बुधवार, 17 मार्च 2010

दयारे-इश्क़ जुनूँ-साज़ है हमारे लिए

दयारे-इश्क़ जुनूँ-साज़ है हमारे लिए।
ग़ज़ल ज़मीर की आवाज़ है हमारे लिए॥
ये ख़ुश-अदाई का अन्दाज़ है हमारे लिए।
वो इक मुजस्समए-नाज़ है हमारे लिए॥
कभी न हो सका तनहाइयों का हमको गिला,
वो दिलनशीन है, हमराज़ है हमारे लिए॥
चलो के धूप के टुकड़े समेट लें चल कर,
के उनकी सारी तगोताज़ है हमारे लिए॥
कहीं किसी को शबोरोज़ की हमारे है फ़िक्र,
कोई तो है के जो ग़म्माज़ है हमारे लिए॥
हमें बलन्दियाँ अफ़लाक की नसीब कहाँ,
गिरफ़्ते-पँजए-शहबाज़ है हमारे लिए॥
ख़ुदा का शुक्र है ज़िन्दा हैं ऐसे वक़्तों में,
हमारा जीना भी एजाज़ है हमारे लिए॥
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रहता है आँखों में चेहरा हर दम

रहता है आँखों में चेहरा हर दम।
दिल है सौ जान से शैदा हर दम्॥
उसकी बातों का भरोसा क्या है,
करता रहता है वो रुस्वा हर दम॥
इक नुमाइश है तवाफ़े-काबा,
मैं सरापा हूं उसी का हर दम्॥
मुत्मइन कौन हुआ कुछ पा कर,
लब पे है शिकवए-बेजा हर दम्॥
इस तरह मुझ में समाया हुआ है,
मुझको रखता है वो तनहा हर दम्॥
लज़्ज़ते-इश्क़ बहोत है जाँसोज़,
है पिघलता हुआ लावा हर दम्॥
जगते-सोते मेरी आँखों ने,
ख़्वाब उसका ही सजाया हर दम्॥
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सो नहीं पाया कई रातों से

सो नहीं पाया कई रातों से ।
लोग नालाँ हैं मेरी बातों से॥
ज़िन्दगी! तुझको समझ सकते हैं,
हम अचानक हुई बरसातों से॥
दिल से मिट जाते हैं सब अन्देशे,
रब्त बढता है मुलाक़ातों से॥
कुरसियाँ हो चुकीं आदी इसकी,
कुछ भी हासिल नहीं सौग़ातों से॥
ये बताने में झिजकते क्यों हैं,
रिशते हैं आज भी देहातों से॥
क्यों है महँगाई ज़रा पूछते हैं,
किसी बनिए के बही खातों से॥
हम ग़रीबों से दलित हैं बेहतर ,
क्या मिला हमको बड़ी ज़ातों से॥
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मंगलवार, 16 मार्च 2010

इस राह में है तेज़ हवाओं का सामना

इस राह में है तेज़ हवाओं का सामना।
करना है इस जहाँ के ख़ुदाओं का सामना॥

निकले थे घर से देख के मौसम को ख़ुशगवार,
जब कुछ बढे, था काली घटाओं का सामना॥

मुमकिन नहीं के तोड़ दें हमको मुसीबतें,
हम कर चुके हैँ कितनी बलाओं का सामना॥

मिटटी में है हमारी बहोत बावफ़ा ख़मीर,
हँसते हुए करेंगे जफ़ाओं का सामना॥

ज़ाहिद भी डगमगाने लगे क्यों न राह से,
करना पड़े जो तेरी अदाओं का सामना॥

शायद न कर सकेगी कभी फ़िरक़ावारियत,
औलादें खो चुकी हुई माओं का सामना॥
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न जाने क्यों तेरे कूचे में वो कशिश न रही

न जाने क्यों तेरे कूचे में वो कशिश न रही।
हमारे दिल के तड़पने में वो कशिश न रही॥

सजे हुए हैं उसी तर्ह अब भी मयख़ाने,
मगर शराब के प्याले में वो कशिश न रही॥

हुनर के सारे ख़रीदार हो गये नापैद,
किसी ख़मोश इशारे में वो कशिश न रही॥

ज़रा सी उम्र में इतनी बड़ी-बड़ी बातें,
दिलों को छू सके, बच्चे में वो कशिश न रही॥

बदन से आती है अरक़े-गुलाब की ख़ुश्बू,
ये बात कहिए, तो कहने में वो कशिश न रही॥

ज़मीन ढलती हुई उम्र से परीशाँ है,
के इसके जिस्म के साँचे में वो कशिश न रही॥

कुछ ऐसा नक़्शो-निगारे-ग़ज़ल बदल सा गया,
रिवायतों के इलाक़े में वो कशिश न रही॥
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शनिवार, 13 मार्च 2010

वो मस्लेहत है पुरानी वो मस्लेहत छोड़ो

वो मस्लेहत है पुरानी वो मस्लेहत छोड़ो।
चलो तो राह में कोई निशान मत छोड़ो॥

दबीज़ पर्दों में रखते हैं राज़ आज के लोग,
खुलो किसी से न रस्मे-मुआमलत छोड़ो॥

तुम इत्तेफ़ाक़ नहीं करते मत करो लेकिन,
किसी अमल से न वजहे मुख़ालेफ़त छोड़ो॥

नशे में आते हो जब ख़ुद को भूल जाते हो,
वो काम जिसपे हँसें लोग उसकी लत छोड़ो॥

तुम्हारी बातें दमाग़ों में कुछ उतर तो सकें,
शऊरो-फ़ह्म की ऐसी कोई लुग़त छोड़ो॥
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शुक्रवार, 12 मार्च 2010

निज़ामते-अज़ली हम भी सीखे लेते हैं

निज़ामते-अज़ली हम भी सीखे लेते हैं।
लो उसकी कूज़ागरी हम भी सीखे लेते हैं।

जमाले-हुस्न, ख़ुदी के तसव्वुरात में है,
शआरे- इश्क़े-ख़ुदी हम भी सीखे लेते हैं॥

तू ख़िल्क़ते-बशरी के है रम्ज़ से वाक़िफ़,
हुनर ये तेरा अभी हम भी सीखे लेते हैं॥

समझ सके न तेरी हिकमतों की बारीकी,
पर अब ये राहरवी हम भी सीखे लेते हैं॥

कमाल ये है के तेरा वुजूद हैं हम भी,
तुझी से दीदावरी हम भी सीखे लेते हैं॥
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निज़ामते-अज़ली=सृष्टि के प्रारँभ का संचालन्।कूज़ागरी=कुम्हार की कला।जमाले-हुस्न=रूप का सौन्दर्य।ख़ुदी=आत्माभिमान्।तसव्वुरात=कल्पनाओं।शआरे-इश्क़े-ख़ुदी=प्रेम केआत्माभिमान की परख्।ख़िल्क़ते-बशरी=मानव की सृष्टि।रम्ज़=रहस्य। हिकमत=संयम आधारित बौद्धिकता।वुजूद=अस्तित्त्व।दीदावरी=अच्छे-बुरे की पहचान्।

तजल्लियों के सेहर-आफ़रीं हिसार में हैं

तजल्लियों के सिहर-आफ़रीं हिसार में हैं।
सरापा हम किसी वादीए-एतबार में हैं॥

दुरूने-फ़िक्र किसी तश्नगी का हलक़ा है,
दरे-ख़ुलूस है वा,गोया इन्तेज़ार में हैं॥

निदाए-कूज़ागरे-इश्क़ सुनते रह्ते हैं,
तसन्नुआत से आरी किसी दयार में हैं॥

क़लम मुवर्रिख़े-दिल का रवाँ है सूरते-आब,
वरक़-वरक़ पे निगाहे-सितम-शआर में हैं॥

ख़बर किसे है के यख़-बस्ता राख के नीचे,
सुलगते बुझते हुए हम किसी शरार में हैं॥

कहीं हैं कामराँ नक़्शो-निगारे-दुनिया में,
कहीं इताब-ज़दा ख़ाक के ग़ुबार में हैं॥

वो आबगीना जो टूटा है तेरी महफ़िल में,
हम उसके रौग़नो-रंगे-क़ुसूरवार में हैं॥

उठा रहे हैं बहोत ख़ुद-सुपुर्दगी के मज़े,
हमें है फ़ख़्र के हम तेरे अख़्तियार में हैं॥
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तजल्लियों=अधयात्मज्योति । सेहर-आफ़रीं=चमत्कारिक । हिसार=घेरे । वादीए-एतबार=विश्वसनीय घाटी । दुरूने-फ़िक्र=चिन्तन के भीतर ही भीतर । तश्नगी=प्यास । हलक़ा=परिधि,मडल ।दरे-ख़ुलूस=आत्मीयता का द्वार्।वा=खुला हुआ। निदाए-कूज़ागरे-इश्क़=इश्क़ का कसोरा ब्नाने वाले की आवाज़्।तसन्नुआत से आरी=कृत्रिमता से मुक्त । निगाहे-सितम-शआर=अत्याचार ढाने वाले की दृष्टि=यख़-बस्ता=बर्फ़ जैसी। शरार=चिंगारी।कामराँ=सफल। नक़्शो-निगार=बेल-बूटे। इताब-ज़दा=शापग्रस्त। आबगीना=बारीक शीशे की बोतल। रौग़नो-रंग=रंग और पालिश्।ख़ुद-सुपुर्दगी=समर्पण्। फ़ख़्र=गर्व॥अख़्तियार=अधिकार्।

कभी कमी कोई आयी न इन ख़ज़ानों में

कभी कमी कोई आयी न इन ख़ज़ानों में।
के दौलतें हैं बहोत इश्क़ के फ़सानों में ॥
मैं ख़िरमनों की तबाही का ज़िक्र क्या करता,
ये बात ग़र्म बहोत थी कल आसमानों में॥
हवाएं करतीं मदद किस तरह सफ़ीनों की,
जगह जगह पे थे सूराख़ बादबानों में॥
हरेक की क़ीमतें चस्पाँ हैं उसके चेहरे पर,
सजे हैं जिन्स की सूरत से हम दुकानों में॥
मैं हक़-पसन्द था ये कम ख़ता न थी मेरी,
सज़ा ये थी के रहूं जाके क़ैदख़ानों में॥
मेरे ख़मीर में है एहतेजाज की मिटटी,
वुजूद मेरा मिलेगा सभी ज़मानों में॥
वो उनसियत, वो मुहब्बत, वो आपसी रिश्ते,
न जाने क्यों हुए नापैद ख़न्दानों में॥
कभी कभी मुझे एहसास ऐसा होता है,
के जैसे रक्खा हूं मैं तोप के दहानों में॥
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गर्दने-सुबह पे तलवार सी लटकी हुई है

गर्दने-सुबह पे तलवार सी लटकी हुई है।
रोशनी जो भी नज़र आती है सहमी हुई है ॥

शाम आयी है मगर ज़ुल्फ़ बिखेरे हुए है,
रात की नब्ज़ पे उंग्ली कोई रक्खी हुई है॥

दोपहर जिस्म झुलस जाने से है ख़ौफ़-ज़दा,
धूप कुछ इतनी ग़ज़बनाक है बिफरी हुई है॥

आस्मानों पे है सरसब्ज़ दरख़्तों का मिज़ाज,
कोख धरती की बियाबानों सी उजड़ी हुई है॥

सोज़िशे-दर्द से सीने में सुलगता है अलाव,
दिल के अन्दर कहीं इक फाँस सी बैठी हुई है॥

लब कुशाई पे हैं पाबन्दियाँ ख़ामोश हैं सब,
अक़्ल कुछ गुत्थियाँ सुल्झाने में उल्झी हुई है॥
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