रविवार, 3 अगस्त 2008

इस्लाम की समझ / क्रमशः 1.6

इस्लाम दीन है, धर्म या मज़हब नहीं
नबीश्री के निधनोपरांत खलीफा निर्वाचित किया जाना यदि दीन से सम्बद्ध कार्य होता तो जिस प्रकार दीन की अन्य तमाम बुनियादी बातें बदस्तूर चल रही हैं, खलीफा की संस्था को भी अल्लाह की ओर से नैरन्तर्य प्राप्त होता. मुसलामानों के बड़े वर्ग ने जहाँ उमैया, अब्बासी और फातमी खलीफाओं में से बहुतों के दुष्कृत्य को देखते हुए खिलाफत की संस्था को सम्मानित बनाये रखने के विचार से प्रथम चार खलीफाओं को ही 'राशिदीन' (गुरु से दीक्षा प्राप्त) की संज्ञा दी, वहीं इस संस्था के टूटने पर, वे पूरे दक्षिण एशिया में खिलाफत आन्दोलन चलाने में (1919-1924) सक्रिय दिखायी दिए. स्पष्ट है कि यदि प्रथम चार के अतिरिक्त अन्य खलीफा अनुकरणीय नहीं थे तो उनके प्रति मुसलामानों की इतनी रागात्मकता क्यों थी और खिलाफत की संस्था के समाप्त होने पर सम्पूर्ण दक्षिण एशिया में इतनी बेचैनी क्यों पायी गई ? ज़ाहिर है कि मुसलमान ज़बान से भले ही चार खलीफाओं को राशिदीन मानते हों, उनकी राजनीतिक ज़रूरतें अन्य सभी खलीफाओं के साथ निश्चित रूप से जुड़ी हुई थीं.
यह कहना कि प्रारंभिक खलीफा शासक नहीं थे और उनमें साम्राज्य के प्रति मोह नहीं था, जो बाद के खलीफाओं में पाया गया, निराधार है और इसे किसी प्रकार भी उचित नहीं ठहराया जा सकता. प्रथम निर्वाचित खलीफा हज़रत अबूबक्र (र.) को अन्तिम नाबीश्री के बाद रिसालत का पद समाप्त हो जाने के बावजूद 'खलीफतुर्रसूल' अर्थात रसूल (स.) का उत्तराधिकारी कहा गया. समस्या उस समय जटिल हो गयी जब हज़रत उमर (र) को हज़रत अबूबक्र (र) ने अपना उत्तराधिकारी घोषित किया. हज़रत उमर (र.) रसूल के खलीफा तो कहला नहीं सकते थे. वे खलीफा के खलीफा हुए जिसके लिए कोई उपयुक्त शब्द नहीं था. शुभचिंतकों के सुझाव पर हज़रत उमर (र) ने ख़ुद को अमीरुल्मोमिनीन (अल्लाह और रसूल में सच्ची आस्था रखने वालों का सरदार) कहलवाना प्रारंभ किया. जिसका लाभ उठाकर आगे के खलीफा भी, चाहे वे चारित्रिक दृष्टि से जैसे भी रहे हों, स्वयं को अमीरुल्मोमिनीन कहलवाने लगे. यहाँ तक कि यजीद जैसे दुष्कर्मी को भी मुसलामानों का एक वर्ग अमीरुल्मोमिनीन कहता था. ध्यान देने की बात यह है कि हज़रत सलमान फारसी (र.), हज़रत अबूज़र (र.) और हज़रत मिकदाद (र.), ईमान के उच्च शिखर पर रह कर भी ‘अमीरुल्मोमिनीन’ नहीं कहे गए.
ऐतिहासिक सच्चाई यह है कि नबीश्री के जीवनकाल में अमीरुल्मोमिनीं कहलाने का श्रेय केवल इमाम अली (र.) को प्राप्त था.सामान्य रूप से देखा गया है कि मुसलमान अपनी प्रामाणिक पुस्तकों से नज़र बचाते हुए इस तथ्य को चर्चा में ही नहीं लाते. मिश्कात शरीफ में मसनद अहमद इब्ने-हम्बल (खंड 4, पृ0 281) के हवाले से बताया गया है कि अन्तिम हज से लौटते हुए नबीश्री जब ग़दीरे-खुम के मैदान में आए तो उनके आदेश पर मुनादी की गई कि सब लोग यहीं ठहर जायं. वृक्षों के नीचे लोगों के बैठने के लिए ज़मीन साफ़ की गई. तत्पश्चात नमाज़े-ज़ुह्र समाप्त करके नाबीश्री ने इमाम अली (र.) का हाथ पकड़ कर मुसलामानों को संबोधित किया "ऐ लोगो ! क्या तुम यह नहीं जानते कि मैं ईमान वालों की अंतरात्मा पर उनसे अधिक अधिकार रखता हूँ ? सबने उत्तर में कहा 'इसमें किसे संदेह है.' नबीश्री ने आगे कहा मुसलमानों, याद रखो, मैं जिसका मौला (निष्ठां से स्वीकार किया गया स्वामी) हूँ, अली (र.) भी उसका मौला है. फिर दुआ के लिए हाथ उठाकर कहा 'ऐ मेरे रब ! तू उसे मित्र रख जो अली के साथ मैत्री रखे और उसे शत्रु समझ जो अली से शत्रुता बरते,' इसके बाद हज़रत अबूबकर (र.), हज़रत उमर तथा अन्य सहाबियों ने इमाम अली (र.) को मुबारकबाद दी. हज़रत उमर ने इमाम अली से कहा - बधाई हो ऐ अबू तालिब के बेटे ! कि आज से तुम हर ईमान वाले पुरूष और महिला के मौला हो गए. मुहद्दिस दिहल्वी ने मदारिजुन्नुबूवा ( रुक्न 4. अध्याय 12, पृ0 182) में लिखा है कि इस अवसर पर नाबीश्री की पत्नियों ने भी अली को अमीरुल्मोमिनीन कहकर मुबारकबाद दी.
उपर्युक्त घोषणा नबीश्री ने अल्लाह के इस आदेश पर की थी कि "ऐ रसूल ! जो आदेश आपको दिया जा रहा है उसे आप प्रसारित कर दीजिये, यदि आप ने ऐसा नहीं किया तो समझ लीजिये कि रिसालत का कोई कार्य ही नहीं किया. "यह सन्दर्भ इमाम अबिल-हसन अली बिन अहमद अल्वाहिदी (मृ0 468 हिज0) की पुस्तक अस्बाबुन्नुजूल (पृ0,150),इमाम जलालुद्दीन सुयूती (मृ0 911 हिज0) की पुस्तक दुर्रे-मंसूर (खंड 2, पृ0 298), काजी अबू अली मुहम्मद बिन अली बिन मुहम्मद अश्शौकानी की पुस्तक तफसीरे-फ़तहुल्क़दीर (आयए बल्लिग़), इत्यादि में देखे जा सकते हैं. अल्लामा बदरुद्दीन अबी मुहम्मद महमूद अल-ऐनी (मृ0 855 हिज0) ने अपनी पुस्तक शरहे-सहीह बुखारी (खंड 8, पृ 584) में श्रीप्रद कुरआन की उपर्युक्त आयत की व्याख्या करते हुए लिखा है कि ‘इस आयत का अर्थ यह है कि "ऐ रसूल ! उस आदेश को पहुँचा दो जो तुम्हारे रब ने अली इब्ने-अबीतालिब की महिमा में तुम्हारे पास भेजा है." सच तो यह है कि नबीश्री ने इसी प्रकार अनेक अवसरों पर ऊलिलअम्र (अल्ल्ल्लाह के आदेशों का सच्चा ज्ञाता) को पहचनवाने का प्रयास किया. किंतु कुछ ख़ास सहाबियों के राजनीति-उद्वेलित मस्तिष्क में जो कुछ पक रहा था, उसने नबीश्री के इस प्रकार के तमाम वक्तव्यों को सिरे से नज़र-अंदाज़ कर दिया.
प्रारंभिक खलीफाओं की सीमा यदि दुनियावी शासन व्यवस्था तक ही होती और उन्हें ईमान वालों का मार्ग-दर्शक या अमीरुल्मोमिनीन न कहा गया होता, तो उनके कृत्य इस्लाम के स्वनिर्मित चौखटे में रखकर न देखे जाते. इस्लाम के इतिहास में यह एक नया मोड़ था. वास्तव में इसके पीछे सोची-समझी राजनीति यह थी कि श्रीप्रद कुरआन में जिन ऊलुलअम्रों की आज्ञा का पालन करना ज़रूरी बताया गया है, साबित किया जा सके कि यही खलीफा वह ऊलुलअम्र हैं.
यह विचित्र विडम्बना है कि खलीफा का पद प्राप्त करने का मोह नबीश्री के कुछ सहाबियों में इतना अधिक था कि अपने नबी (स.) की मैयत को बेकफ़न छोड़कर वे सकीफ़ा बनी साअदा में खलीफा चुनने दौड़ पड़े. यहाँ तर्क यह दिया जाता है कि यदि खलीफा चुनने में जल्दी न की जाती तो अरब में गृह-युद्ध भड़क जाने की संभावना थी, जबकि ऐसी किसी साधारण सी घटना का भी उल्लेख नहीं मिलता जिसमें किसी बात को लेकर तलवारें खिंच गयीं हों. बहरहाल नबीश्री को इमाम अली (र.) ने गुस्ल दिया, ओसामा और सुक़रान ने पानी डाला और अब्बास(र.), क़सम (र.),तथा फजल ने शरीर को करवट फेर कर गुस्ल में सहयोग दिया.( काजी हुसैन दयार बकरी [मृ0 966 हिज0], तारीख अल-खमीस, खंड २, पृ0 91). यह भी विडम्बना है कि आज भी मुस्लिम आचार्य नबीश्री की निधन-तिथि पर एक मत नहीं हैं.
हज़रत अबूबक्र के खलीफा चुने जाने की प्रक्रिया के विस्तार में मैं नहीं जाऊँगा।हाँ खलीफा चुने जाने के बाद जिस प्रकार सहाबियों को अपना अनुयायी बनाने के लिए, यह जानते हुए भी कि इस्लाम में जब्र या ज़बरदस्ती या इस प्रकार के किसी अत्याचार की अनुमति नहीं है, हज़रत अबूबक्र ने अनेक सहाबियों के साथ जब्र किया, जो निश्चित रूप से दुखद है। मुस्लिम शास्त्राचार्य इब्ने-अब्दर्बा ने अक़दल्फरीद (खंड 2, पृ0 253) में लिखा है कि जिन लोगों ने हज़रत अबूबक्र के खलीफा होने पर उनके अनुयायी होने से इनकार किया उनमें अली और अब्बास और जुबेर और साद बिन इबादा विशेष थे। अली और अब्बास और जुबेर नबीश्री की बेटी हज़रत फातिमा के घर में बैठे रहे. हज़रत अबूबक्र ने हज़रत उमर को आदेश दिया कि जो लोग हज़रत फातिमा के घर में हैं यदि वे बाहर न निकलें और मेरा अनुयायी होना स्वीकार न करें तो उन्हें क़त्ल कर दो. एतदर्थ हज़रत उमर थोडी सी आग लेकर इस इरादे से वहाँ पहुंचे कि फातिमा के घर में आग लगा दें. जनाबे-फातिमा बिगड़कर बोलीं ऐ खत्ताब के बेटे ! तू मेरा घर जलाने आया है ? हज़रत उमर (र।) ने उत्तर दिया 'हाँ, इसी विचार से आया हूँ, अन्यथा तुम लोग अबूबकर के अनुयायियों में शामिल हो जाओ .यही बातें इस्माइल अबुल्फिदा (मृ०७३२हिज0) ने किताबलमुख्तसर फी अख्बारुल्बशर में,इब्ने जरीर तबरी ने तारीखे-तबरी में, इब्ने क़तीबा ने किताबल इमामा वस्सियासा में भी लिखी हैं. इब्ने असीर जज़री ने नहाया में और मुल्ला ताहिर क़तनी ने मज्मउलबह्हार में इसे फ़ितना-अंगेज़ घटना का नाम दिया है. स्पष्ट है कि मुसलामानों का यह हिंसात्मक रवैया खिलाफ़त की देन है. और यह खिलाफ़त शासकीय मिजाज को प्रतीकयित करती है ऊलिल अम्र के स्वभाव को नहीं. नबीश्री ने जिस दीन को प्रचारित-प्रसारित किया वह शान्ति और अम्न का दीन था, किंतु मुसलामानों का राजनीतिक इतिहास जिस मज़हब को प्रोत्साहित करता रहा वह तलवार और जब्र का मज़हब था, शान्ति और अम्न का नहीं. आज मुसलामानों के मध्य जो उग्रवादी और आतंकवादी प्रवृत्तियाँ पनप रही हैं इसकी जड़ें कहीं-न-कहीं राजनीति द्बारा प्रोत्साहित मज़हब में हैं ।

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