रविवार, 2 अगस्त 2009

तेरे जलाल का परतौ, तेरे जमाल का रंग

तेरे जलाल का परतौ, तेरे जमाल का रंग ।
बशर में है तेरे असरारे-ला-ज़वाल का रग्॥

कहाँ की सोज़िशे-दिल कैसा इज़्तेराबे-जिगर,
जुदाई में भी हो मह्सूस जब विसाल का रंग ॥

मैं हँसते-बोलते दुनिया से हो गया रुख़्सत,
जहाँ न देख सका मेरे इन्तेक़ाल का रंग ॥

हुए न पस्त किसी लम्हा हौसले मेरे,
के उनमें नक़्श था रफ़्तारे-माहो-साल का रंग॥

अजब नहीं मैं कोई ऐसी बात कह जाऊँ,
के सुन के बज़्म से उड़ जाये क़ीलो-क़ाल क रंग॥

मैं तेरे हुस्न का मद्दाह तो हूं पहले से,
तेरे निखार में है आज कुछ कमाल का रंग्॥

सभी हैं जोश में, होशो-हवास कुछ भी नहीं,
ज़माना ले के है निकला नये उबाल का रंग्॥

तेरे वुजूद से है इहतमामे-शेरो-सुख़न,
के हर ख़याल में है तेरे ख़द्दो-ख़ाल का रंग॥
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1 टिप्पणी:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत बढिया गज़ल प्रेषित की है।बधाई।