रविवार, 28 मार्च 2010

सामने रातिब की थी मक़दार कम्

सामने रातिब की थी मक़दार कम्।
जानवर थे भूक से बेज़ार कम्॥
सायेबानों में रहा करते थे लोग,
थी दिलों को हाजते दीवार कम॥
अब तो है हर शख़्स में बेगानापन,
पहले शायद होते थे अग़यार कम्॥
गिड़गिड़ाने से नहीं कुछ फ़ायदा,
कर नहीं सकता सितम ख़ूंख़्वार कम्॥
हाथ फैलाने लगा हर आदमी,
रह गये हम में बहोत ख़ुददार कम॥
उठता जाता है ज़माने से ख़ुलूस,
मिलते हैं मुख़्लिस हमें हर बार क्म॥
तैरने की ख़्वाहिशें रखते हैं सब,
पर पहोंचते हैं नदी के पार कम्॥
मंज़िलें आसानतर होती गयीं,
राह में आये नज़र अशजार कम॥
धूप शायद सीढियाँ चढ़ने लगी,
दिन के अब बचने के हैं आसर कम्॥
ख़ाक में उसको भी सौंप आया हूं मैं,
जो न करता था कभी ईसार कम्॥
कह रहा हूं ज़िन्दगी को अल्विदा,
होगा इस दुनिया का कुछ तो भार कम्॥
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