते रहे सब, हम सदा देते रहे.

प्यार संतानों का घट कर आ गया उस मोड़ पर,
आश्रम बूढों को छत का आसरा देते रहे.

कुछ परिस्थितियाँ बनीं ऐसी कि घर के लोग भी,
एक चिंगारी को वैचारिक हवा देते रहे.

ये किवाडें डबडबाई आँख से कहतीं भी क्या,
चौखटों के नक्श वैभव का पता देते रहे.

कैसे दिन थे वो अँधेरी कन्दरा में भूख की,
थपथपाकर हम भी बच्चों को सुला देते रहे.
*

दुविधाओं में क्यों पड़ते हो, साथ चलो.

दुविधाओं में क्यों पड़ते हो, साथ चलो.
सहयात्री निश्चित अच्छे हो, साथ चलो.

आत्मीय पाओगे, कुछ विशवास करो,
ऐसी बातें क्यों करते हो, साथ चलो.

देखो प्रातः ने आँखें खोली होंगी,
रात कटी, अब क्यों बैठे हो, साथ चलो.

इधर - उधर भटकोगे गलियों - कूचों में,
किस अतीत के मतवाले हो, साथ चलो.

आँखें बिछी हुई हैं सबकी राहों में,
तुम आखिर क्या सोच रहे हो, साथ चलो.
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