बुधवार, 28 अप्रैल 2010

काश मेरे पास कुछ होता सुबूत

काश मेरे पास कुछ होता सुबूत।
दे न पाया बेगुनाही का सुबूत॥
हो चुका है नज़्रे-आतश सारा जिस्म,
ये सुलगती राख है ज़िन्दा सुबूत्॥
क़ाज़िए-दिल वक़्त का नब्बाज़ है,
देख लेता है ये पोशीदा सुबूत्॥
इश्क़े-मजनूँ क्यों न होता लाज़वाल,
दे रही है आजतक लैला सुबूत्॥
कैसे-कैसे हैं नज़रयाती तिलिस्म,
आज लायानी है जो कल था सुबूत्॥
लोग ख़ालिक़ के भी मुनकिर हो गये,
उसके होने का न जब पाया सुबूत्॥
शायरी पैग़म्बरी का है बदल,
शेर हैं ज़रतुश्त के अच्छा सुबूत्॥
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