Monday, April 26, 2010

गीतों ने किया रात ये संवाद ग़ज़ल से

गीतों ने किया रात ये संवाद ग़ज़ल से।
हुशियार हमें रहना है इतिहास के छल से॥

विश्वास न था मन में तो क्यों आये यहाँ आप,
इक पल में हुए जाते हैं क्यों इतने विकल से॥

क्या आगे सुनाऊं मैं भला अपनी कहानी,
प्रारंभ में ही हो गये जब आप सजल से॥

मुम्ताज़ के ही रूप की आभा है जो अब भी,
आती है छलकती सी नज़र ताज महल से॥

ये सब है मेरे गाँव की मिटटी का ही जादू,
रखता है मुझे दूर जो शहरों की चुहल से॥

सच पूछो तो मिथ्या ये जगत हो नहीं सकता,
कब मुक्त हुआ है कोई संसार के छल से॥
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5 comments:

sandhyagupta said...

ये सब है मेरे गाँव की मिटटी का ही जादू,
रखता है मुझे दूर जो शहरों की चुहल से

Bahut achche.Likhte rahiye.

मनोज कुमार said...

एक बहुत अच्छी ग़ज़ल पढ़ने को मिली युग-विमर्श पर।

Asha Joglekar said...

सच पूछो तो मिथ्या ये जगत हो नहीं सकता,कब मुक्त हुआ है कोई संसार के छल से॥************
सुंदर रचना ।

कविता रावत said...

सच पूछो तो मिथ्या ये जगत हो नहीं सकता,
कब मुक्त हुआ है कोई संसार के छल से॥

....क्या करें ! मानव का स्वभाव ही कुछ ऐसा है ..........
छल करने वालों को यही सब तो अच्छा लगता है.....
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
हार्दिक शुभकामनाएं

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल है ... हर शेर बेहतरीन है ...
इनमे से भी ये शेर मुझे बहुत अच्छा लगा -
मुम्ताज़ के ही रूप की आभा है जो अब भी,
आती है छलकती सी नज़र ताज महल से॥