मंगलवार, 21 जुलाई 2009

मकान कितने बदलता रहा मैं घर न मिला।

मकान कितने बदलता रहा मैं घर न मिला।
तमाम उम्र जो दे साथ हम-सफ़र न मिला ॥

ग़ज़ल के फ़न पे क़लम नाक़िदों के चलते रहे,
मगर किसी का भी मेयार मोतबर न मिला ॥

शऊरो-फ़ह्म है तख़्लीक़-कार की दुनिया,
यहाँ फ़सानए-दिल कोई बे-असर न मिला ॥

ठहर के साए में जिसके ज़रा सा दम लेते ,
हमारी राह में ऐसा कोई शजर न मिला ॥

निकालीं सीपियाँ कितने ही ग़ोता-ख़ोरों ने,
जो आबदार हो ऐसा कोई गुहर न मिला ॥
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2 टिप्‍पणियां:

Dr. Amar Jyoti ने कहा…

'मकान कितने बदलता रहा…'
बहुत ख़ूब! एक पुराना शेर याद आया:_
दर-ओ-दरीचा-ओ-दीवार-ओ-सायबान था वो
जहां ये उम्र कटी घर नहीं मकान था वो

निर्मला कपिला ने कहा…

निकालीं सीपियाँ कितने ही ग़ोता-ख़ोरों ने,
जो आबदार हो ऐसा कोई गुहर न मिला ॥
लाजवाब बहुत सुन्दर आभार