उनको शिकवा है कि हम रंजो-अलम पालते हैं
ये इनायात उन्हीं की हैं जो हम पालते हैं
ज़ुल्म करने की कोई वज्ह नहीं होती है
सौ बहाने हैं जिन्हें अहले-सितम पालते हैं
तितलियाँ आती हैं रस लेके चली जाती हैं
फूल फितरत से ये अन्दाज़े-करम पालते हैं
लज़्ज़ते-दीद से दुनिया कभी खाली न रहे
सब इसी शौक़ से दो-चार सनम पालते हैं
लोग उस हुस्न से रखते हैं शिकायात बहोत
और उस हुस्न की खफगी के भी ग़म पालते हैं
मैंने पूछा कि हैं सब क्यों तेरी जुल्फों के असीर
हंस के कहने लगा हम ज़ुल्फ़ों में ख़म पालते हैं
जो कहानी कभी कागज़ पे रक़म हो न सकी
उसको हम प्यार से बा-दीदए-नम पालते हैं
इन्तेशाराते-ज़माना से न हम टूट सके
बात ये है कि ग़लत-फहमियाँ कम पालते हैं
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Monday, August 25, 2008
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1 comment:
वाह! आनन्द आ गया. पढ़वाने का आप को बहुत शुक्रिया.
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