मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

ये क़ाफ़ेला ख़्वाबों का कभी काम न आया

ये क़ाफ़ेला ख़्वाबों का कभी काम न आया।
सरमाया उमीदों का कभी काम न आया॥

अच्छा है के था अपनी ही कोशिश पे भरोसा,
कुछ मशवेरा यारों का कभी काम न आया॥

सूरज की शुआएं मेरे आँगन में न उतरीं,
मंसूबा उजालों का कभी काम न आया॥

लिप्टी थी मेरे जिस्म से यूं गाँव की मिटटी,
शेवा कोई शहरों का कभी काम न आया॥

दौलत की फ़रावानियों के बीच था मुफ़लिस,
अख़लाक़ भी अपनों का कभी काम न आया॥
***********

1 टिप्पणी:

दिलीप ने कहा…

लिप्टी थी मेरे जिस्म से यूं गाँव की मिटटी,
शेवा कोई शहरों का कभी काम न आया॥

sir in panktiyon ne dil jeet liya...