बुधवार, 24 मार्च 2010

मौत के फूल

रात के तीसरे पहर में कहीं /
किसी वीरान यख़-ज़दा शब में /
बाज़ुओं की हरारतों से भरे/
ठोस लेकिन गुदाज़ झूले में/
बाप लिपटाये अपने बच्चे को /
प्यार से दे रहा है ढारस सी /
कसती जाती है मौत की रस्सी /
ज़र्द चेहरा रुकी-रुकी साँसें /
लफ़्ज़ शीशे की तर्ह टूटे हुए /
आँखें वीरानियों में खोई हुई /
मामता आस्माँ से झाँकती है /
मौत के फूल अपने आँचल में /
आँसुओं की ज़ुबाँ से टाँकती है।
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दुमदार सितारों की है यलग़ार ज़मीं पर्

दुमदार सितारों की है यलग़ार ज़मीं पर्।
कुछ बर्फ़ की गेंदें हैं शररबार ज़मीं पर॥
रहते थे फ़रिश्तों में तो अच्छे थे बहोत हम,
ख़ालिक़ ने उतारा हमें बेकार ज़मीं पर्॥
तस्बीह के दानों की तरह बिखरे हैं तारे,
टूटी हुई मुद्दत से है ज़ुन्नार ज़मीं पर्॥
इन्साँ के लिए आये क़वानीने-ख़ुदावन्द,
ज़ालिम के ख़िलाफ़ आयी है तलवार ज़मीं पर्॥
ख़ुशहाली पे नाज़ाँ हैं जहाँ साहिबे-दौलत,
रहते हैं वहीं मुफ़्लिसो-नादार ज़मीं पर्॥
ख़ूँरेज़ियाँ करता है बशर फिर भी है ज़िन्दा,
आज़ाद हैं फ़िकरों से गुनहगार ज़मीं पर्॥
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शुक्रवार, 19 मार्च 2010

शमअ के सामने तारीकियाँ सिमटी हुई हैं

शमअ के सामने तारीकियाँ सिमटी हुई हैं।
दिल है रौशन तो बलाएं सभी सहमी हुई हैं॥

प्यार का नफ़रतों से कोई तअल्लुक़ है ज़रूर,
ख़स्लतें दोनों की कुछ-कुछ कहीं मिलती हुई हैं॥

लकड़ियाँ गीली हैं जलने पे धुवाँ उठता है,
घर की दीवारें इसी वजह से काली हुई हैं॥

जानता हूँ मैँ उसे ख़ूब वो ऐसा तो नहीं,
तुहमतें उसपे बहरहाल ये थोपी हुई हैं॥

रेगज़ारों में था ये क़ाफ़्ला किस बेकस का,
किस की लाशें हैं जो इस तर्ह से कुचली हुई हैं॥

मेरे सीने में तो अब कोई हरारत ही नहीं,
बर्फ़ की भारी चटानें हैं जो रक्खी हुई हैं॥

खाइयाँ पहले से मौजूद थीं दिल में लेकिन,
उसकी बातों से ये कुछ और भि गहरी हुई हैं॥
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गुरुवार, 18 मार्च 2010

आजिज़ हूँ इन अफ़सानों से

आजिज़ हूँ इन अफ़सानों से।
कौन कहे कुछ दीवानों से॥
रातें सहराओं जैसी हैं,
दिन लगते हैं शमशानों से॥
ज़ुन्नारों ने जंगें की हैं,
क्यों तस्बीहों के दानों से॥
लौट रहा हूँ ख़ाली-ख़ाली,
उजड़े-उजड़े मयख़ानों से॥
क्यों जानें ज़ाया करते हैं,
पूछे कौन ये परवानों से॥
इल्म की क़ीमत आँक रहे हैं,
हम रिश्तों के पैमानों से॥
अबके फ़साद हुए कुछ ऐसे,
घर-घर हैं क़ब्रिस्तानों से॥
गौतम बुद्ध बनें तो कैसे,
वाक़िफ़ कब हैं निर्वानों से॥
क्या-क्या आवाज़ें सुनता हूं,
शेरो-सुख़न के काशानों से॥
फ़स्लें क़ीमत माँग रही हैं,
राख हुए इन खलियानों से॥
बढती रहेगी दहशतगर्दी,
हम भी जायेंगे जानों से॥
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क्यों ताज़ा है यादों में अभी तक वही मंज़र

क्यों ताज़ा है यादों में अभी तक वही मंज़र।
महफ़ूज़ है आँखों में अभी तक वही मज़र्॥

नक़्श उसके बहोत गहरे हैं क्यों सफ़हए-दिल पर,
आ जाता है ख़्वाबों में अभी तक वही मंज़र्॥

वहशत सी हुआ करती है अहसास से जिसके,
है काली घटाओं में अभी तक वही मज़र्॥

वो कूचए-जानाँ था के मक़्तल की ज़मीं थी,
मिट पाया न बरसों में अभी तक वही मज़र्॥

केसर की कुदालों की है हर चोट नुमायाँ,
तक़्सीम है फ़िरक़ों में अभी तक वही मंज़र्॥
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बुधवार, 17 मार्च 2010

दयारे-इश्क़ जुनूँ-साज़ है हमारे लिए

दयारे-इश्क़ जुनूँ-साज़ है हमारे लिए।
ग़ज़ल ज़मीर की आवाज़ है हमारे लिए॥
ये ख़ुश-अदाई का अन्दाज़ है हमारे लिए।
वो इक मुजस्समए-नाज़ है हमारे लिए॥
कभी न हो सका तनहाइयों का हमको गिला,
वो दिलनशीन है, हमराज़ है हमारे लिए॥
चलो के धूप के टुकड़े समेट लें चल कर,
के उनकी सारी तगोताज़ है हमारे लिए॥
कहीं किसी को शबोरोज़ की हमारे है फ़िक्र,
कोई तो है के जो ग़म्माज़ है हमारे लिए॥
हमें बलन्दियाँ अफ़लाक की नसीब कहाँ,
गिरफ़्ते-पँजए-शहबाज़ है हमारे लिए॥
ख़ुदा का शुक्र है ज़िन्दा हैं ऐसे वक़्तों में,
हमारा जीना भी एजाज़ है हमारे लिए॥
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रहता है आँखों में चेहरा हर दम

रहता है आँखों में चेहरा हर दम।
दिल है सौ जान से शैदा हर दम्॥
उसकी बातों का भरोसा क्या है,
करता रहता है वो रुस्वा हर दम॥
इक नुमाइश है तवाफ़े-काबा,
मैं सरापा हूं उसी का हर दम्॥
मुत्मइन कौन हुआ कुछ पा कर,
लब पे है शिकवए-बेजा हर दम्॥
इस तरह मुझ में समाया हुआ है,
मुझको रखता है वो तनहा हर दम्॥
लज़्ज़ते-इश्क़ बहोत है जाँसोज़,
है पिघलता हुआ लावा हर दम्॥
जगते-सोते मेरी आँखों ने,
ख़्वाब उसका ही सजाया हर दम्॥
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सो नहीं पाया कई रातों से

सो नहीं पाया कई रातों से ।
लोग नालाँ हैं मेरी बातों से॥
ज़िन्दगी! तुझको समझ सकते हैं,
हम अचानक हुई बरसातों से॥
दिल से मिट जाते हैं सब अन्देशे,
रब्त बढता है मुलाक़ातों से॥
कुरसियाँ हो चुकीं आदी इसकी,
कुछ भी हासिल नहीं सौग़ातों से॥
ये बताने में झिजकते क्यों हैं,
रिशते हैं आज भी देहातों से॥
क्यों है महँगाई ज़रा पूछते हैं,
किसी बनिए के बही खातों से॥
हम ग़रीबों से दलित हैं बेहतर ,
क्या मिला हमको बड़ी ज़ातों से॥
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मंगलवार, 16 मार्च 2010

इस राह में है तेज़ हवाओं का सामना

इस राह में है तेज़ हवाओं का सामना।
करना है इस जहाँ के ख़ुदाओं का सामना॥

निकले थे घर से देख के मौसम को ख़ुशगवार,
जब कुछ बढे, था काली घटाओं का सामना॥

मुमकिन नहीं के तोड़ दें हमको मुसीबतें,
हम कर चुके हैँ कितनी बलाओं का सामना॥

मिटटी में है हमारी बहोत बावफ़ा ख़मीर,
हँसते हुए करेंगे जफ़ाओं का सामना॥

ज़ाहिद भी डगमगाने लगे क्यों न राह से,
करना पड़े जो तेरी अदाओं का सामना॥

शायद न कर सकेगी कभी फ़िरक़ावारियत,
औलादें खो चुकी हुई माओं का सामना॥
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न जाने क्यों तेरे कूचे में वो कशिश न रही

न जाने क्यों तेरे कूचे में वो कशिश न रही।
हमारे दिल के तड़पने में वो कशिश न रही॥

सजे हुए हैं उसी तर्ह अब भी मयख़ाने,
मगर शराब के प्याले में वो कशिश न रही॥

हुनर के सारे ख़रीदार हो गये नापैद,
किसी ख़मोश इशारे में वो कशिश न रही॥

ज़रा सी उम्र में इतनी बड़ी-बड़ी बातें,
दिलों को छू सके, बच्चे में वो कशिश न रही॥

बदन से आती है अरक़े-गुलाब की ख़ुश्बू,
ये बात कहिए, तो कहने में वो कशिश न रही॥

ज़मीन ढलती हुई उम्र से परीशाँ है,
के इसके जिस्म के साँचे में वो कशिश न रही॥

कुछ ऐसा नक़्शो-निगारे-ग़ज़ल बदल सा गया,
रिवायतों के इलाक़े में वो कशिश न रही॥
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