शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

पसंदीदा नज़्में / गुलज़ार

18 मर्तबा फ़िल्म फेअर अवार्ड जीतने वाले गुलज़ार एक अच्छे शायर, एक कामयाब स्क्रिप्ट राइटर,एक बेमिसाल डाइरेक्टर और एक चुम्बकीय व्यक्तित्व के मालिक हैं. उनकी गज़लें, नज्में, गीत उनके कुछ और नज्में, पुखराज, रात पश्मीने की और त्रिबेनी में संकलित हैं. उनकी कहानियो के संग्रह रावी पार, खराशें और धुंआ अपनी एक अलग कशिश रखते हैं. आनंद, मौसम, लिबास, आंधी, खुशबू इत्यादि की स्क्रिप्ट गुलज़ार की खुशबु से शराबोर है. समपूरन सिंह कालरा यानी गुलज़ार 1936 में वर्त्तमान पाकिस्तान के झेलम जिले में जन्मे ज़रूर, लेकिन हिन्दुस्तानी मौसमों की आबो-हवा उन्हें इस तरह रास आई कि उर्दू तहजीब की रेशमी चादर लपेट कर फकीराना शान और रिन्दाना तेवर से अपनी रचनाओं से कला और साहित्य का खजाना भरते रहे. पेश हैं यहाँ गुलज़ार की चन्द नज्में.
1. उर्दू
ये कैसा इश्क है उर्दू ज़बां का
मज़ा घुलता है लफ्जों का ज़बां पर
कि जैसे पान में महंगा क़माम घुलता है
नशा आता है उर्दू बोलने में.
गिलोरी की तरह हैं मुंह लगी सब इस्तिलाहें
लुत्फ़ देती हैं.

हलक़ छूती है उर्दू तो
हलक़ से जैसे मय का घूँट उतरता है !
बड़ी एरिस्टोक्रेसी है ज़बां में.
फकीरी में नवाबी का मज़ा देती है उर्दू.

अगरचे मानी कम होते हैं और अल्फाज़ की
इफरात होती है
मगर फिर भी
बलंद आवाज़ पढिये तो
बहोत ही मोतबर लगती हैं बातें
कहीं कुछ दूर से कानों में पड़ती है अगर उर्दू
तो लगता है
कि दिन जाडों के हैं, खिड़की खुली है
धूप अन्दर आ रही है.

अजब है ये ज़बां उर्दू
कभी यूँ ही सफर करते
अगर कोई मुसाफिर शेर पढ़ दे मीरो-गालिब का
वो चाहे अजनबी हो
यही लगता है वो मेरे वतन का है
बड़े शाइस्ता लह्जे में किसी से उर्दू सुनकर
क्या नहीं लगता -
कि इक तहजीब की आवाज़ है उर्दू.
2.शफक
रोज़ साहिल पे खड़े हो के यही देखा है
शाम का पिघला हुआ सुर्ख सुनहरी रोगन
रोज़ मटियाले से पानी में ये घुल जाता है.
रोज़ साहिल पे खड़े हो के यही सोचा है
मैं जो पिघली हुई रंगीन शफक का रोगन
पोंछ लूँ हाथों पे
और चुपके से इक बार कभी
तेरे गुलनार से रुखसारों पे छप से मल दूँ.
शाम का पिघला हुआ सुर्ख सुनहरी रोगन.
3. दस्तक
सुबह सुबह इक ख्वाब की दस्तक पर दरवाज़ा खोला,
देखा
सरहद के उस पार से कुछ मेहमान आए हैं
आंखों से मानूस थे सारे

चेहरे सारे सुने-सुनाये
पाँव धोया हाथ धुलाये
आँगन में आसन लगवाये
और तंदूर पे मक्की के कुछ
मोटे-मोटे रोट पकाए
पोटली में मेहमान मरे
पिछले सालों की फसलों का गुड लाये थे
आँख खुली तो देखा घर में कोई नहीं था
हाथ लगाकर देखा तो तंदूर अभी तक
बुझा नहीं था.
और हाथों पर मीठे गुड का जायका अबतक
चिपक रहा था
ख्वाब था शायद
ख्वाब ही होगा
सरहद पर कल रात सुना है चली थी गोली
सरहद पर कल रात सुना है
कुछ ख़्वाबों का खून हुआ है.
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