कल थीं रसमय भूल गयी हैं ।
कविताएं लय भूल गयी हैं॥
अहंकार-गर्भित सत्ताएं,
विजय परजय भूल गयी हैं॥
समय खिसकता सा जाता है,
कन्याएं वय भूल गयी हैं॥
लगता है अपनी ही साँसें,
अपना परिचय भूल गयी हैं॥
संघर्षों में रत पीड़ाएं,
मन का संशय भूल गयी हैं॥
हाथ की रेखाएं भी शायद,
अपना निर्णय भूल गयी हैं॥
चिन्ताएं बौलाई हुई हैं,
मंज़िल निश्चय भूल गयी हैं॥
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2 comments:
बहुत अच्छी कविता।
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आप इसी प्रकार रचनाधर्मिता को बनाये रखें. धन्यवाद.
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