मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

जब हवाएं शिथिल पड़ गयीं

जब हवाएं शिथिल पड़ गयीं।
मान्यताएं शिथिल पड़ गयीं॥
ऐसे साहित्य कर्मी जुड़े,
संस्थाएं शिथिल पड़ गयीं॥
शून्य उत्साह जब हो गया,
भावनाएं शिथिल पड़ गयीं॥
गीत संघर्ष के सो गये,
वेदनाएं शिथिल पड़ गयीं।
शोर संसद भवन में हुआ,
शारदाएं शिथिल पड़ गयीं॥
हम दलित भी न कहला सके,
थक के हाएं शिथिल पड़ गयीं॥
सुनके मेरी ग़ज़ल कितनी ही,
ऊर्जाएं शिथिल पड़ गयीं
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2 टिप्‍पणियां:

ZEAL ने कहा…

bahut sundar rachna !

Dr. Amar Jyoti ने कहा…

भाव और शिल्प- दो्नों ही अद्भुत,अनूठे, अनुपम।
हार्दिक बधाई।