बुधवार, 17 जून 2009

ज़रूरीयात हैं महदूद, ख्वाहिशें हैं बहोत.

ज़रूरीयात हैं महदूद, ख्वाहिशें हैं बहोत.
दिलो-दिमाग की आपस में क्यों ज़िदें हैं बहोत.

ये घाटियाँ जो हैं बर्फ़ीली वादियों से घिरी,
बदलते मौसमों की इन में आहटें हैं बहोत.

हमारे कारवां जिन रास्तों से गुज़रेंगे,
लुटेरे सुनते हैं उन रहगुज़ारों में हैं बहोत.

ये रिश्तेदारियां कैसी हैं खानदानों की,
के खून एक है फिर भी अदावतें हैं बहोत.

पड़ोसियों में बजाहिर तो बात होती है,
मगर है लोगों का कहना के चाश्मकें हैं बहोत.

न सिर्फ़ मस्लकों में लोग हो गए तक़सीम,
छुपी दिलों में सभी के कुदूरतें हैं बहोत.

चुनी है अपने लिए हक़ की राह तुमने अगर,
रहे ख़याल यहाँ आज़्माइशें हैं बहोत.
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ज़रूरीयात = आवश्यकताएं, महदूद = सीमित, रहगुज़ारों = रास्तों, अदावतें = शत्रुताएं, मस्लकों = सम्प्रदायों, तकसीम = विभाजित, कुदूरतें = मलिनताएँ, आज़माइशें = परीक्षाएं.

मंगलवार, 16 जून 2009

दिलों में ज़ख्म था, लब मुस्कुराते रहते थे.

दिलों में ज़ख्म था, लब मुस्कुराते रहते थे.
हम अपना घर इसी सूरत सजाते रहते थे.

हरेक गाम पे ये ज़िन्दगी थी ज़ेरो-ज़बर,
तगैयुरात हमें आज़माते रहते थे.

वो चाहते थे भरम हो किसी की आहट का,
हवा के झोंके थे, परदे हिलाते रहते थे.

तअल्लुकात न थे, रस्मो-राह फिर भी थी,
तसव्वुरात में हम आते-जाते रहते थे.

ये बात सच है के हम खस्ता-हाल थे, लेकिन,
गिरे-पड़ों को हमेशा उठाते रहते थे.

न देख पाये कभी भी किसी की तश्ना-लबी,
मयस्सर आब था जितना पिलाते रहते थे.

ये जानते हुए इम्काने-रौशनी कम है,
हवा की ज़द में भी शमएँ जलाते रहते थे.
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सब कुछ रवां-दवाँ है बज़ाहिर सुकून है।

सब कुछ रवां-दवाँ है बज़ाहिर सुकून है।

बस ज़िन्दगी गराँ है बज़ाहिर सुकून है.

काग़ज़ की कश्तियों में हैं साँसों के क़ाफ़्ले,

दरिया हरीफ़े-जाँ है बज़ाहिर सुकून है.

चस्पाँ दिलों के दर पे है दहशत का इश्तेहार,

हर शख्स बे-ज़ुबाँ है बज़ाहिर सुकून है.

ज़ेरे-लिबासे-तक़वा सियः-कारियाँ हैं आम,

ईमान खूँ-चकाँ है बज़ाहिर सुकून है.

अंदेशए - शरारते - बे-जा फ़िज़ा में है,

मंज़र शरर - फ़िशां है बज़ाहिर सुकून है।

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रवां-दवाँ = गतिशील, गराँ = महँगी, हरीफ़े-जाँ = जान का दुश्मन, चस्पाँ =चिपका हुआ, इश्तेहार =विज्ञापन, ज़ेरे-लिबासे-तक़वा =सात्विकता के वस्त्रों के नीचे, सियः कारियाँ = काले धंधे, खूँ-चकाँ = खून से भरा हुआ, अंदेशए-शरारते-बेजा = बेतुके उपद्रव की आशंका, शरर-फ़िशां = चिंगारियों से भरा हुआ।

सोमवार, 15 जून 2009

अबतक साथ निभाया है तो चन्द दिनों की ज़हमत और.
मंज़िल साफ़ नज़र आती है, थोडी सी बस हिम्मत और.

साग़रो-सहबा की सरगोशी से बिल्कुल बे-पर्वा थे,
ख्वाब सजा लेते थे बैठे-बैठे थी वो ताक़त और.

पेड़ों का झुरमुट था, झील का नीला-नीला पानी था,
आँखों की कश्ती में सैर सपाटों की थी लज्ज़त और.

कितने ही औसाफे-हमीदा देख रहे थे हम में लोग,
किसको पता था फूल खिलाएगी तदबीरे-मशीयत और.

अपनी ज़ात से ऊपर उठकर उसके वुजूद में गुम था मैं,
इस एहसास में नगमा-रेज़ थी सुहबत और शराफत और.

कासए-सर में भर के शराबे-इश्क़ पियो तो बात बने,
मुह्र-बलब रह जाए शरीअत, देख के रंगे तरीक़त और.
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साग़रो-सहबा =प्याला और मदिरा, सरगोशी = कानाफूसी, औसाफे-हमीदा = सत्व-गुण, तदबीरे-मशीयत = दैव-शक्ति के प्रबंध, ज़ात = व्यक्तित्व, वुजूद = अस्तित्व, कास'ए सर = सर का प्याला, मुह्र-बलब = मौन, शरीअत =इस्लामी धर्म-संहिता, तरीक़त = ब्रह्म-ज्ञान,

सभी आबद्ध उत्तर-आधुनिक अनुशासनों से हैं.

सभी आबद्ध उत्तर-आधुनिक अनुशासनों से हैं.
ये सच्चाई है सब की सोच के आयाम बदले हैं.

चढाते थे कभी श्रद्धा से गंगाजल जो सूरज को,
उन्हीं हाथों ने उसकी ऊर्जा के मार्ग खोजे हैं.

स्वयं मैं अक्षरों को पढ़ना चाहूँ पढ़ नहीं सकता,
मेरी जीवन कथा के पृष्ठ सब पानी में डूबे हैं.

कलाओं में कोई लालित्य कैसे ढूंढ पायेगा,
फलक की भंगिमाओं के सभी तेवर अनोखे हैं.

अहिंसा शब्द सुनने में बहोत अच्छा सा लगता है,
मगर व्यवहार में हिंसा के हर सू बोलबाले हैं.

ये शैक्षिक योग्यताएं सांसदों को कब अपेक्षित हैं,
वो शिक्ष और है जिस से चुनावों में वो जीते हैं.

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रविवार, 14 जून 2009

अभिशप्त अकिंचन अमर ज्योति : डायरी के पन्ने 6



रात के साढे ग्यारह बज रहे थे और आँखों में हलकी-हलकी सी नींद झांकने लगी थी. मेज़ से एक ग़ज़ल-संग्रह उठाकर बिस्तर पर लेट गया. कुछ पन्ने उल्टे थे कि एक शेर पर दृष्टि अटक गयी - कोई पूछे मेरा परिचय तो यही कह देना / एक अभिशप्त अकिंचन के सिवा कुछ भी नहीं. शायार का अकिंचन और अभिशप्त होना और फिर भी अश'आर से अंतस में सहज ही प्रवेश कर जाने वाली एक दूधिया अमर ज्योति के एहसास से गुज़रना आर्श्चय जनक था. अकिंचन होना अभिशप्त होना है या अभिशप्त होने में अकिंचन होने का आभास है ! कुछ भी हो, परिस्थितियाँ यदि किसी को अभिशप्त और अकिंचन बना दें तो उसके अंतर-चक्षु स्वतः ही खुल जाते हैं, अपनी पूरी ज्योति के साथ. और इस ज्योति में अमरत्व के स्वरों की धड़कनें पढ़ी जा सकती हैं.
शायर सदियों और लम्हों को माद्दीयत के फ़ीते से नहीं नापता. विध्वंस और रचनात्मकता से क्रमशः इनमें संकुचन और विस्तार आ जाता है. यह प्रक्रिया खुली आँखों से देखने से कहीं अधिक एहसास के राडार पर महसूस की जा सकती है. बात सामान्य सी है किन्तु उसका प्रभाव सामान्य नहीं है - सदियाँ उजाड़ने में तो दो पल नहीं लगे / लम्हे संवारने में ज़माना गुज़र गया. यह विध्वंसात्मक प्रक्रिया जो सदयों को पल-दो-पल में उजाड़ कर रख देती है मंदिरों और मस्जिदों में शरण लेती है और सूली तथा कारावास के रास्ते खोल देती है.रोचक बात ये है कि अपने इस कृतित्व को यह खिरदमंदी का नाम देती है. बात भी ठीक है -जुनूँ का नाम खिरद पड़ गया खिरद का जुनूँ / जो चाहे आपका हुस्ने-करिश्मा-साज़ करे. यहाँ भी शायर की यही समस्या है - इधर मंदिर उधर मस्जिद, इधर ज़िन्दाँ उधर सूली / खिरद-मंदों की बस्ती में जुनूँ वाले किधर जाएँ. इन परिस्थितियों में अहले-जुनूँ की धार्मिक आस्थाएं यदि एक प्रश्न-चिह्न बनकर खड़ी हो जाएँ तो आर्श्चय क्या है - यूँ तो इस देश में भगवान बहोत हैं साहब / फिर भी सब लोग परीशान बहोत हैं साहब. परिस्थितियों का अंतर-मंथन करना एक जोखिम भरा कार्य है. किन्तु यह अकिंचन और अभिशप्त शायर, जिसकी आँखों में कल का सपना है, खतरों से कतराता नहीं, उनका सामना करता है. और एक सीधा सवाल दाग़ देता है - चीमटा, छापा-तिलक, तिरशूल, गांजे की चिलम / रहनुमा अब मुल्क के इस भेस में आयेंगे क्या ? या फिर - थी खबर नोकीले करवाए हैं सब हिरनों ने सींग / भेड़िया मंदिर में जा पहोंचा, भजन गाने लगा.
ग़ज़ल की शायरी बहुत आसान नहीं है.मिसरे बराबर कर लेना ही ग़ज़ल के शिल्प की परिधियों को समझने के लिए पर्याप्त नहीं. ग़ज़ल का फलक माशूक से बात-चीत की इब्तिदाई सरहदें बहुत पहले पार कर चुका है. आज उसका वैचारिक फलक उन सभी संस्कारों को अपने भीतर समेटे हुए है जो इस उत्तर आधुनिक युग की मांग को पूरा करते हैं. किन्तु ग़ज़ल का धीमे स्वरों में बजने वाला साज़ अपने प्रभाव में बादलों का गर्जन और दामिनी की चमक समेट लेने में पूरी तरह सक्षम है. हाँ शब्दों का मामूली सा कर्कश लहजा इसके शरीर पर ही नहीं इसकी आत्मा पर भी खरोचें बना देता है. मुझे यह देख कर अच्छा लगा कि है आँखों में कल का सपना है का रचनाकार इस तथ्य से परिचित भी है और इसके प्रति जागरूक भी.
अभी कल यानी चौदह जून की बात है, दिन के ग्यारह बजे थे मैं अपनी बेटी को स्टेशन छोड़ने के लिए निकलने वाला था. अचानक मोबाइल की घंटी बजी. हेलो, मैं अमर ज्योति बोल रहा हूँ. मुझे शैलेश जी से बात करनी है.
जी मैं शैलेश हूँ.
फिर मेरे और अपने ब्लॉग के सन्दर्भ. अलीगढ़ में ही आवास होने की चर्चा. किसी समय घर आने की पहल. ग़ज़ल संग्रह के छपने की सूचना.
शाम के साढे पांच बजे थे. दरवाज़े पर बेल हुयी. पहले एक भद्र महिला का कोमल स्वर -क्या 55 नंबर का मकान यही है ? जी हाँ. क्या प्रोफेसर शैलेश जैदी ... जी मैं ही हूँ, अन्दर तशरीफ़ लायें. और फिर साथ में एक सज्जन का सहारे से आगे बढ़ना. आदाब मैं अमर ज्योति हूँ.
इस तरह मेरी पहली और अभी तक की आख़िरी मुलाक़ात डॉ. अमर ज्योति नदीम और उनकी पत्नी से हुयी. आँखों में कल का सपना है, ग़ज़ल संग्रह जिसका विमोचन होना अभी शेष है, साथ लाये थे. सब कुछ बहोत अच्छा लगा. ढेर सारी बातें हुयीं. माहौल कुछ गज़लमय सा हो गया, और फिर खुदा हाफिज़ की औपचारिकता.
अभीतक मैंने जितने भी हिंदी के ग़ज़ल-संग्रह पढ़े हैं, दो-एक अपवादों को छोड़ दिया जाय, तो शायद ही कोई रचनाकार ऐसा हो जिसकी हर ग़ज़ल में दो-एक शेर मन को छू जाते हों. डॉ. अमर ज्योति नदीम भी ऐसे ही एक अपवाद हैं. मतले तो विशेष रूप से उनके बहुत सशक्त हैं. कुछ-एक उदाहरण देकर अपनी बात की पुष्टि करना चाहूँगा -नहीं कोई भी तेरे आस-पास क्यों आखिर / सड़क पे तनहा खडा है उदास क्यों आखिर, कभी हिंदुत्व पर संकट, कभी इस्लाम खतरे में / ये लगता है के जैसे हों सभी अक़्वाम खतरे में, पसीने के, धुँए के जंगलों में रास्ता खोजो / गये वो दिन के जुल्फों-गेसुओं में रास्ता खोजो, कह गया था मगर नहीं आया / वो कभी लौट कर नहीं आया, यही आँख थी के जनम-जनम से जो भीगने को तरस गयी / इसी खुश्क आँख की रेत से ये घटा कहाँ से बरस गयी, दरो-दरीचओ-दीवारो-सायबान था वो / जहां ये उम्र कटी, घर नहीं, मकान था वो, मुद्दतों पहले जहां छोड़ के बचपन आये / बारहा याद वो दालान वो आँगन आये इत्यादि.
अमर ज्योति नदीम की विशेषता ये है कि उनके कथ्य की पूँजी बहुत सीमित नहीं है. रिक्शे वाले से लेकर किसान और गोबर बीनती लड़कियों तक, पंक्ति में लगे हुए मज़दूरों के जमघट से लेकर बेरोजगारों की चहलक़दमी तक उनकी दृष्टि सभी की खैरियत पूछना चाहती है. कुछ अशआर देखिये -जेठ मॉस की दोपहरी में जब कर्फ्यू सा लग जाता है / अमलतास की छाया में सुस्ता जाते हैं रिक्शे वाले, कैसा पागल रिक्शे वाला / रिक्शे पर ही सो जाता है, ये कौन कट गया पटरी पे रेल की आकर / सुना है क़र्ज़ में डूबा कोई किसान था वो, गोबर भी बीनें तो सूखा क्या मिलता है / आँखें ही जलती हैं चूल्हा सुलगाने से, चले गाँव से बस में बैठे और शहर तक आये जी / चौराहे पर खड़े हैं शायद काम कोई मिल जाए जी, महकते गेसुओं के पेचोखम गिनने से क्या होगा / सड़क पर घुमते बेरोजगारों को गिना जाए,
ज़िन्दगी की चहारदीवारियों के इर्द-गिर्द जो कंटीला यथार्थ पसरा पड़ा है डॉ. अमर ज्योति नदीम कि नज़रें उससे अपना दमन नहीं बचातीं, बल्कि कुछ रुक कर, ठहर कर उसे अपने दामन में भर लेने का प्रयास करती हैं. शायर की यही अभिशप्त अकिंचन पीडा उसके दर्द में ज्योति का संचार करती है और यह ज्योति अमरत्व के पायदान पर खड़ी, आँखों में कल का सपना संजोती दिखाई देती है. ऐसे ही कुछ शेर उद्धृत कर के अपनी बात समाप्त करता हूँ-
पत्थर इतने आये लहू-लुहान हुयी / ज़ख्मी कोयल क्या कूके अमराई में, दिल के दरवाज़े पे दस्तक बारहा होती रही / हमसे मिलने को मगर आया वहां कोई नहीं, कोई सुनता नहीं किसी की पुकार / लोग भगवान हो गये यारो, कमरे में आसमान के तारे समा गये / अच्छा हुआ के टूट के शीशा बिखर गया, उसे पडोसी बहोत नापसंद करते थे / वो रात में भी उजालों के गीत गाता था, वो खो गया तो मेरी बात कौन समझेगा / उसे तलाश करो मेरा हमज़बान था वो, सुना तो था के इसी राह से वो गुज़रे थे / तलाश करते रहे नक्शे-पा कहीं न मिला, बडकी हुयी सयानी उसकी शादी की क्या सोच रहे हो / दादी पूछेंगी और उनसे कतरायेंगे मेरे पापा, उधर फतवा कि खेले सानिया शलवार में टेनिस / ज़मीनों के लिए हैं इस तरफ श्रीराम खतरे में.
मुझे यकीन है कि डॉ. अमर ज्योति नदीम भविष्य में और भी अच्छी ग़ज़लें कहेंगे. मेरी शुभ-कामनाएं उनके साथ हैं.
शायर : डॉ. अमर ज्योति नदीम, ग़ज़ल-संग्रह : आँखों में कल का सपना है, प्रकाशक : अयन प्रकाशन, महरौली, नयी दिल्ली. मूल्य : एक सौ बीस रूपये.
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सोमवार, 27 अप्रैल 2009

ये ग़लत है के वहां हाशिया-आराई न थी.

ये ग़लत है के वहां हाशिया-आराई न थी.
देखती जो उसे आँखों में वो बीनाई न थी.

शुक्र है उसने बयानों में तवाज़ुन बरता,
कुछ भी कह देता वो उसकी कोई रुसवाई न थी.

ऐसी फिकरों में बलंदी नज़र आती कैसे,
जिनकी बुनियाद में मुतलक कोई गहराई न थी.

वो महज़ मेरे तसौव्वुर का करिश्मा निकला,
दर हकीकत कोई पैकर कोई अंगडाई न थी.

किस तरह सामने से हो गया मंज़र ओझल,
आँख हमने तो किसी पल कभी झपकाई न थी.

मेरे आँगन में ही वो पेड़ खडा था लेकिन,
फल गिरे उसके जहां वो मेरी अंगनाई न थी.
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शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

दरिया की ये आहिस्ता-ख़रामी कोई देखे.

दरिया की ये आहिस्ता-ख़रामी कोई देखे.
संजीदगिये-ज़ह्न की खूबी कोई देखे.

शतरंज के मुहरों के फ़साने हुए नापैद,
तस्वीर बिसातों की है उलटी कोई देखे.

आवाज़ए-हक़ गूंजने से आज है क़ासिर,
हर क़ल्ब सदाओं से है खाली कोई देखे.

वो आग के दरिया से निकल आया सलामत.
साहिल पे हुई ग़र्क़ वो कश्ती कोई देखे.

क्या बात है, क्यों शोला-फ़िशां हो गया कुहसार,
लावा है रवां आग है बहती कोई देखे.

हर लह्ज़ा हुआ करती है हर फ़िक्र की तरदीद,
हैरानो-परीशान है जो भी कोई देखे.
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बुधवार, 22 अप्रैल 2009

वो आसमानों से रखता है हमसरी का जुनूं.

वो आसमानों से रखता है हमसरी का जुनूं.
ज़मीन-दोज़ न कर दे उसे उसी का जुनूं.

जदीदियत का धुंआ भर रहा था आँखों में,
ठहर सका न वहां फिक्रो--आगही का जुनूं.

सवाले-सूदो-ज़ियाँ उसके सामने कब था,
नुमायाँ करता रहा उसको सादगी का जुनूं.

नसीहतों से है अंदेशा संगबारी का,
शबाब पर है ज़माने में गुमरही का जुनूं.

नतीजा सिर्फ ये था उसकी खुद-कलामी का,
के रास आया उसे शरहे-बेखुदी का जुनूं.

मुहर्रेकात हैं तख्लीक़े-नौ के आवारा,
समेटता है इन्हें दिल की बेकली का जुनूं.

ज़मीं की क़ूवते-बर्दाश्त को न अब परखो,
तबाह-कुन है बहोत उसकी बरहमी का जुनूं.
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मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

ज्वालामुखी से आग का पानी उबल पड़ा.

ज्वालामुखी से आग का पानी उबल पड़ा.
सागर को सूंघता हुआ शोला निकल पड़ा.

आकाश की लगाम समंदर के पास थी,
बारिश की चाह में कोई बादल मचल पड़ा.

पर्वत के गर्भ में किसी झरने का शोर था,
इच्छा हुई जगत की तो बाहर उछल पड़ा.

थोडी सी जान शेष है अब भी पठार में,
छूकर शरीर देखिये कबसे है शल पड़ा.

धरती का वक्ष फट गया कुछ ऐसी प्यास थी,
मालिश फुहारें करती रहीं पर न कल पड़ा.

पेड़ों में कितनी आग थी चिंतित न था कोई,
हलकी रगड़ हुई तो ये जंगल ही जल पड़ा.
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