सोमवार, 18 जनवरी 2010

नयी ज़िन्दगी / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

नयी ज़िन्दगी

इसी तर्ह गर्मी की शफ़्फ़ाफ़ रातों में,
ऐ चान्द !
करता रहे तू अगर
रोज़ चान्दी की बारिश,
इसी तर्ह वो शोख़ लड़का
सुनाता रहे गर तुझे
रोज़ अपनी मुहब्बत के नग़मे,
इसी तर्ह निकलें वो जोड़े अगर
दूधिया रोशनी में
जवाँ आरज़ूओं के ख़ुशलह्न बोसे
तुझे नज़्र करते हुए
और इसी तर्ह गर वो ज़ईफ़ा
निकल कर शुआओं से लब्रेज़ आँगन में
अंगूर के सब्ज़ ख़ोशों को
ख़ुशरग यादों से भरती रहे,
मैं तुझे अपनी नज़्मों में ऐ चान्द !
देता रहूंगा नयी ज़िन्दगी।
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गुमशुदा बचपन / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

गुमशुदा बचपन
हमारा बचपन रहा हो जैसा भी
ख़ूब्सूरत बहोत था शायद।
हमारे छोटे से शह्र में
कंकरों की कच्ची सड़क पे कुछ लैम्प पोस्ट होते थे,
जिनकी मद्धम सी रोशनी में भी
हमको दुशवारियों का अहसास कुछ नहीं था।
घरों में मिटटी के चूल्हे थे,
जिनको सुबह होते ही लीप कर ताज़ादम बना देती थीं
सुघड़ औरतें घरों की।
कभी हमें नाशते में मिलती थी
रोग़नी मीठी सुर्ख़ टिकिया,
कभी थी बेसन की प्याज़ आलूद, हल्की नमकीन
कोयले पर सिकी हुई ज़र्द-ज़र्द रोटी,
डुबो के घी की कटोरियों में हम अपने लुक़मे,
ख़ुशी-ख़ुशी, बैठ कर वहीं चूल्हे से ही लग कर,
मज़े से खाते थे।
पढ़ने-लिखने क शौक़ ऐसा था,
लालटैनों में या चराग़ों की रोशनी में भी,
कोई दिक़्क़त कभी न आयी।
सुलगती गर्मी की दोपहर में,
सुनाती थीं दादी जब कहानी,
तो शाहज़ादों की ज़िन्दगी के कई मसाएल,
हमें भी उल्झन में डाल देते थे,
और परियों का तख़्त पर बैठकर फ़लक से ज़मीं पे आना,
कुछ ऐसा लगता था,
गुदगुदी सी दिलों में होती थी,
हम भी परियों के साथ ख़ुद को,
बलंदियों पर फ़लक की महसूस करने लगते थे,
लू भरी दोपहर की गर्मी का
कोई अहसास तक नहीं था।
मगर उसी शह्र में गया मैं
जब एक मुद्दत पे,
शह्र दफ़नाय जा चुका था,
हमारा बचपन भी उसके हमराह
गुमशुदा था,
कहीं भी मदफ़न का उसके नामो-निशाँ नहीं था।
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शनिवार, 2 जनवरी 2010

अगर ऐसा हो / शेल सिल्वरस्टीन [1930- 1999]

अगर ऐसा हो ?

कल की शब जब यहाँ

मैं था लेटा हुआ सोंच में

मेरे कानों में गर ऐसा हो ? के सवालात कुछ

रेंगने से लगे ।

सारी शब मुझको सच पूछिए तो

परीशान करते रहे ।

और गर ऐसा हो का ये फ़रसूदा नगमा

कोई गुनगुनाता रहा ।

क्या हो गर ऐसा हो

के मैं स्कूल में

बहरा हो जाऊं पूरी तरह ?

क्या हो गर ऐसा हो

बन्द कर दें वो स्वीमिंग का पूल

कर दें पिटाई मेरी ?

क्या हो गर ऐसा हो

मेरे प्याले में हो ज़ह्र

मैं दमबख़ुद हो के रोने लगूं ?

क्या हो गर हो के बीमार मैं चल बसूं ?

क्या हो गर मुझको लज़्ज़त का एहसास कुछ भी न हो ?

क्या हो गर

सब हरे रग के बाल उग आयें सीने पे

मुझको पसन्दीदा नज़रों से

देखे न कोई कहीं ?

क्या हो गर कोई बिजली कड़कती हुई

मुझपे ही गिर पड़े ?

क्या हो गर मेरे इस जिस्म की

बाढ रुक जाये

सर मेरा छोटा स होता चला जाय

ज़ालिम हवा

सब पतगें मेरी फाड़ दे ?

क्या हो गर जंग छिड़ जाये

माँ बाप मांगें तलाक़

और हो जायें इक दूसरे से अलग ?

क्य हो गर

मेरी बस आये ताख़ीर से ?

क्या हो गर दाँत मेरे न सीधे उगें ?

फाड़ डालूं मैं अपने सभी पैन्ट

क़ासिर रहूं सीखने से कोई रक़्स ता ज़िन्दगी ?

यूं बज़ाहिर तो सब ठीक है

रात का वक़्त लेकिन अगर ऐसा हो

के सवालात की ज़र्ब से

करत रहता है मजरूह अब भी मुझे।

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शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

ख़ुदा का पहिया / शेल सिल्वरस्टीन / तर्जुमा : ज़ैदी जाफ़र रज़ा

ख़ुदा का पहिया

मुहब्बत आमेज़ मुस्कुराहट के साथ मुझसे

ख़ुदा ने पूछा था

चन्द लमहों को तुम ख़ुदा बन के

इस जहाँ को चलाना चाहोगे ?

मैंने हाँ ठीक है मैं कोशिश करूंगा कहकर

ख़ुदा से पूछा था

किस जगह बैठना है ?

तनख़्वाह क्या मिलेगी ?

रहेंगे अवक़ात लच के क्या ?

मिलेगी कब काम से फ़राग़त ?

ख़ुदा ने मुझसे कहा

के लौटा दो मेरा पहिया,

समझ गया मैं

के तुम अभी अच्छी तर्ह

तैयार ही नहीं हो।"

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एक गन्दा कमरा / शेल सिल्वर्स्टीन / तर्जुमा ; ज़ैदी जाफ़र रज़ा

एक गन्दा कमरा

चाहे जिस का भी कमरा हो ये

शर्म लाज़िम है उस्के लिए

लैम्प पर झूलता है यहाँ

एक अन्डरवियर

रेनकोट उसका, पहले से बेहद भरी,

उस जगह

वो जो कुरसी है उस पर पड़ा है,

और कुरसी नमी,गन्दगी से है बोझल,

उसकी कापी दरीचे की चौखट पे औन्धी पड़ी है,

और स्वेटर ज़मीं पर पड़ा है अजब हाल में,

उसका स्कार्फ़ टी वी के नीचे दबा है

और पैन्ट उसके

दरवाज़े पर उल्टे-पुल्टे टंगे हैं,

उसकी सारी किताबें ठुंसी हैं यहाँपर ज़रा सी जगह में

और जैकेट वहाँ हाल में रह गयी है

एक बदरंग सी छिपकिली

उसके बिस्तर पे लेटी हुई सो रही है

और बदबू भरे उसके मोज़े हैं दीवार की कील पर

चाहे जिसका भी कमरा हो ये

शर्म लाज़िम है उसके लिए

वो हो डोनाल्ड, राबर्ट या हो विली ?

ओह ! तुम कह रहे हो ये कमरा है मेरा

मेरे दोस्त सच कहते हो

जानता था ये मैं

जाना-पहचाना सा मुझको लगता था ये।

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नया वर्ष 2010

नया वर्ष 2010

ये नया वर्ष आता है क्यों
पहले जैसी ही ठिठुरन भरी सूर्य की रश्मियाँ
धूप अलसाई अलसाई सी
ओढे कुहरे की चादर चली आती है
जाने पीड़ा है क्या
लेती है हिचकियाँ
भरती है सिस्कियाँ,
घर के चूल्हे से उठता था कल जिस तरह,
आज भी वैसा ही है
उठ रहा है धुआँ।
कुछ नया तो नहीं,
इस नये वर्ष के
आ धमकने से कुछ भी हुआ तो नहीं,
ये नया वर्ष आता है क्यों ?
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सभी पाठक मित्रों और उनके संपूर्ण परिवार को नव वर्ष की मंगल कामनाएं

गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

कैसी चहल-पहल सी है ख़ाली मकान में

कैसी चहल-पहल सी है ख़ाली मकान में ।
किस-किस की गूंजती है सदा सायबान में॥

मसरूफ़ अपनी जान बचाने में हैं सभी,
लेता नहीं कोई भी किसी को अमान में ॥

तालीम तो है तमग़ए आराइशे-ख़याल,
ताजिर सियासियात के हैं ख़ान्दान में ॥

राइज न होने देंगे इसे मुल्क में कभी,
कितनी मिठास क्यों न हो उर्दू ज़बान में ॥

जिन की जड़ें ज़मीन की गहराइयों में हैं,
ऊँची उड़ानें भरते नहीं आसमान में ॥

आँखें सजा रही हैं मनाज़िर नये-नये,
वुसअत बहोत है पलकों के इस सायबान में॥
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बुधवार, 30 दिसंबर 2009

मेरी तो उस समूह में कुछ भूमिका न थी।

मेरी तो उस समूह में कुछ भूमिका न थी।

फिर मैं वहाँ था क्यों, ये मुझे सूचना न थी॥

हर व्यक्ति कट गया है अब अपने कुटुंब से,

लोगों के पास पहले ये जीवन-कला न थी॥

चिन्तन फलक था दोहों का नदियों से भी विशाल,

अभिव्यक्ति के लिए कोई ऐसी विधा न थी॥

मुझको समय ने कर ही दिया संप्रदाय मुक्त,

अच्छा हुआ, वो मेरी कोई सम्पदा न थी॥

व्यवहार मेरा सब के लिए स्नेह पूर्ण था,

शायद इसी से मन में कोई भी व्यथा न थी॥

मैं ने तिमिर को दीप की लौ से जला दिया,

पथ में कभी मेरे कोई नीरव निशा न थी॥

मैं ने विपत्तियों में भी हंस-हंस के बात की,

जीवन सुखद हो ऐसी कोई कल्पना न थी॥

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शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

फ़रशे-ज़मीं पे चाँद की क़न्दील देख कर

फ़रशे-ज़मीं पे चाँद की क़न्दील देख कर ।
हैराँ है आसमान कोई झील देख कर ॥

मुझ में ही रह के मुझ से है वो महवे-गुफ़्तुगू,
ख़ुश हूं मैं आर्ज़ूओं की तकमील देख कर ॥

नाज़ाँ है वो दरख़्त ख़ुद अपने वुजूद पर,
अपनी जड़ों की क़ूवते-तरसील देख कर ॥

मुमकिन है लौट जाऊं मैं फिर बचपने की सम्त,
यादों के सर पे ख़्वाबों की ज़ंबील देख कर ॥

नाकामयाबियों में भी वो टूटता नहीं,
हर मरहले की एक नई तावील देख कर ॥

इरफ़ाने-नफ़्स कुछ तो हुआ है मुझे ज़रूर,
ख़ालिक़ को अपनी ज़ात में तहलील देख कर्॥

नैज़े की नोक पर भी रहा हक़ ही सर बलन्द,
हासिल हुआ ये जग की तफ़सील देख कर ॥
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फ़रशे-ज़मीं=धरती, क़्न्दील=दीपक, तकमील= पूर्ण होन, वुजूद=अस्तित्त्व, क़ूवते-तरसील=संप्रेषण-क्षमता, ज़ंबील=पिटारी, मरहले=कठिन काम, तावील=स्पष्टीकरण, इरफ़ाने-नफ़्स=आत्मज्ञान, तहलील=घुला हुआ,

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

वो हादसा हुआ उस रोज़ शाम से पहले ॥

वो हादसा हुआ उस रोज़ शाम से पहले ॥
के जश्न सोग बना, धूम-धाम से पहले ॥

हमारे ज़हनों में जमहूरियत की शीशगरी,
न होती थी कभी इस इहतमाम से पहले ॥

ग़ज़ल में जूए-रवाँ जैसी ताज़गी थी कहाँ,
जनबे-मीर के दिलकश कलाम से पहले ॥

ख़ुमार रिन्दों की आँखों में रक़्स करता था,
गज़क थी हुस्न की मौजूद जाम से पहले॥

ख़बर न थी मुझे उस की गली में आया हूं,
बस एक शोला सा लपका क़याम से पहले॥

उसी के इश्क़ ने घर घर किया मुझे रुस्वा,
फ़साना पहोंचा मेरा, मेरे नाम से पहले ॥
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