सोमवार, 5 अप्रैल 2010

हम ने तनहाई को नेमत समझा

हम ने तनहाई को नेमत समझा ।
हिज्र को इश्क़ की दौलत समझा॥
तेरी क़ुरबत उसे मिलती कैसे,
जिसने ग़म को भी मुसीबत समझा॥
ज़ेरे ख़जर हुई लज़्ज़त महसूस,
मानिए-ज़ौक़े-शहादत समझा॥
जब तेरा ज़िक्र ज़ुबाँ पर आया,
हमने मफ़हूमे-इबादत समझा॥
तपते सेहरा में खिले लालओ-गुल,
दिल के टुकड़ों की मैँ क़ीमत समझा॥
सिर्फ़ सुनता रहा तेरी आवाज़,
दिल की धड़कन को तिलावत समझा॥
क़ैद ख़ानों के मनाज़िर देखे,
इसको भी तेरी मशीयत समझा॥
*********
ہم نے تنہائی کونعمت سمجھا
ہجر کو عشق کی دولت سمجھا
تیری قربت اسے ملتی کیسے
جس نے غم کو بھی مصیبت سمجھا
زیر خنجر ہوئی لذت محسوس
معنیئ ذوق شہادت سمجھا
جب ترا ذکر زباں پر آیا
ہم نے مفہوم عبادت سمجھا
تپتے صحرا میں کھلے لالہ و گل
دل کے ٹکڑوں کی میں قیمت سمجھا
صرف سنتا رہا تیری آواز
دل دھڑکنے کو تلا وت سمجھا
قید خانوں کے مناظر دیکھے
اس کو بھی تیری مشیت سمجھا
******

बत्ने-मादर से ही बे-नूर हुआ था पैदा

बत्ने-मादर से ही बे-नूर हुआ था पैदा।
लोग कहते हैं के मजबूर हुआ था पदा॥

हक़ अगर कहता है कोई तो तहे-तेग़ करो,
जाने किस वक़्त ये दस्तूर हुआ था पैदा ॥

क़ल्बे-मूसा को भी शायद मेरा इरफ़ान न था,
मैं तजल्ली हूं लबे-तूर हुआ था पैदा॥

तू-ही-तू सिर्फ़ नज़र आया था मुझको हर सू,
जिस घड़ी ये दिले-रंजूर हुआ था पैदा॥

अर्श से देख के है तेरी ज़मीं कितनी बलन्द,
मैं तेरा हुस्न हूं मग़रूर हुआ था पैदा॥
************
بطن مادر سے ہی بے نور ہوا تھا پیدا
لوگ کہتے ہیں کہ مجبور ہوا تھا پیدا
حق اگر کہتا ہے کوئی تو تھ تیغ کرو
جانے کس وقت یہ دستور ہوا تھا پیدا
قلب موسیٰ کو بھی شاید مرا عرفان نہ تھا
میں تجلی ہوں لب طور ہوا تھا پیدا
تو ہی تو صرف نظر آیا تھا مجھ کو ہر سو
جس گھڑی یہ دل رنجور ہوا تھا پیدا
عرش سے دیکھ کہ ہے تیری زمین کتنی بلند
میں ترا حسن ہوں مغرور ہوا تھا پیدا
**********

बत्ने-मादर=माँ के पेट । बेनूर=अंधा । हक़=सत्य । तहे-तेग़=तलवार के नीचे रखना/क़त्ल कर देना । क़ल्बे मूसा=मूसा के हृदय [हज़रत मूसा यहूदियों और मुसल्मानों के नबी हैं।तूर नामक पहाड़ पर उन्होंने अल्लाह को देखने की इच्छ व्यक्त की और जब वहा>ण एक प्रकाश फूटा [तजल्ली] तो वो उसे बर्दाश्त न कर सके और मूर्च्छित हो गये]। दिले-रजूर=दुखी हृदय । अर्श=अल्लाह का सिंहासन ।

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

मैं सरे-आम खरी बात सुना देता हूं

मैं सरे-आम खरी बात सुना देता हूं।
कितना नादाँ हूं शरारों को हवा देता हूं॥
तेरी तालीम से क़ाएम है फ़ज़ीलत मेरी,
इम्तेहाँ हो तो फ़रिश्तों को हरा देता हूं॥
ये करम तेरा है रखता है जो तू मुझको अज़ीज़,
जुज़ मुहब्बत के तुझे और मैं क्या देता हूं॥
मेरी ही ज़ात है मक़्तूल भी क़ातिल भी हूं मैं,
देख अब चेहरे से हर पर्दा उठा देता हूं॥
कैसा इन्साँ हूं के नफ़रत हो तो शमशीर बनूं,
और उल्फ़त हो तो हर लहज़ा दुआ देता हूं॥
इस सदी में भी हूं आदाब का क़ाएल इतना,
बे अदब को मैं निगाहों से गिरा देता हूं॥
दुश्मनों की भी बुराई कभी अच्छी न लगी,
राज़ कैसा भी हो सीने में दबा देता हूं॥
************
میں سر عام کھری بات سنا دیتا ہوں
کتنا نادان ہوں شراروں کو ہوا دیتا ہوں
تیری تعلیم سے قایم ہے فضیلت میری
امتحان ہو تو فرشتوں کو ہرا دیتا ہوں
یہ کرم ترا ہے رکھتا ہے جو تو مجھ کو عزیز
جز محبت کے تجھے اور میں کیا دیتا ہوں
میری ہی ذات ہے مقتول بھی قاتل بھی ہوں میں
دیکھ اب چہرے سے ہر پردہ اٹھا دیتا ہوں
کیسا انساں ہوں کہ نفرت ہو تو شمشیر بنوں
اور الفت ہو تو ور لحظہ دعا دیتا ہوں
اس صدی میں بھی ہوں آداب کا قایل اتنا
بے ادب کو میں نگاہوں سے گرا دیتا ہوں
دشمنوں کی بھیبرائی کبھی اچھی نہ لگی
راز کیسا بھی ہو سینے میں دبا دیتا ہوں
*********

पाकर तुझे ज़माने से पायी है दुश्मनी

पाकर तुझे ज़माने से पायी है दुश्मनी।
दुनिया ने ख़ूब-ख़ूब निभायी है दुश्मनी॥

कुरसी पे जब था मैं तो हरेक को अज़ीज़ था,
अब तो हरेक की निकल आयी है दुश्मनी॥

हाज़िर थे जानो-माल से हर एक के लिए,
सब कुछ गँवा के हमने कमायी है दुश्मनी्॥

मस्लक के नाम पर कभी मज़हब के नाम पर,
किन पस्तियों में देखिए लायी है दुश्मनी॥

अच्छी बहोत है फिर भी नहीं है हमें पसन्द,
उर्दू ज़बान से हमें भायी है दुश्मनी॥
*********

कौन था उसके सिवा जिसकी सताइश करता।

कौन था उसके सिवा जिसकी सताइश करता।
बुत भी होता वो अगर, उसकी परस्तिश करता॥

लग़ज़िशे-आदमे-ख़ाकी का नतीजा है बशर,
कैसे इनसान न फिर बारहा लग़ज़िश करता॥

अब्दो-माबूद के रिश्ते हैं गुनाहों से बलन्द,
बख़्शता सारे गुनह वो जो मैं ख़्वाहिश करता॥

सामने देख के उसको मैं उसी में गुम था,
लब को था होश कब इतना के वो जुम्बिश करता॥

ग़ैर होता तो न दिलचस्पियाँ होतीं मुझ में,
दोस्त होता न अगर वो तो न साज़िश करता॥

काश बदले हुए हालात का होता एहसास,
कामियाबी के लिए कुछ तो मैं काविश करता।
****************

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

हवाएं आज भी ज़ुल्मत-बदोश चलती है

हवाएं आज भी ज़ुल्मत-बदोश चलती है।
हरेक सम्त फ़िज़ाएं लहू उगलती हैं॥

मैं रेगज़ारों से होकर यहाँ तक आया हूं,
तमाम ज़िन्दगियाँ करवटें बदलती हैं॥

कहाँ वो नदियाँ हैं जो मुद्दतों से प्यासी हैं,
कहाँ वो किरनें हैं जो दिन ढले निकलती हैं॥

पहेन-पहेन के शबो-रोज़ एक ख़स्ता लिबास,
हमारे सामने बेचैनियाँ टहलती हैं॥

हटाओ सीने से अब आहनी चटानों को,
तपिश से दर्द की हर लम्हा ये पिघलती हैं॥

गुज़र गया वो अगर सामने से क्या ग़म है,
ये हसरतें भी अजब हैं के हाथ मलती हैं।
************

रविवार, 28 मार्च 2010

सामने रातिब की थी मक़दार कम्

सामने रातिब की थी मक़दार कम्।
जानवर थे भूक से बेज़ार कम्॥
सायेबानों में रहा करते थे लोग,
थी दिलों को हाजते दीवार कम॥
अब तो है हर शख़्स में बेगानापन,
पहले शायद होते थे अग़यार कम्॥
गिड़गिड़ाने से नहीं कुछ फ़ायदा,
कर नहीं सकता सितम ख़ूंख़्वार कम्॥
हाथ फैलाने लगा हर आदमी,
रह गये हम में बहोत ख़ुददार कम॥
उठता जाता है ज़माने से ख़ुलूस,
मिलते हैं मुख़्लिस हमें हर बार क्म॥
तैरने की ख़्वाहिशें रखते हैं सब,
पर पहोंचते हैं नदी के पार कम्॥
मंज़िलें आसानतर होती गयीं,
राह में आये नज़र अशजार कम॥
धूप शायद सीढियाँ चढ़ने लगी,
दिन के अब बचने के हैं आसर कम्॥
ख़ाक में उसको भी सौंप आया हूं मैं,
जो न करता था कभी ईसार कम्॥
कह रहा हूं ज़िन्दगी को अल्विदा,
होगा इस दुनिया का कुछ तो भार कम्॥
*********

शनिवार, 27 मार्च 2010

मिली थी जो भी विरासत संभाल पाया न मैं

मिली थी जो भी विरासत संभाल पाया न मैं।
ग़मों का बोझ था ऐसा के मुस्कुराया न मैं॥

इनायतें तेरी मुझ पर हमेशा होती रहीं।
तेरी नज़र में कभी हो सका पराया न मैं॥

तेरे हुज़ूर में जब भी मैं सज्दा-रेज़ हुआ
,तेरी रिज़ा के सिवा और कुछ भी लाया न मैं॥

वो तेरी हम्द है जो नगमए दिलो-जाँ है,
कलाम और किसी लमहा गुनगुनाया न मैं॥

तमाम लोग सताइश करें तो क्या होगा,
ये ज़िन्दगी है अबस गर तुझे ही भाया न मैं॥
*************

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

यादें छोड़ आये थे जज़ीरों में

यादें छोड़ आये थे जज़ीरों में।
हम भी थे इश्क़ के असीरों में॥
देखता हूं हरेक का चेहरा,
वो भी शामिल है राहगीरों में॥
नीयतों में ख़राबियाँ आयीं,
ज़ंग सा लग गया ज़मीरों में॥
उसका ही नक़्श क्यों उभरता है,
ज़िन्दगी तेरी सब लकीरों में॥
सच बताना तलाश किसकी है,
आ गये कैसे तुम फ़क़ीरों में॥
शाया कर के जरीदए-हस्ती,
हम नुमायाँ हुए मुदीरों में॥
तुम भी नाहक़ ख़ुलूस ढूँडते हो,
आजकल के नये अमीरों में॥
कितनी गहराइयाँ चुभन की हैं,
ख़ामुशी के नुकीले तीरों में॥
*********

गिरफ़्तारे-बला हरगिज़ नहीं हूं ।

गिरफ़्तारे-बला हरगिज़ नहीं हूं ।
मैं घबराया हुआ हरगिज़ नहीं हूं॥

बिछा दो राह में कितने भी काँटे,
मैं वापस लौटता हरगिज़ नहीं हूं॥

निकल जाऊंगा मैं इन ज़ुल्मतों से,
के मैं इनमें घिरा हरगिज़ नहीं हूं॥

पता है ख़ूब मुझको साज़िशों का,
मैं लुक़्मा वक़्त का हरगिज़ नहीं हूं॥

हरेक दिल की दुआ है ज़ात मेरी,
किसी की बददुआ हरगिज़ नहीं हूं॥
*******