शुक्रवार, 1 अगस्त 2008

सूफी तत्त्व-चिंतन और कबीर / प्रोफेसर शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 1]

कबीर की रचनाओं में सूफी चिंतन की झलक का संकेत अनेक विद्वानों ने किया है. रवेरेंड जी. एच. वेस्टकाट ने अनेक तर्कों के आधार पर कबीर का सूफी होना ही घोषित नहीं किया, उनके परंपरागत मुसलमान होने के पक्ष में भी अनेक प्रमाण दिए हैं ( कबीर ऐंड द कबीर पंथ, [कानपुर,1974], पृ0 29-32). डॉ. तारा चन्द ने कबीर की आस्था में शीआ मुस्लिम आस्था और उनके चिंतन में गहरे सूफी प्रभाव की चर्चा की है.(इन्फ्लुएंस आफ इस्लाम आन इंडियन कल्चर, पृ0 152-53).श्री वी. राघवन के निकट कबीर की आध्यातमिकता गहरे सूफी प्रभाव को व्यक्त करती है. (सोर्सेज़ आफ इंडियन ट्रेडिशन, न्यूयार्क 1958, पृ0 360). अली सरदार जाफरी (कबीर बानी, पृ0 9-10) और डॉ. गोपीचंद नारंग (कबीर की छे सौवीं जयंती पर साहित्य अकादमी की संगोष्ठी में पढ़ा गया लेख) के विचार भी उक्त विद्वानों से भिन्न नहीं हैं. डॉ. विष्णुकांत शास्त्री और डॉ. वासुदेव सिंह ने कबीर पर सूफी मत के प्रभाव का खंडन करते हुए अनेक बचकाने तर्क दिए हैं जिनसे उनके अध्ययन की सीमित परिधियों का संकेत मिलता है.
कबीर के मुवह्हिद (एकत्त्ववादी) होने का तथ्य जहाँ संदेह और विवाद के घेरे से बाहर है, वहीं यह भी जानना ज़रूरी है कि जलालुद्दीन रूमी, फरीदुद्दीन अत्तार, बायजीद बिस्तामी, महमूद शाबिस्तरी,अबू सईद अबिल्खैर, जुनैद, मंसूर हल्लाज, मसऊद बक इत्यादि अनेक सूफी चिन्तक और कवि मुवह्हिद (एकत्त्ववादी) थे. दरवेशों की आस्थाएं और चिंतन पद्धतियाँ भी परंपरागत शरीअत-सम्मत इस्लाम के अनुकूल नहीं थीं. मुस्लिम शरीअताचार्यों ने अपने प्रभाव और दबाव से भले ही सूफियों और दरवेशों को तरह-तरह की यातनाएं दिलवाई हों, और मंसूर हल्लाज, शिहाबुद्दीन सुहर्वर्दी एवं सरमद को भले ही प्राणों से हाथ धोना पड़ा हो, किंतु 'बे-खतर कूद पड़ा आतिशे-नमरूद में इश्क़' की परम्परा निरंतर जारी रहीऔर इनमें से किसी के मुस्लिम सूफी अथवा दरवेश होने पर कोई प्रश्न-चिह्न नहीं लगाया गया.
कबीर के समय तक एकत्त्ववाद (वह्दतुल्वुजूद) का दर्शन सूफियों के मध्य पर्याप्त लोकप्रिय हो चुका था. चिश्तिया सम्प्रदाय के अधिकतर सूफी इसी सिद्धांत में आस्था रखते थे. कबीर पर यद्यपि सहजिया सम्प्रदाय की गुह्य साधना का भी प्रभाव था, फिर भी एकत्त्ववाद में उनकी गहरी आस्था थी. डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को द्वैताद्वैत-विलक्षण-समतत्ववाद का समर्थक माना है. (कबीर, पृ0 46). वह्दतुल वुजूद का दर्शन इससे बहुत भिन्न होते हुए भी इसके बहुत निकट है. इस लिए कबीर सम्बन्धी डॉ. द्विवेदी की यह अवधारण सर्वथा निराधार नहीं कही जा सकती. किंतु द्वैताद्वैत विलक्षण समतत्ववाद के दर्शन से कबीर का कितना परिचय था यह बता पाना पर्याप्त कठिन है. इस दर्शन से उनके विचारों का मेल वह्दतुल्वुजूद के दर्शन के प्रति उनकी आस्था का परिणाम प्रतीत होता है.
इब्ने-अरबी (1165-1240) ने वह्दतुल्वुजूद के दर्शन को उस पूर्वकालिक आस्था के आधार पर विकसित किया था जो परम सत्ता के मूलभूत एकत्व पर विशवास रखती थी और उस से इतर किसी भी सत्ता को अमान्य ठहराती थी. इब्ने अरबी के मतानुसार एकान्तिक सत्ता एकान्तिक जगत से अभिन्न है और समस्त विद्यमान जगत का मूल स्रोत है. वह उसके अतिरिक्त किसी अन्य के लिए ग्राह्य नहीं है. उसे उसके अतिरिक्त कोई नहीं जानता. वह अपने एकत्त्व से ही आच्छादित है. उसकी सत्ता ही उसका आवरण है. उसे उसके अतिरिक्त कोई नहीं देख सकता, चाहे वह देखने वाला नबी, वली या फ़रिश्ता ही क्यों न हो (डी.एम्. मथेसन, ऐन इंट्रोडकशन टू सूफी डाक्टराइन [लाहौर,1963], पृ0 23-24). इब्ने अरबी की दृष्टि में अल्लाह वुजूदे-मुतलक़ (एकान्तिक सत्ता) है जिसने स्वयं को समस्त विद्यमान रूपों में व्यक्त किया है. उसकी उच्चतम अभिव्यक्ति पूर्ण मानव (इन्साने-कामिल) अथवा मर्यादा पुरुषोत्तम या सिद्ध पुरूष है.
यहाँ यह बता देना भी आवश्यक है कि जीली ने पूर्ण मानव को परम सत्ता की प्रतिमूर्ति बताया है. उसकी दृष्टि में पूर्ण मानव एक ऐसा दर्पण है जिसमें परम सत्ता के समग्र गुण झलकते हैं. वह परमात्मा और जीवों के बीच की कड़ी है. (आउटलाइन आफ इस्लामिक कल्चर पृ0 406). जीली का यह भी मानना है कि सभी मनुष्यों में पूर्णता की यह शक्ति थोडी-बहुत पायी जाती है. किंतु वास्तव में पूर्ण मानव कोई बिरला होता है. पूर्णता का स्तर प्रत्येक व्यक्ति द्बारा दैवी आलोक ग्रहण करने की सामर्थ्य पर निर्भर करता है (आर.ए. निकाल्सन, स्टडीज़ इन इस्लामिक मिस्टिसिज्म, पृ0 80)
इब्ने अरबी की दृष्टि में आध्यात्मिक संयोग अथवा सम्मिलन परम सत्ता के साथ एक हो जाना या उस सत्ता में विलयन नहीं है अपितु पहले से विद्यमान एकत्व को पहचानना और महसूस करना है. इसके लिए चित्त का परिष्कृत रखना अनिवार्य है. इल्म अथवा शास्त्र-ज्ञान का सम्बन्ध बुद्धि से है, जबकि 'मारिफा' अथवा आत्म ज्ञान का सम्बन्ध चित्त से है. चित्त की स्थिति दर्पण की है. इस दर्पण में ही उसे देखा जा सकता है. यह जगत प्रत्येक क्षण नवीनता की और अग्रसर है और उसकी सम्पूर्ण गतिशीलता एकान्तिक सत्ता तक पहुँचने का प्रयास है. 'फ़ना' बाह्य रूप का विनाश है और 'बक़ा' परम सत्ता में स्थायित्व. उसकी उपासना, प्रेम या इश्क में ही सम्भव है जो उस एकान्तिक सत्ता का उच्चतम रूप है.(एम्.एम्. शरीफ संपादित ‘अ हिस्ट्री आफ मुस्लिम फ़िलासफी’ [1966] पृ0 413).
सच पूछिए तो इब्ने अरबी ने अपनी आस्था बहुत स्पष्ट शब्दों में व्यक्त कर दी है -
“मेरा ह्रदय मूर्तियों का देवालय और हाजियों का काबा है
यहाँ तौरैत की पट्टिका और कुरआन है
मैं इश्क के धर्म का अनुयायी हूँ
अब ऊंट चाहे किसी करवट बैठे
मेरा धर्म और मेरी आस्था यही है.”

(अ हिस्ट्री ऑफ़ मुस्लिम फिलासफी,पृ0 144)
कबीर और इब्ने अरबी के विचारों का साम्य देखने योग्य है. कबीर के यहाँ भी 'प्यंजर प्रेम प्रकासया, अंतरि भया उजास' की स्थिति है. कारण यह है कि वे भी इश्क ही को धर्म स्वीकार करते हैं. और परम सत्ता के इश्क का बादल बरस कर उनकी अंतरात्मा तक को भिगो चुका है -'कबीर बादल प्रेम का हम पर बरस्या आई / अंतरि भीगी आत्मा, हरी भई बनराई'. कबीर के लिए भी इंसाने कामिल अर्थात पूर्ण मानव परम सत्ता और सद् गुरु को प्रतीकायित करता है. जभी तो वे 'पूरे से परिचय भया,' तथा 'कहै कबीर मैं पूरा पाया' की घोषणा करते हैं. यहाँ 'पूरा' शब्द विचारणीय है.
कबीर के निकट मन मथुरा, ह्रदय द्वारका और काया काशी है तथा मन ही गोरख और मन ही गोविन्द है. वे मन को काबा और काया को कर्बला देखने के भी पक्षधर हैं. 'जो मन राखै जतन करि, तो आपै करता सोई' कि स्थिति इब्ने अरबी के इंसाने कामिल कि स्थिति से भिन्न नहीं है. यह पूर्ण मानव या इंसाने-कामिल बे-हद अर्थात असीम है. इसलिए जो इस ‘बेहद’ के साथ जुड़ कर स्वयं 'बे-हद’ हो गए हैं, कबीर उन्हीं के समक्ष अन्तर खोलने की बात करते हैं -"जो लागे बेहद्द सों, तिन सूं अन्तर खोलि'. और यह ‘बेहद्द’ स्वभाव, कर्म और चरित्र से संत है, वली है, परम सत्ता का अभिन्न मित्र है, उसका राज़दाँ है. कबीर इसी आधार पर संत और राम में अभेदत्व की स्थिति मानते हैं -"संत राम हैं एकौ."
इब्ने अरबी ने 'मारिफ़ा' अर्थात आत्म ज्ञान या परम सत्ता की प्रेमानुभूति का सम्बन्ध चित्त से माना है और चित्त की स्थिति उनकी दृष्टि में दर्पण की है. कबीर भी "हिरदै भीतर आरसी" की बात करते हैं और "जो दरसन देखा चहै, तौ दर्पन मंजत रहै" का उपदेश देते हैं. उर्फी ने एक स्थल पर इखा है -
निशाने-जाँ हमी जू, ता निशाँ अज़ बेनिशाँ याबी
मकाने-दिल तलब कुन,ता मकां दर लामकां बीनी [क़सायादे-उर्फी, पृ0 77]

अर्थात - तू अपने प्राणों के चिह्नों (निशाने-जाँ) की खोज कर ताकि उन चिह्नों से चिह्न-मुक्त परम सत्ता को प्राप्त कर सके. तेरा ह्रदय ही वह आवास-स्थल या मकान है जिसे तू यदि स्वच्छ और निर्मल रख सके तो उसमें तू आवासमुक्त (लामकां) परम सत्ता का दर्शन कर सकता है.
ध्यान पूर्वक देखा जाय तो कबीर दो सत्ताओं के एकमेक होने की बात नहीं करते. परम सत्ता उनकी दृष्टि में एकान्तिक या मुतलक है. चित्त की मलिनता (दर्पन लागै काई) और मन की दुविधा के कारण मनुष्य अपने चित्त के भीतर उस एकान्तिक सत्ता का दर्शन कर पाने में असमर्थ है. जीव इस एकान्तिक सत्ता या वुजूदे-मुतलक से उसी प्रकार एकत्व रखता है जिस प्रकार तिल के भीतर विद्यमान तेल और चकमक में आग. बात सुषुप्तावस्था से जाग्रतावस्था में आने की है. सुषुप्तावस्था द्वैत के भाव को जन्म देती है और जाग्रतावस्था परम सत्ता के एकत्व का बोध कराती है - "जो सोऊँ तो दोई जणा, जो जागूं तौ एक." तिल और चकमक रूप को प्रतीकायित करते हैं और तेल तथा आग अर्थ को. यह संसार उसी एकान्तिक सत्ता का व्यक्त रूप है. इस व्यक्त रूप के अर्थ पर यदि दृष्टि डाली जाय, तो सम्पूर्ण विद्यमान जगत एकान्तिक सत्ता से इतर कुछ नहीं है. प्रख्यात सूफी कवि फरीदुद्दीन अत्तर (1142-1220 ई0) इस तथ्य को इस प्रकार व्यक्त करते हैं –
आसमांहां वो ज़मींहा वो फ़लक / जुमला रा यक्दानो-बेगुज़रत ज़ि शक.
सूरतो-मानी बहम तौ ज़ात दां / जुमला अशया मुसहफ़ो- आयात दां [रुशद-नामा , हस्त-लिखित]
अर्थात, संदेह की सीमा से निकल कर आकाश, धरती और देवलोक को अभिन्न समझने का प्रयास कर. सम्पूर्ण पदार्थों को पवित्र आसमानी किताब और उसकी आयतें समझ.
स्पष्ट है कि वह्दतुल्वुजूद के दर्शन में जगत मिथ्या न होकर परम सत्ता का ही व्यक्त रूप है. कबीर भी जगत को मिथ्या नहीं मानते. उनकी दृष्टि में यह संसार काजल की कोठरी जैसा है -'काजल केरी कोठडी, तैसा यह संसार,' और यह काजल की कोठरी मिथ्या नहीं है. बात तो जब है कि उसमें रहते हुए साधक उसके प्रभावों से अछूता निकल आए. -'बलिहारी ता दास की, पी सर निकसण हार.' स्रष्टा ने इस संसार को वणिक के हाट की भाँती पसार रखा है -'जैसे बनिया हाट पसारा, सब जग का सो सिरजन हारा' और कबीर इस हाट में खड़े कर दिए गए हैं. किंतु कबीर इस तथ्य से परिचित हैं कि वही परमात्मा ग्राहक भी है और वही बेचने वाला भी."आनि कबीरा हाट उतारा, सोई ग्राहक सोई बेचन हारा." ***************क्रमशः

1 टिप्पणी:

शोभा ने कहा…

चिन्तन प्रधान लेख लिखा है आपने। बधाई।