गुरुवार, 4 मार्च 2010

ख़ेज़ाँ के ज़ुल्म से पूरा शजर बरहना था

ख़ेज़ाँ के ज़ुल्म से पूरा शजर बरहना था।
ख़मोश लब थे सभी सब का घर बरहना था॥

कोई भी अपनी रविश से न बाज़ आया कभी,
रिवायतों का भरम टूट कर बरहना था॥

ये किस को रौन्द रहे थे जफ़ा-शआर यहाँ,
ये किस का जिस्म यहाँ ख़ाक पर बरहना था॥

अगरचे शह्र में शमशीरे-बेनियाम था वो,
सभी को इल्म था वो किस क़दर बरहना था॥

वो क़ाफ़िला था असीराने-ज़ुल्म का कैसा,
के ख़ाक जिस्म से लिप्टी थी, सर बरहना था॥
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