रविवार, 31 अगस्त 2008

दर्द से रिश्ता कोई / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

दर्द से रिश्ता कोई जोड़ना कब चाहता है
ये तो फ़ितरत का तक़ाज़ा है जो रब चाहता है
गीत बिखरे हैं फ़िज़ाओं में सुनो सबको, मगर
गुनगुनाओ वही नगमा जिसे लब चाहता है
आदमी सीख के आया है अनोखा जादू
एक नया चेहरा लगा लेता है जब चाहता है
मैं हूँ जैसा भी तुझे इस से तअल्लुक़ क्या है
जानना क्यों मेरी गुरबत का सबब चाहता है
पहले रस्मन हुआ करती थी मुलाक़ात उस से
वालेहाना मेरा दिल क्यों उसे अब चाहता है
मेरे घर में कोई दौलत कोई सरमाया नहीं
नाहक़ इस घर में लगाना वो नक़ब चाहता है
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तमाम शह्र से / आशुफ़्ता चंगेजी

तमाम शह्र से नज़रें चुराए फिरता है
वो अपने शानों पे इक घर उठाये फिरता है
हज़ार बार ये सोचा कि लौट जायेंगे
न जाने क्यों हमें दरिया बहाए फिरता है
हुदूद से जो तजावुज़ की बात करता था
वो अपने सीने में पौदे लगाए फिरता है
थे आज तक इसी धोके में सबसे वक़िफ़ हैं
जिसे भी देखो कोई शै छिपाए फिरता है
अब एतमाद कहाँ तक बहाल रक्खेंगे
कोई तो है जो हमें यूँ नचाये फिरता है.
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सारी नदियाँ पी जाता है / शैलेश ज़ैदी

सारी नदियाँ पी जाता है ,फिर भी सागर प्यासा है
उसकी भाषा पढ़कर देखो, अक्षर-अक्षर प्यासा है
आसमान से चलकर दरिया तक आना आसान नहीं
रोज़ आता है पानी पीने चाँद, निरंतर प्यासा है.
ओस चाटकर कुछ तो प्यास बुझा लेते हैं फूल मगर
सुनो कभी संगीत जो उनका, एक-एक स्वर प्यासा है
दो जुन की रोटी तो जैसे-तैसे मिल भी जाती है
थोड़ा सा आदर पाने को, श्रमिक बराबर प्यासा है
मूल प्रश्न यह है आतंकी को विशवास दिया किसने ?
प्राण अगर जाएँ, स्वागत को, जन्नत का दर प्यासा है
केसरिया बाने को, केवल एक ही चिंता रहती है
मिले विधर्मी रक्त कहीं से, धर्म का गागर प्यासा है
कोई भी शैलेश तुम्हारी, आकर हत्या कर देगा
खरी-खरी बातों से, प्राणों का, हर विषधर प्यासा है.
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पिछड़ा आदमी / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

जब सब बोलते थे
वह चुप रहता था,
जब सब चलते थे
वह पीछे हो जाता था,
जब सब खाने पर टूटते थे
वह अलग बैठा टूंगता रहता था,
जब सब निढाल हो सोते थे
वह शून्य में टकटकी लगाये रहता था,
लेकिन जब गोली चली
तब सबसे पहले वाही मारा गया.
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दुःख / सर्वेश्वर्दाया सक्सेना

दुःख है मेरा
सफ़ेद चादर की तरह निर्मल
उसे बिछाकर सो रहता हूँ.

दुःख है मेरा
सूरज की तरह प्रखर
उसकी रोशनी में
सारे चेहरे देख लेता हूँ.

दुःख है मेरा
हवा की तरह गतिवान
उसकी बाँहों में
मैं सबको लपेट लेता हूँ.

दुःख है मेरा
अग्नि की तरह समर्थ
उसकी लपटों के साथ
मैं अनंत में हो लेता हूँ.

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इतिहास का कलम / शैलेश ज़ैदी

कोमल और सुर्ख हथेलियों में
गुलाब की खुशबू तलाशने वाले लोग
बेखबर हैं
इतिहास के उस क़लम से
जो टाँकता जा रहा है उनके विरुद्ध
धूल और कीचड में सने हाथों की
मोटी-मोटी नसों में दौड़ती
तेज़ाबी बगावत।

इतिहास का क़लम
पेड़ पर बैठा कोई पक्षी नहीं है
जो बहेलियों के लासे में आ जाय
और बोलने लगे बहेलियों की भाषा

इतिहास का कलम
आज उन हाथों में है
जो मिटटी से गुलाब उगाना जानते हैं
और देश के नक्शे की
हर लकीर पहचानते हैं .
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मेरा गाँव.../ सुधीर सक्सेना 'सुधि'

न जाने क्या हो रहा है!
मेरे गाँव को...
पूरी रात का बोझ
अपने कुबड़े कंधों
पर ढो रहा है.
कुत्ते जो यहाँ के
आदमियों से भी अधिक
आवारा हैं, भौंक रहे हैं,
और आदमी!
कुत्तों की आवाज़ से
चौंक रहे हैं.
गाँव के सूखे पोखर
आजकल थकावट
घोल जाते हैं और
भेड़-बकरियों के झुण्ड
भटकते ही रहते हैं
अपने ही पांवों से
पैदा हुए अंधड़ में.
कौन यहाँ
खेतों और खलिहानों में
बीता हुआ वक़्त बो रहा है!
पता नहीं,
मेरे गाँव को क्या हो रहा है!
पूरी ज़िन्दगी का बोझ
अपने कुबड़े कंधों पर ढो रहा है.
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75/44, क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020
e-mail: sudhirsaxenasudhi@yahoo.com

रिन्दों के लब पे / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

रिन्दों के लब पे मय की ग़ज़ल का खुमार था
मयखाना आज रात बहोत बे-क़रार था
फूलों के साथ रात में क्या हादसा हुआ
हर फूल सुब्ह होने पे क्यों अश्कबार था
जो आखिरी सुतून था कल वो भी गिर गया
घर का उसी सुतून पे दारोमदार था
उस शह्र के थे लोग निहायत थके हुए
चेहरों पे सब के वक़्त का गर्दो-गुबार था
उसको खिज़ाँ ने फेंक दिया जाने किस जगह
वो शख्स पुर-खुलूस था, बागो-बहार था
अफ़साने ज़िन्दगी के वो लिखता था बे-मिसाल
दर-अस्ल वो कमाल का फ़ितरत-निगार था
मेरी मुहब्बतें भी फ़क़त इक दिखावा थीं
उसकी वफ़ाओं का भी कहाँ एतबार था
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शनिवार, 30 अगस्त 2008

सभी को अपना समझता हूँ / आशुफ़्ता चंगेज़ी

सभी को अपना समझता हूँ क्या हुआ है मुझे
बिछड़ के तुझ से अजब रोग लग गया है मुझे
जो मुड के देखा तो हो जायेगा बदन पत्थर
कहानियों में सुना था, सो भोगना है मुझे
अभी तलक तो कोई वापसी की राह न थी
कल एक राहगुज़र का पता लगा है मुझे
मैं सर्द जंग की आदत न डाल पाऊंगा
कोई महाज़ पे वापस बुला रहा है मुझे
यहाँ तो साँस भी लेने में खासी मुश्किल है
पड़ाव अबके कहाँ हो ये सोचना है मुझे
सड़क पे चलते हुए आँखें बंद रखता हूँ
तेरे जमाल का ऐसा मज़ा पड़ा है मुझे
मैं तुझको भूल न पाया यही ग़नीमत है
यहाँ तो इसका भी इमकान लग रहा है मुझे

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चुप्पी / रणजीत

मेरे भीतर उमड़ती है एक कविता
घुमड़ती है एक गाली
मैं उगल देना चाहता हूँ
एक नारे में अपनी सारी घुटन.
मेरी आत्मा कचोटती है
कहती है-कायर ! बोल
पर मैं चुप हूँ.

चुप्पी और चापलूसी में बँट गया है पूरा देश
और मैं चुप्पी चुनता हूँ
पर एक तीसरा विकल्प भी है - जेल
अपने सिर के बालों तक से
लोगों का अधिकार छिन गया है
अब पुलिस ही तय करती है कि वे रहें या न रहें
मैं कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैली हुई
एक लम्बी-चौडी जेल में बंद हूँ
पर और छोटी जेल में जाने से डरता हूँ
क्योंकि वहाँ न जाने कितने बरसों के लिए
अलग कर दिया जायेगा मुझे
अपनी नन्ही बच्ची से
और सबसे बड़ी बात
हो सकता है मुझे आर एस एस का ही सदस्य
घोषित कर दिया जाय
सब कुछ उनके हाथ में है
सत्य भी और न्याय भी
इसलिए मैं चुप्पी चुनता हूँ
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