Friday, April 16, 2010

टुकड़े-टुकड़े सुबह हुई था होश कहाँ

टुकड़े-टुकड़े सुबह हुई था होश कहाँ।
दामन में थी आग लगी था होश कहाँ॥

उसके दर पर सज्दा करने आया था,
पेशानी फिर उठ न सकी था होश कहाँ॥

वो आमाल तलब कर बैठा बेमौक़ा,
फ़र्द थी बिल्कुल ही सादी था होश कहाँ॥

दिल के दाग़ नुमायँ हो कर बोल उठे,
बरत न पाया ख़ामोशी था होश कहाँ॥

ज़ख़्मों की तेज़ाबीयत का था एहसास,
चोट थी हल्की या गहरी था होश कहाँ॥
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3 comments:

Shekhar Kumawat said...

ham padte hi rahe ki hosh kho bahte ki or kab khatm ho gai pyari si gazal



bahut acha

shkaher kumawat

http://kavyawani.blogspot.com/

दिलीप said...

वो आमाल तलब कर बैठा बेमौक़ा,
फ़र्द थी बिल्कुल ही सादी था होश कहाँ॥

bahut khoob sir...
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

वीनस केसरी said...

ज़ख़्मों की तेज़ाबीयत का था एहसास,
चोट थी हल्की या गहरी था होश कहाँ॥
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बहुत गहरी चोट है, दिखता कम है दुखता ज्यादा है
बहुत खूब