शुक्रवार, 26 मार्च 2010

यादें छोड़ आये थे जज़ीरों में

यादें छोड़ आये थे जज़ीरों में।
हम भी थे इश्क़ के असीरों में॥
देखता हूं हरेक का चेहरा,
वो भी शामिल है राहगीरों में॥
नीयतों में ख़राबियाँ आयीं,
ज़ंग सा लग गया ज़मीरों में॥
उसका ही नक़्श क्यों उभरता है,
ज़िन्दगी तेरी सब लकीरों में॥
सच बताना तलाश किसकी है,
आ गये कैसे तुम फ़क़ीरों में॥
शाया कर के जरीदए-हस्ती,
हम नुमायाँ हुए मुदीरों में॥
तुम भी नाहक़ ख़ुलूस ढूँडते हो,
आजकल के नये अमीरों में॥
कितनी गहराइयाँ चुभन की हैं,
ख़ामुशी के नुकीले तीरों में॥
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2 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत उम्दा गज़ल!

संजय भास्‍कर ने कहा…

आपने बड़े ख़ूबसूरत ख़यालों से सजा कर एक निहायत उम्दा ग़ज़ल लिखी है।