शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

तुम समन्दर के उस पार से।

तुम समन्दर के उस पार से।
जीत लोगे मुझे प्यार से॥

मैं तुम्हें देखता ही रहूं,
तुम रहो यूं ही सरशार से॥

रौज़नों से सुनूंगा सदा,
अक्स उभरेगा दीवार से॥

इन्तेहा है के इक़रार का,
काम लेते हो इनकार से॥

गुल-सिफ़त गुल-अदा बाँकपन,
जाने-जाँ तुम हो गुलज़ार से॥

खे रहा कश्तिए-ज़िन्दगी,
मैं इरादों के पतवार से॥

ग़म में भी मुस्कुराने का फ़न,
सीख लो मेरे अश'आर से॥
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2 टिप्‍पणियां:

स्वप्निल तिवारी ने कहा…

Chhoti behar me shamso qamar...
Kuch sher to kafi pasand aaye
"inteha hai ki iqrar ka"..ye sher hasil e ghazal laga mujhe.. :-)

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ ने कहा…

ग़म में भी मुस्कुराने का फ़न,
सीख लो मेरे अश'आर से॥

Behatareen!