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शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

हवाएं आज भी ज़ुल्मत-बदोश चलती है

हवाएं आज भी ज़ुल्मत-बदोश चलती है।
हरेक सम्त फ़िज़ाएं लहू उगलती हैं॥

मैं रेगज़ारों से होकर यहाँ तक आया हूं,
तमाम ज़िन्दगियाँ करवटें बदलती हैं॥

कहाँ वो नदियाँ हैं जो मुद्दतों से प्यासी हैं,
कहाँ वो किरनें हैं जो दिन ढले निकलती हैं॥

पहेन-पहेन के शबो-रोज़ एक ख़स्ता लिबास,
हमारे सामने बेचैनियाँ टहलती हैं॥

हटाओ सीने से अब आहनी चटानों को,
तपिश से दर्द की हर लम्हा ये पिघलती हैं॥

गुज़र गया वो अगर सामने से क्या ग़म है,
ये हसरतें भी अजब हैं के हाथ मलती हैं।
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