शुक्रवार, 5 सितंबर 2008

समंदर और साहिल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा


बहोत उदास सा, मगमूम सा ये मंज़र है
दरख्त ऐसे खड़े हैं खमोश, गोया इन्हें
कहीं खलाओं में पोशीदा, तेज़ तूफाँ के
ज़मीं पे आके तबाही मचाने का डर है.
ये साहिलों का तड़पता, गरीब सन्नाटा
ज़बान से जो समंदर की खूब वाकिफ है
अभी-अभी इसे समझाया है समंदर ने
कि दूर-दूर से आए शगुफ्ता चेह्रों को
खला में होती हुई साजिशों का कोई पता
किसी भी तर्ह, किसी पल न तुम बताओगे
किया जो ऐसा तो ख़ुद को कहीं न पाओगे
तुम्हारे सीने में पेवस्त ऐसा खंजर है
जो टूट जाए अगर, आसमान टूट पड़े.
तबाहियों का मुकम्मल जहान टूट पड़े.
*************
[छाया-चित्र : सैयद, कैलिफोर्निया]

दूध जैसा झाग / हसन अकबर कमाल

दूध जैसा झाग, लहरें, रेत, प्यारी सीपियाँ।
कैसा चुनती फिर रही हैं मोतियों सी लड़कियाँ।
बाग़ में बच्चों के गिर्दो-पेश मंडलाती हैं यूँ
जैसे अपना, अपना क़ातिल ढूँढती हों तितलियाँ।
वो मुझे खुशियाँ न दे और मेरी आँखें नम न हों,
है ये पैमा ज़िन्दगी के और मेरे दरमियाँ।
बामो-दर उनके हवा किस प्यार से छूती रही,
चाँदनी की गोद में जब सो रही थीं बस्तियाँ।
कल यही बच्चे समंदर को मुकाबिल पायेंगे,
आज तैराते हैं जो कागज़ की नन्ही कश्तियाँ।
घूमना पहरों घने महके हुए बन में कमाल।
वापसी में देखना अपने ही क़दमों के निशाँ।
************

वो अपरिचित भी नहीं है / शैलेश ज़ैदी

वो अपरिचित भी नहीं है और परिचित भी नहीं।
जानता हूँ मैं उसे, पर हूँ सुनिश्चित भी नहीं।
उसने भिजवाई थी मुझको सूचना, घर आएगा,
कैसे मैं स्वागत करुँगा, घर व्यवस्थित भी नहीं।
मानता हूँ मैं कि उसपर है भरोसा कम मुझे,
किंतु उसकी ओर से मन कुछ सशंकित भी नहीं।
ये समस्याएँ तो होती हैं सभी के सामने,
इन समस्याओं से मैं किंचित प्रभावित भी नहीं।
सोचता हूँ मैं कि यह सम्मान क्यों मुझको मिला,
मैं तो अपने देश में कुछ ऐसा चर्चित भी नहीं।
जिनका है सम्पूर्ण जीवन लांछनाओं से भरा,
देखता हूँ मैं कि वे नेता कलंकित भी नहीं।
**********************

जय हिन्दी, जय देवनागरी /मगन अवस्थी

दो शब्द : आज हिन्दी दिवस की क्या उपयोगिता रह गई है, यह एक अलग प्रश्न है। किंतु हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि के अनेक प्रेमी ऐसे हैं जो आज भी इसके प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित हैं। हिन्दी के प्रति यही प्रेम इस कविता में द्रष्टव्य है। [शैलेश ज़ैदी]
जय हिन्दी जय देवनागरी।
जय कबीर, तुलसी की वाणी, मीरा की वीणा कल्याणी।
सूरदास के सागर मंथन, की मणि-मंडित सुधा-गागरी।

जय रसखान, रहीम रसभरी, घनानंद, मकरंद, मधुकरी।
पदमाकर, मतिराम, देव के, प्राणों की मधुमय विहाग री।

भारतेंदु की विमल चाँदनी, रत्नाकर की रश्मि मादनी।
भक्ति, ज्ञान और कर्म-क्षेत्र की, भागीरथी भुवन उजागरी।

जय स्वतंत्र भारत की आशा, जय स्वतंत्र भारत की भाषा।
भारत जननी के मस्तक की, श्री शोभा कुमकुम सुहाग री।
*************************

गुरुवार, 4 सितंबर 2008

बात निकली और गुल के / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

बात निकली और गुल के मौसमों पर आ गयी।
ख़ुद-ब-ख़ुद मेरी ग़ज़ल उसके लबों पर आ गयी।
सरफ़रोशी के लिए मखसूस थे जो रास्ते,
ज़िन्दगी बेसाख्ता उन रास्तों पर आ गयी।
लोग कहते हैं कि अब फूलों में वो रंगत नहीं,
चूक माली से हुई , तुहमत गुलों पर आ गयी।
ये इमारत पहले तो इस शह्र के मरकज़ में थी,
हादसा कैसा हुआ ? क्यों सरहदों पर आ गई ?
कैसे कर सकती थी मौसीकी ज़माने से गुरेज़,
जैसी फरमाइश हुई, वैसी धुनों पर आ गयी।
बेहिसी की बदलियों में, धड़कनें तक खो गयीं,
क्या मुसीबत प्यार में टूटे दिलों पर आ गयी।
मरघटों ने जबसे मेरे घर पे कब्जा कर लिया,
साँस मेरे जिस्म की ख़ुद मरघटों पर आ गयी।
*******************

सत्य संबल है / कमल किशोर 'श्रमिक'

सत्य संबल है सहज अंतःकरण का।
मूक दर्पण है ये भाषा व्याकरण का।
जब अहेरी बेधते मृग शावकों को
प्रश्न क्यों उठता नहीं है आचरण का।
फूल क्यों अपनी महक खोने लगे हैं
व्यक्ति का है दोष या पर्यावरण का ?
शक्ति की पूजा युगों से चल रही है,
बन गया इतिहास अंगद के चरण का।
सभ्यता सब को सुलभ होने न पाये ,
बढ़ रहा है लोभ स्वर्णिम आवरण का।
नित्य ही हम राजपथ पर देखते हैं,
एक पावन दृश्य सीता के हरण का।
*****************

तुमसे कैसा परिचय पाया / वीरेन्द्र सिंह वर्मा

तुमसे कैसा परिचय पाया
मैं अपनेको ही भूल गया।

अपना सर्वस्व तुम्हें देकर,
प्रतिदान वेदना का लेकर,
सपनों पर जीवन वार दिया
छाया से निर्भर प्यार किया
खिल जाने की आशा ही में
मुरझा जीवन का फूल गया।

पतवार स्नेह की थाम सबल,
बढ़ते रहना चाहा अविरल ,
जीवन की झंझा में पड़कर ,
तूफानों से पल-पल लड़कर,
जैसे तैसे जो पाया था
हाथों से वह भी कूल गया।

छूकर तेरी छाया चंचल
अबतक पीड़ित है अंतरतल
तेरी सुधि के रंगीन दिवस
नयनों में बन झरते पावस,
अनुकूल आज बनते-बनते
विधना क्यों हो प्रतिकूल गया.
*************

एक ठोस लक्ष्य चाहिए / रामकिशन सोमानी

निश्चय किया
कि तुम पर मुष्टिका प्रहार करूँ
तुम लकडी के हो गए
सोचा
कि तुम्हें आरे से चीर डालूं
तुम लोहे के हो गए
तय किया
कि तुम पर भारी घनों से निरंतर
आघात पर आघात करूँ
तुम अदृश्य हो गए
मौजूदा व्यवस्था के तुम सिद्ध पुरूष
मैं मन्त्र षड़यंत्र से हीन जन
तुम्हारे वायवी हो चुके शरीर पर
कहाँ और कैसे प्रहार करता
मैं सोचता रहा।
आख़िर प्रहार को भी
एक ठोस लक्ष्य चाहिए।
******************

बुधवार, 3 सितंबर 2008

उस समंदर के कनारे / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

उस समंदर के कनारे था दरख्तों का हुजूम।
गाँव के तालाब पर जिस तर्ह बच्चों का हुजूम।
उनकी ताबीरें थीं कैसी इसका कब आया ख़याल
देखकर मैं डर गया ख़ुद अपने ख़्वाबों का हुजूम।
फिर्कावारीयत का जंगल किस क़दर सर-सब्ज़ था
शहर में फैला था हर जानिब दरिंदों का हुजूम।
जिनकी बद-आमालियाँ दुनिया से पोशीदा न थीं
हमको दिखलाया गया ऐसे फरिश्तों का हुजूम।
भूक, गुरबत, मुफलिसी के नाम पर यकजा थे सब
उस सियासी धूप में था सिर्फ़ सायों का हुजूम।
किससे कहिये दर्दे-दिल, किससे शिकायत कीजिये
ज़िन्दगी में हर क़दम पर जब हो गैरों का हुजूम।
एक शायर घिर गया है नंगी तलवारों के बीच,
वो है तनहा, सामने उसके है लाखों का हुजूम।
******************

रोशनी का खेल मत खेलो / नोशी गीलानी

तुम्हें पहले कहा भी था
कि हमसे रोशनी का खेल मत खेलो
हमें इस तीरगी से निस्बतें इतनी पुरानी हैं
कि तुम भी हार जाओगे
सो अब देखो ! तुम्हारे हाथ खाली हैं
अब इनके लम्से-ताज़ा में
हमारे नाम का कोई सितारा भी नहीं है।

तुम्हारी चश्मे-नाज़ाँ में
कभी जो इश्क़ की वारफ्तगी के
इतने जुगनू झिलमिलाये थे
वो अपने रक्स की तकमील के पहले ही लम्हे में
कमाले-बेनियाज़ी से अचानक बुझ गए हैं।

तुम्हारी गुफ्तुगू में सच के रंगों की
जो इक क़ौसो-क़ज़ा सी मुस्कुराई थी
बहोत नामेहरबाँ खामोशियों के
बादलों में छुप गई है।

हमारे दरमियाँ ठहरी हुई शब की उदासी में
किसी हरफे-दुआ का इक शरारा भी नहीं है।

तुम्हारे लम्स की हैरान करती नर्म बारिश ने
हवा के रेशमी आँचल पे जो
हलकी गुलाबी आयातों जैसे महकते गीत लिक्खे थे
अब उनमे वस्ल खुशबू का इशारा भी नहीं है।
तुम्हारे दामने-दिल में
वफ़ा का इक सुनहरा इस्तेआरा भी नहीं है।

ज़रा देखो ! तुम्हारे हाथ खाली हैं
अब इनके लम्से-ताज़ा में
हमारे नाम का कोई सितारा भी नहीं है।
तुम्हें पहले कहा भी था
कि हमसे रोशनी का खेल मत खेलो।
*************