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बुधवार, 18 जून 2008

रसलीन और बिहारी के दोहे / काव्यानुवाद

अमी, हलाहल, मद भरे, स्वेत, श्याम, रतनार
जियत, मरत, झुकि-झुकि परत, जिहि चितवत इक बार
आबे-हयात, ज़हरे-हलाहल, शराबे-नाब
छलके है चश्मे-सुर्खो-सियाहो-सफ़ेद से
जी उट्ठे, जाँ हलाक करे, खो दे अक़्लो-होश
जिसकी तरफ़ वो शोख़, नज़र भरके देख ले
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कहत, नटत, रीझत,खिजत, हिलत-मिळत, लजियात
भरे भौन में करत हैं , नयनन ही तें बात
असरार, ज़िद, फ़रेफ्त्गी , खफ़्गिए-कमाल
इजहारे-इश्क, शर्मो-हया का मज़ाहिरा
खुर्दो-कलां हैं घर में सभी इसके बावजूद
जारी है गुफ्तुगू का निगाहों से सिलसिला
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; शैलेश ज़ैदी

सोमवार, 16 जून 2008

प्रतिष्ठित कुरआन की सूरह 'अल-अस्र' का काव्यानुवाद / शैलेश ज़ैदी

युगों का साक्ष्य देकर कह रहा हूँ मैं
कि है सम्पूर्ण मानव-जाति घाटे में
बचे हैं बस वही,प्रतिबद्ध जिनकी आस्थाएं हैं
सजग हैं कर्म के प्रति जो
ह्रदय की पूरी निष्ठा से
किसी क्षण जो, कभी सच्चाइयों के मार्ग से
विचलित नहीं होते
परिस्थितियाँ भले प्रतिकूल हों,
जो धैर्य मन का खो के, उत्तेजित नहीं होते
युगों का साक्ष्य देकर कह रहा हूँ मैं
कि ऐसे लोग,
घाटों से कभी ग्रंथित नहीं होते.

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