सोमवार, 3 नवंबर 2008

वह पराजित तर्क भी जीवित है आज.

वह पराजित तर्क भी जीवित है आज.
पक्ष अर्जुन का बहुत चर्चित है आज.
*******
कृष्ण उपदेशक हैं जिस कर्तव्य के,
रक्त से मानव के वह सिंचित है आज.
*******
देखिये पढ़कर महाभारत का अंत,
भावना क्या उसमें संदर्भित है आज.
*******
शोक में थे युद्ध के कारण अशोक,
हर कोई संहार से विचलित है आज.
*******
क्यों दया, करुणा, क्षमा को भूलकर,
आदमी हर क्षण बहुत चिंतित है आज.
*******
प्रेम में परमात्मा का वास है,
दुःख ये है, यह प्रेम परिसीमित है आज.
************

हर बात हम सुनेंगे अगर ज़ाब्ते में हो.

हर बात हम सुनेंगे अगर ज़ाब्ते में हो.
छींटा-कशी से दूर हो, सबके भले में हो.
*******
गाहे-बगाहे देखो गरीबां में झाँक कर,
महसूस ख़ुद करोगे बहोत फ़ायदे में हो.
*******
यलगार जो करेगा वो खायेगा ज़ख्म भी,
बेहतर ये है कि हर कोई अपने क़िले में हो.
*******
ना-आशना हो मंज़िले-मक़सूद से अभी,
बढ़-बढ़ के यूँ न बोलो अभी रास्ते में हो.
*******
गैरों में करते रहते हो क्यों खामियां तलाश,
सोचो ज़रा कि ख़ुद भी उसी कठघरे में हो.
*******
अल्फाज़ लड़खड़ाते हैं,लगज़िश है फ़िक्र में,
लगता है आज पूरी तरह तुम नशे में हो.
**************

ज़ाब्ते=संयम, गाहे-ब-गाहे= कभी-कभी, यलगार=आक्रमण, ना-आशना=अपरिचित, मंज़िले-मक़सूद=अभीष्ट गंतव्य,

रविवार, 2 नवंबर 2008

वेद, गीता, बाइबिल, कुरआन हैं लफ्ज़ों का खेल

वेद, गीता, बाइबिल, कुरआन हैं लफ्ज़ों का खेल.
आजका इन्सां समझता है इन्हें बच्चों का खेल.
*******
ग़म, मुसीबत, आहो-ज़ारी, दर्द, सीने की जलन,
जैसे हो एहसास के मैदान में यादों का खेल.
*******
मौत की दहशत भरी आवाज़ ने दहला दिया,
ज़िन्दगी इन्सान की है सिर्फ़ कुछ लम्हों का खेल.
*******
जिन दरख्तों पर लगे हैं फिर्कावारीयत के फल,
बरसों पहले जो उगे थे है ये उन पौदों का खेल.
*******
कौमियत, हुब्बे-वतन, ताईदे-बन्दे मातरम,
इक़्तदारों के लिए हैं बाहमी जंगों का खेल.
*******
दर हकीकत ये चुनावी मरहले हैं साफ़-साफ़,
टूटते, बनते-बिगड़ते, नित नये रिश्तों का खेल,
***************

गुफ्तो-शुनीद से भी कोई फ़ायदा नहीं.

गुफ्तो-शुनीद से भी कोई फ़ायदा नहीं।
ग़म दूसरों का आज कोई बांटता नहीं।
मज़हब का मोल-भाव है बाज़ार में बहोत,
इंसानियत के दर्द की होती दवा नहीं।
करते हैं इत्तेहाद की बातें सभी मगर
आपस में दिल किसी का किसी से मिला नहीं।
वो तो हमारे मुल्क की मज़बूत हैं जड़ें,
वरना ख़ुद इसके बेटों ने क्या-क्या किया नहीं।
कुछ इस क़दर सियासी खुदाओं में है कशिश,
खालिक पे अब भरोसा किसी को रहा नहीं।
होती है यूँ तो इश्को-मुहब्बत की बात भी,
लेकिन कोई सुरूर, कोई ज़ायका नहीं।
******************

उम्र की चिड़िया / सुधीर सक्सेना 'सुधि'

उम्र की चिड़िया
हर सुबह
उम्र की एक चिड़िया
मेरे कमरे में आकर
चहचहाती है. मैं दर्द से भीगे
शब्दों का चुग्गा
उसे चुगाता हूँ
ऐसा महसूस होता है कि मैं-
बहुत सहज हो गया हूँ.
चिड़िया उड़ जाती है फुर्र से
कुछ देर बाद और
मैं दर्शक बना इधर-उधर
ताकता रह जाता हूँ.
मेरे अपने भीतर की
सारी जली-अधजली कहानियाँ
बाहर छिटक पड़ती हैं
जिन्हें पढ़ने वाला कोई नहीं होता
इसे तुम चाहे मेरी कमज़ोरी
समझो या
मूक विवशता!
जीवन का शेष सत्य
सिर्फ् यही बचा है
जिसे मैंने बहुत संभाल कर रखा है,
अगली पीढ़ी के लिए.
बिछुड़ी हुई उम्र पता नहीं
कब आकर मेरे दरवाजे पर
दस्तक दे जाए.
मैंने घुटन से मुक्ति का उपाय
सोच लिया है.
दरवाजों पर बंदनवार सजा ली है,
कृत्रिम प्रकाश-किरणों की
निरंतर गहराते जा रहे
दर्द की विसंगति को भोगना
बड़ा कठिन हो गया है मेरे लिए
चिड़िया तो अब सुबह ही आयेगी
अभी तो सामने पहाड़-सी
दोपहरी और पूरी रात
यमदूत की तरह खड़ी है!
**********
-सुधीर सक्सेना 'सुधि'
75/44, क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020
e-mail:
sudhirsaxenasudhi@yahoo.com

शनिवार, 1 नवंबर 2008

और कितना अभी बदनाम करोगे उसको.

और कितना अभी बदनाम करोगे उसको.
कितने इल्ज़ाम हैं बाक़ी जो मढोगे उसको.
*******
वो है खामोश अभी खस्ता किताबों की तरह.
वक़्त आयेगा कि जब रोज़ पढोगे उसको.
*******
बारहा उसने भी इस घर की हिफाज़त की है,
संगदिल हो! कोई इनआम न दोगे उसको.
*******
मुझको खतरा है कहीं वो भी न तुम सा हो जाय,
यूँ ही गर रोज़ शिकंजों में कसोगे उसको.
*******
प्यार से मिल के तो देखो वो नहीं ऐसा बुरा,
पास जाओगे जभी जान सकोगे उसको.
*******
गुफ्तुगू होगी जो बाहम तो बनेगा माहौल,
कुछ सुनाओगे उसे और सुनोगे उसको.
************

जितनी चाहो नफरतें हमसे करो क्या पाओगे

जितनी चाहो नफरतें हमसे करो क्या पाओगे.
हम वो हैं हमको हमेशा मुस्कुराता पाओगे.
*******
खून के धब्बे हैं दामन पर बदल डालो लिबास,
वरना दुनिया की नज़र में ख़ुद को रुसवा पाओगे.
*******
तुम समझते हो हमें दुश्मन, चलो दुश्मन सही,
वक़्त आयेगा तो हम जैसों को अपना पाओगे.
*******
आओ देखो उस तरफ़ सूरज अभी होगा तुलू,
सुब्ह की किरनों में हर ज़र्रा नहाया पाओगे.
*******
ज़िन्दगी को तुम भी दरया की तरह करलो रवां,
सब्ज़ा-ज़ारों सा जहाँ को लहलहाता पाओगे.
*******
क़ल्ब है शफ्फाफ़ तो दैरो-हरम सब हैं वहाँ,
वो परागंदा है तो ख़ुद को तमाशा पाओगे.
****************

महाकवि हरिशंकर आदेश का एक महत्वपूर्ण महाकाव्य 'निर्वाण' [डायरी के पन्ने : 2]

अभी एक सप्ताह भी नहीं हुआ डाक से मुझे एक पुस्तक प्राप्त हुई 'निर्वाण'. इसकी प्रतीक्षा मैं पहले से कर रहा था. मेरे अग्रज और मित्र महाकवि हरिशंकर आदेश जी ने अमेरिका से मुझे फोन पर इसके सम्बन्ध में बताया भी था. अस्वस्थ होते हुए भी और डाक्टरों के निर्देश के बावजूद कि वे हिलें-डुलें और बातें न करें, उन्होंने मुझे फोन किया. मैंने भी उनके स्वस्थ होने की प्रार्थना की. बहत्तर-तिहत्तर वर्ष की अवस्था में जितना कार्य महाकवि आदेश कर रहे हैं, बिरला ही कोई व्यक्ति कर सकता है. अबतक तीन सौ से अधिक पुस्तकें लिख चुके हैं वे, जिनमें चार तो महाकाव्य हैं - 'अनुराग', 'शकुंतला', 'महारानी दमयंती' और 'निर्वाण'. वे आदेश आश्रम त्रिनिदाद के कुलपति हैं, कनाडा और अमेरिका में मिनिस्टर आफ रेलिजन हैं, अखिल हिन्दू समाज, अमेरिका एवं विद्या मन्दिर कनाडा के आध्यात्मिक गुरु हैं और भारत के भूतपूर्व सांस्कृतिक दूत भी रह चुके हैं. फिर सबसे बड़ी बात ये है के वे मेरे मित्र हैं, हितैषी हैं, शुभ-चिन्तक हैं.
नवम्बर 1999 में जब मुझे मयामी फ्लोरिडा [अमेरिका] में महाकवि तुलसीदास पर आयोजित त्रिदिवसीय अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन में सम्मिलित होने का अवसर प्राप्त हुआ तो वहाँ की मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि थे महाकवि हरिशंकर आदेश.मैत्री का यह जुडाव निरंतर गहराता गया. शायद इसलिए कि इसकी आधारशिला मज़बूत थी.
आजके हिनुदुत्ववादियों के मध्य हिंदुत्व-प्रेमी महाकवि हरि शंकर आदेश का क्या स्थान है, यह मैं नहीं जानता. किंतु इतना मैं अवश्य जानता हूँ कि महाकवि आदेश बहुमुखी प्रतिभा के धनी, सुविज्ञ, अध्ययनशील लेखक, कवि,समजोद्धारक, महापुरुष हैं. भारत के प्रति अटूट प्रेम उनके चिंतन का आधार है. संवेदनशीलता से उनकी वैचारिकता को ऊर्जा मिलती है. सर्व धर्म सम भाव उनके मन को शांत रखता है. हिंदुत्व के प्रति प्रेम उनमें आत्मविश्वास जगाता है और जिम्मेदारियों का एहसास भरता है. उनका ह्रदय पारदर्शी है, स्वच्छ है, कलुषताओं से मुक्त. धर्म के बीज वहाँ अंकुरित हो ही नहीं सकते जिनके ह्रदय में राग-द्वेष पलता है और मलिनाताएं कसमसाती हैं.
मुझे स्वयं आश्चर्य है कि इन छे-सात दिनों में सात सौ पृष्ठों का यह महाकाव्य- निर्वाण', मैं कैसे पढ़ गया. आपके हाथों में भी यह पुस्तक आजाय तो शायद आप भी इसे इसी प्रकार पढ़ जायेंगे. आज, जबकि हिन्दी कविता किसी बालिका की चुन्नी की तरह सिमट-सिकुड़कर हाइकू में शरण ले रही है, महाकाव्य लिखना कोई सरल कार्य नहीं है. महाकवि आदेश को भी समय के अंतराल के साथ इसे लिखने में चालीस वर्ष लग गए. किंतु इसे पढ़ते हुए केवल यही चालीस वर्ष नहीं, बल्कि महाराजा शुद्दोधन से अबतक का समय, प्रतीत होता है जैसे लेखक की मुट्ठियों में बंद हो गया हो और वह उसे आहिस्ता-आहिस्ता खोल रहा हो.
निर्वाण में कोई इतिहास नहीं है जो भीतर से झाँक रहा हो, इसमें कवि की सोच है जो अपना एक अलग इतिहास गढ़ रही है. पात्रों की गरिमा का ध्यान रखते हुए, आस्थाओं के बारीक शीशों को बिना चटकाए. बी.ए. के छात्र-जीवन में मैथिलि शरण गुप्त की यशोधरा ने भले ही लेखक के मन में स्थान बनाया हो, किंतु निर्वाण की रचना ने यशोधरा को बहुत पीछे छोड़ दिया है. यहाँ कोई दर्शन नहीं है जो गूढ़ शब्दावली में प्रस्तुत किया गया हो. यहाँ दर्शन और इतिहास समर्थित कल्पनाएँ हैं जो मंद गति से तरलीकृत होकर पाठक के मन में स्थान बना लेती हैं. महाराजा शुद्दोधन ने सिद्धार्थ को भले ही इस भय से वेदों के अध्ययन से दूर रखा हो कि उसके लिए आत्मा-परमात्मा, जीवन मृत्यु आदि का ज्ञान अनिवार्य है और यह सिद्धार्थ के हित में नहीं होगा, निर्वाण के रचनाकार का दृढ़ विश्वास है कि वेद प्रतिपादित सिद्धांतों और महात्मा बुद्ध प्रतिपासित सिद्धांतों में कोई टकराव या वैषम्य नहीं है.महाकवि की दृष्टि में वेदानुयायी तथा बौद्ध, दो पृथक लगने वाली प्रणालियाँ यथार्थ में एक ही हैं.
महाकवि आदेश की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने काव्य की भाषा को इतना सरल कर दिया है कि वह लोक मानस में सहज ही अपनी समूची लयात्मकता के साथ प्रवेश करती है और कथानक की सभी बारीकियों को सरलीकृत कर देती है. यहाँ दुखवाद अनास्तिकता को प्रतीकायित नही करता.शैशव, कैशोर्य, प्रेमानुभूति,विवाह, मिलन-महोत्सव के प्रसंग सांस्कृतिक धरातल पर पाठक के साथ एकस्वर रहते हैं. जहाँ सिद्धार्थ के गृह-त्याग का प्रसंग है वहीं यशोधरा के आंसू भी हैं, राहुल का शैशव भी है, कपिलवस्तु कि स्थिति का अवलोकन भी है. महात्म बुद्ध का धर्म प्रसार, परिनिर्वाण और कपिलवस्तु लौटकर यशोधरा से मिलने का प्रसंग, पूरी गरिमा के साथ व्यक्त किया गया है.
महाकवि आदेश के इस महाकाव्य को नटराज प्रकाशन दिल्ली ने प्रकाशित किया है और पुस्तक का मूल्य आठ सौ रूपए है.
**********************

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008

लाख हों आंखों में आंसू, मुस्कुराते हैं वो लोग

लाख हों आंखों में आंसू, मुस्कुराते हैं वो लोग.
दूसरों के सामने यूँ गम छुपाते हैं वो लोग.
*******
जान देकर जो बचाते थे वतन की आबरू,
आपको, हमको, सभी को याद आते हैं वो लोग.
*******
अपनी ज़ाती सोच से बाहर निकल कर देखिये,
आप ही की तर्ह कुछ सपने सजाते हैं वो लोग.
*******
आसमानों की छतों के साये में रहते हुए,
ज़िन्दगी की धूप में ख़ुद को सुखाते हैं वो लोग.
*******
जिनकी ज़हरीली ज़बानों पर नहीं कोई लगाम,
वक़्त आने पर हमेशा मुंह छुपाते हैं वो लोग.
*******
कितने बुज़दिल हैं हमारे दौर के दहशत-फ़रोश,
हक़ पे हैं तो क्यों नहीं आँखें मिलाते हैं वो लोग.
**************

दूर इंसानों से दरया था रवां सब से अलग

दूर इंसानों से दरया था रवां सब से अलग.
वक़्त ने रहने दिया उसको कहाँ सब से अलग.
*******
अब किसी के सामने दिल खोलते डरते है लोग,
कर दिया हालात ने सबको यहाँ सब से अलग.
*******
नफ़रतों की भीड़ में, उल्फ़त की बातें हैं फ़ुज़ूल,
आओ चलकर बैठते हैं हम वहाँ सब से अलग.
*******
अब हमारे शह्र में भी है इलाक़ाई चुभन,

अब हमारे शह्र की भी है जुबां सब से अलग.
*******
मस्लकों, सूबों, ज़बानों से है कुछ ऐसा लगाव,
एक लावारिस सा है हिन्दोस्ताँ सब से अलग.
*******
ख़ुद मेरे अन्दर किसी लमहा हुआ ये हादसा,
रूह को देखा तड़पते, जिस्मो-जाँ सब से अलग.
**************