गुरुवार, 18 मार्च 2010

आजिज़ हूँ इन अफ़सानों से

आजिज़ हूँ इन अफ़सानों से।
कौन कहे कुछ दीवानों से॥
रातें सहराओं जैसी हैं,
दिन लगते हैं शमशानों से॥
ज़ुन्नारों ने जंगें की हैं,
क्यों तस्बीहों के दानों से॥
लौट रहा हूँ ख़ाली-ख़ाली,
उजड़े-उजड़े मयख़ानों से॥
क्यों जानें ज़ाया करते हैं,
पूछे कौन ये परवानों से॥
इल्म की क़ीमत आँक रहे हैं,
हम रिश्तों के पैमानों से॥
अबके फ़साद हुए कुछ ऐसे,
घर-घर हैं क़ब्रिस्तानों से॥
गौतम बुद्ध बनें तो कैसे,
वाक़िफ़ कब हैं निर्वानों से॥
क्या-क्या आवाज़ें सुनता हूं,
शेरो-सुख़न के काशानों से॥
फ़स्लें क़ीमत माँग रही हैं,
राख हुए इन खलियानों से॥
बढती रहेगी दहशतगर्दी,
हम भी जायेंगे जानों से॥
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1 टिप्पणी:

संजय भास्‍कर ने कहा…

हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।