मंगलवार, 19 अगस्त 2008

इस्लाम की समझ / प्रो. शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 1.7]


इस्लाम दीन है, धर्म या मज़हब नहीं
दुखद स्थिति यह है कि सुन्नी शीआ दोनों ही मुस्लिम सम्प्रदायों के धर्माचार्य, राजनीति को दीन से पृथक कर के देखने के पक्ष में नहीं हैं. दोनों की ही राजनीतिक वैचारिकता नबीश्री के निधनोपरांत खलीफा के पद पर केंद्रित है. सुन्नी सम्प्रदाय के धर्माचार्य जहाँ हज़रत अबूबकर (र.), हज़रत उमर (र.) और हज़रत उस्मान (र.) ही को नहीं बाद के उमैया खलीफाओं को भी इसका अधिकारी मानने के पक्ष में हैं, वहीं शीआ सम्प्रदाय के धर्माचार्य नबीश्री के बाद चारित्रिक गुणों और नबीश्री से नैकट्य के आधार पर हज़रत अली (र,) तथा नबीश्री की बेटी फ़ातिमा की सुयोग्य संतानों को ही, जिन्हें वे इमाम मानते हैं, इस पद का अधिकारी समझते हैं. सुन्नी सम्प्रदाय के लगभग सभी आचार्य नबीश्री की उन संतानों को जिन्हें इमामत का पद प्राप्त था हर दृष्टि से श्रेष्ठ और आदरणीय स्वीकार करते हैं किंतु उन्हें खिलाफत के लिए उपयुक्त नहीं समझते.
इस्लामी इतिहास का सूक्ष्मतापूर्वक अवलोकन करने से एक बात स्पष्ट रूप से दिखायी देती है कि नबीश्री के जीवन काल में और उसके बाद भी कुरैश के क़बीलों की राजनीति बनी हाशिम का वर्चस्व किसी भी दृष्टि से स्वीकार करने के पक्ष में नहीं थी. नबीश्री ने जब भी और जिस अवसर पर भी बनी हाशिम के किसी सुयोग्य व्यक्ति की प्रशंसा की या उसकी श्रेष्ठता रेखांकित की, वे सहाबा जिनका सम्बन्ध कुरैश के दूसरे क़बीलों से था, उन्हें यह प्रशंसा बिल्कुल अच्छी नहीं लगी.उदहारणस्वरूप मैं यहाँ कुछ तथ्य रखना चाहूँगा.
1. यह कि जब उहद में नबीश्री के चचा हज़रत हमज़ा (र.) शहीद हुए और नबीश्री उनकी जनाजे की नमाज़ पढने के पश्चात उन्हें दफ़्न कर चुके तो नबीश्री ने दुआ की "ऐ मेरे रब ! ये वो हैं जिनके ईमान की पराकाष्ठा पर होने की मैं गवाही देता हूँ. हज़रत अबू बक्र (र.) को अच्छा नहीं लगा. उन्होंने तत्काल प्रश्न किया "या रसूल अल्लाह क्या हम उनकी तरह नहीं हैं ? जिस प्रकार उन्होंने इस्लाम स्वीकार किया, हम ने भी स्वीकार किया और जिस प्रकार उन्होंने जिहाद किया हमने भी किया ? नबीश्री ने यह नहीं कहा कि तुम लोग तो इसी युद्ध में मुझे अकेला छोड़ कर अपनी जानें बचाने के चक्कर में भाग गए. नबीश्री ने उत्तर दिया "क्यों नहीं, किंतु मैं नहीं जानता कि तुम लोग मेरे बाद क्या अहदास (दीन में कुछ घटाना-बढ़ाना या फेर-बदल करना) करोगे. (इमाम मालिक, मुवत्ता, किताबुलजिहाद, पृ0173 तथा शेख अब्दुलहक़ मुहद्दिस दिहल्वी, जज़बकुलूब, बाब 13, पृ0 176)
2. यह कि हज़रत अब्दुल मुत्तलिब (र.) के निधनोपरांत नबीश्री के पालन-पोषण का सारा भार हज़रत अबू तालिब इब्न अब्दुल मुत्तलिब (र.) ने उठाया और वे नबीश्री को, जो आयु की दृष्टि से उस समय कुल आठ वर्ष के थे, अपने बच्चों से भी अधिक प्रिय रखते थे. उन्होंने मक्के के मुशरिकों की धमकियों की कोई चिंता नहीं की और अन्तिम साँस तक नबीश्री की सुरक्षा के लिए समर्पित रहे. इस्लाम में नातगोई (नबीश्री की प्रशस्ति में लिखी गई कवितायेँ) का शुभारम्भ हज़रत अबू तालिब की कविताओं से माना जाता है. उनका यह शेर जो सीरत इब्ने हुश्शाम में भी दर्ज है (भाग 1, पृ0 276) नबीश्री को अत्यधिक प्रिय था और वे अक्सर सहाबियों से इसे सुनाने की फरमाइश करते थे."वह गोरे-चिट्टे मुखडे वाला जिसके आकर्षक मुखमंडल के माध्यम से वृष्टि के बादलों की दुआएं मांगी जाती है, वह अनाथों का सहारा है, विधवाओं और दरिद्रों की सुरक्षा का दुर्ग है, बनी हाशिम के वो लोग जो दयनीय स्थिति में हैं जब समय पड़ता है तो उसकी ओर दौड़ते हैं और उससे शरण लेते हैं और उसकी देख-रेख में सम्पन्न और श्रेष्ठ हो जाते हैं." अबुलफिदा ने अपनी तारीख में अबू तालिब के अनेक शेर उद्धृत किए हैं (भाग 1, पृ0 107) जिनमें से एक शेर द्रष्टव्य है." ऐ मुहम्मद ! तुमने मुझे दीन इस्लाम की ओर आमंत्रित किया. तुम वास्तव में मत के सच्चे, सत्यवादी और अल्लाह के आदेशों की रक्षा करने वाले (अमानतदार) वास्तविक नबी हो. निस्संदेह मेरा विशवास है कि तुम्हारा दीन संसार के अन्य सभी दीनों से उत्तम है. खुदा की क़सम मैं जबतक जीवित हूँ, तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता."
कुरैश के कबीले जब एक जुट होकर नबीश्री और अबू तालिब के साथ सारे तिजारती और सामजिक सम्बन्ध तोड़ बैठे तो अबू तालिब सभी बनू हाशिम को साथ लेकर अपनी घाटी में चले गए जहाँ तीन वर्षों तक भूके प्यासे रहकर भी सभी ने नबीश्री की रक्षा की. जब अबू तालिब का निधन हुआ तो नबीश्री ने उस वर्ष को दुःख और संताप का वर्ष घोषित किया. यह तमाम बातें ऐसी हैं जिनपर मुसलमानों में कोई मतभेद या विवाद नहीं है. फिरभी बनीहाशिम विरोधी कुरैश के अन्य क़बीलों ने हज़रत अबू तालिब के विरुद्ध प्रचार किया कि जीवन के अंत तक वे काफिर रहे और उन्होंने इस्लाम कभी स्वीकार नहीं किया. इस प्रचार के पीछे कुरैश की वह खीझ थी जो अबू तालिब के रहते नबीश्री का कुछ भी नहीं बिगाड़ पायी और जिसने दिखा दिया कि हज़रत अबू तालिब (र.) की आँख बंद होते ही नबीश्री का मक्के में रहना दूभर हो गया. परिणाम यह हुआ कि बुखारी शरीफ में यहांतक लिख दिया गया कि नबीश्री की हदीस है कि हज़रत अबू तालिब का स्थान दोज़ख में है.
मुझे ऐसे स्थलों पर मुसलमानों की सोंच और उनकी अक्ल पर आश्चर्य भी होता है और दुःख भी. एक व्यक्ति जो मुहम्मद (स.) के इश्क में अपना सब कुछ लुटा दे उसे तो काफिर घोषित कर दिया जाय और दोज़ख का भागीदार बताया जाय और दूसरा व्यक्ति जिसने जगह-जगह मुहम्मद (स.) की राह में रोडे अटकाए हों, उसे ला इलाह इल्लल्लाह मुहमदन रसूलल्लाह के उच्चारण मात्र से, जन्नत में आरक्षण दे दिया जाय. यदि इस्लाम ऐसा ही होता तो न जाने कितने लोग इसे कबका खुदा हाफिज़ कह चुके होते. मैं यहाँ मुस्लिम धर्माचार्यों से जो हज़रत अबूतालिब के काफिर होने के पक्षधर हैं केवल इतना पूछना चाहूँगा कि वे कलमा पढ़कर कब मुसलमान हुए थे ? कम से कम वो दिन और तारीख तो उन्हें याद ही होगी. मुसलमानों को चाहिए था कि जिस प्रकार इस्लाम में अकीका, खतना, निकाह इत्यादि की औपचारिकताएं हैं उसी प्रकार कलमा पढने की भी एक औपचारिकता अनिवार्य रूप से रखते. कम-से-कम यह पता तो चलता कि किसने कब इस्लाम स्वीकार किया. यदि आज के मुसलमान कलमा पढ़ने की किसी औपचारिकता से गुज़रे बिना भी मुसलमान हैं, तो हज़रत अबू तालिब (र.) से कलमा पढ़वाने पर इतना ज़ोर क्यों है. इस वैचारिकता में बनी हाशिम के प्रति शत्रुता का भाव नहीं है तो और क्या है ? यदि हज़रत इब्राहीम की इस दुआ को कि "मेरे रब ! मेरी संतानों में से एक समूह को ऐसा रखना जो इस्लाम दीन पर कायम रहे, अल्ल्लाह ने स्वीकार किया, तो कम से कम उस समूह के ऐसे लोगों को, जो नबीश्री के प्रेम में अपने प्राणों को भी कुछ नहीं समझते थे, अपने जैसा क्यों समझा जाता है ? यदि हज़रत अबू तालिब हज़रत इब्राहीम की संतान थे, और यदि क्या निश्चित रूप से थे, तो उनके दीन की गवाही तो स्वयं श्रीप्रद कुरान से साबित हो गई. अन्यथा मुसलमान नबीश्री हज़रत इब्राहीम (अ.) की संतानों में वह समूह कहाँ तलाश करेंगे जो पहले से मुसलमान था.
मुस्लिम धर्माचार्यों की दृष्टि में ऐसी हदीसें बहुत महत्वपूर्ण और प्रमाणिक होती हैं जो विभिन्न स्रोतों से बार-बार दुहराई गई हों। रोचक बात यह है कि बुखारी शरीफ की हज़रत अबू तालिब (र।) के दोज़ख में होने की हदीस तो मुस्लिम धर्माचार्यों को इतनी पसंद आई कि वे उसे बार-बार उद्धृत करते रहे. किंतु उसी बुखारी शरीफ की एक दूसरी हदीस जो विभिन्न स्रोतों के माध्यम से तेरह स्थानों पर संदर्भित है मुस्लिम आचार्यों का ध्यान तक आकृष्ट नहीं करती. हदीस इस प्रकार है - "सचेत हो जाओ कि क़यामत में मेरी उम्मत के कुछ लोग लाये जायेंगे और फ़रिश्ते उनको दोज़ख की जानिब ले चलेंगे. मैं निवेदन करूँगा ऐ मेरे रब ये तो मेरे सहाबी हैं. पस उत्तर मिलेगा तुम्हें नहीं मालूम कि तुम्हारे बाद इन्होंने दीन में क्या-क्या फेर-बदल (अहदास) किए. अन्य स्थलों पर यह भी लिखा गया है कि "ये उल्टे पाँव अपने बाप-दादा के धर्म की ओर लौट गए या दीन से विमुख हो गए."स्पष्ट है कि दीन में फेर-बदल वही कर सकता है जो अधिकार-संपन्न हो यानी या तो खलीफा हो या धर्माचार्य हो. नबीश्री के सहाबियों में किसी के धर्माचार्य होने का कोई संकेत नहीं मिलता. फिर यह हदीस किन अधिकार सम्पन्न लोगों का संकेत करती है जो नबीश्री के सहाबी भी रह चुके हों, मुस्लिम धर्माचार्य इसपर विचार करने से कतराते हैं. ध्यान रहे कि इस हदीस में 'उम्मत के कुछ लोग' कहा गया है. अर्थात इन अधिकार-संपन्न सहाबियों की संख्या निश्चित रूप से दो से अधिक है.

3. तिरमिजी ने जामेतिर्मिज़ी में (अबवाबुल्मनाक़िब पृ0 535) जाबिर के हवाले से और मुहद्दिस देहलवी ने मदारिजुन्नबूवा में (रुक्न 4, बाब 11, पृ0 156) लिखा है कि ताइफ़ के घेराव के पश्चात नबीश्री ने एकांत में हज़रत अली (र.) से कुछ रहस्य की बातें कीं. कुरैश को यह अच्छा नहीं लगा. हज़रत उमर (र.) ने शिकायातन नबीश्री से कहा "या रसूलल्लाह ! क्या यह उचित है कि आप एकांत में अली (र.) से रहस्य की बातें करते हैं ? नबीश्री ने उत्तर दिया कि मैं एकांत में अली से रहस्य की बातें नहीं करता, बल्कि अल्लाह करता है. (मैं तो माध्यम मात्र हूँ.) शरहे मिश्कात शरीफ में मुहद्दिस देहलवी ने इतना और जोड़ दिया है कि "अली से रहस्य की बातें करने की शुरूआत मैं ने नहीं की बल्कि खुदा ने की." ऐसा ही उत्तर नबीश्री ने मुहजरीन को उस समय भी दिया था जब नबीश्री ने सब के मस्जिद में खुलने वाले दरवाज़े बंद करा दिए थे और इमाम अली (र.) का दरवाज़ा खुला रखने की इजाज़त दी थी. कुरैश का ख़याल था कि नबीश्री अली की मुहब्बत में पथ-भ्रष्ट हो गए हैं. नबीश्री ने कहा था कि दरवाज़े मैं ने नहीं अल्लाह ने बंद कराये हैं और श्रीप्रद कुरआन ने सूरए नज्म की प्रारंभिक आयतों में यह घोषित करके कि "(ईमान वालो) तुम्हारा स्वामी (नबी) पथ-भ्रष्ट नहीं हुआ है. वह तो उस समय तक मुंह भी नहीं खोलता जबतक अल्लाह का आदेश न हो." नबीश्री के कथन की पुष्टि की थी.
उदाहरण तो और भी बहुत से दिए जा सकते हैं किंतु उनकी आवश्यकता इस लिए नहीं है कि मेरे विचारों की पुष्टि हज़रत उमर (र।) के एक वक्तव्य से हो जाती है जो उन्होंने अब्दुल्लाह इब्ने-अब्बास को अपनी खिलाफत के दौर में दिया था. तारीखे-इब्ने-जरीर तबरी (भाग 5, पृ0 23-24) और तारीखे-कामिल इब्ने-असीर जज़री में (भाग 3, पृ0 24-25, वाकिआत सन् 23 हिज0) हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास (र.) से रिवायत है कि "एक दिन मैं हज़रत उमर की गोष्ठी में पहुँच गया. उन्होंने मुझसे पूछा कि ऐ इब्ने-अब्बास ! क्या तुम जानते हो कि मुहम्मद सल्'अम के बाद किस बात ने बनू हाशिम को अमरे-खिलाफत से वंचित किया ? मैं ने उसका उत्तर देना मसलेहत के ख़िलाफ़ समझा और कहा कि यदि मैं नहीं जानता तो आप मुझे अवगत कराएँ. हज़रत उमर (र.) ने फरमाया कि क़ौम (कुरैश) ने इस बात को नापसंद किया कि नबूवत और खिलाफत दोनों बनू-हाशिम में जमा हों और तुम इसपर इतराते फिरो. इसलिए कुरैश ने यह पद अपने पास रखा." स्पष्ट है कि कुरैश के क़बीलों में बनी हाशिम के प्रति प्रारंभ से ही जो द्वेष और वैमनस्य था वह नबीश्री के निधनोपरांत पुरी तरह खुल कर सामने आ गया. ऐसी स्थिति में यह प्रश्न ही अर्थहीन है कि नबीश्री का प्रतिनिधित्व करने के लिए मुसलमानों में कौन सुयोग्य था और कौन नहीं और खलीफा चुने जाने की प्रक्रिया दीन से सम्बद्ध थी या नहीं. कुरैश का एक मात्र उद्देश्य बनी-हाशिम का वर्चस्व समाप्त करना था और उन्होंने ऐसा ही किया.

यह बात भी विचारणीय है कि प्रथम तीन खलीफाओं के दौर में, जिनका सम्बन्ध क्रमशः कुरैश के क़बीलों बनी तैम, बनी अदी और बनी उमैया से था, बनी हाशिम का कोई भी व्यक्ति किसी पद पर नियुक्त नहीं किया गया. ऐसा दो ही स्थितियों में होने की संभावना है. एक यह कि बनी हाशिम ने सिरे से इन खलीफाओं की बैअत (आज्ञापालन का मौखिक अनुबंध) ही न की हो. दूसरे यह कि इन खलीफाओं की दृष्टि में बनी हाशिम विश्वसनीय न रहे हों या उनके प्रति इनके मन में कहीं गहरा द्वेष पल रहा हो. जो स्थिति भी रही हो इतना तो बिल्कुल स्पष्ट है कि कुरैश के मन में बनी हाशिम के प्रति कहीं न कहीं दूरियां और कटुताएं निश्चित रूप से थीं. आज के अधिकतर मुसलमान कुरैश के उन्हीं क़बीलों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो यह जानते हुए भी कि बनी हाशिम में विशेष रूप से हज़रत फातिमा की संतान हर दृष्टि से श्रेष्ठ है और उससे प्रेम नबीश्री की अनेक हदीसों के प्रकाश में मुसलामानों के लिए अनिवार्य भी है और लाभप्रद भी, व्यावहारिक स्तर पर उसका ज़िक्र करना भी पसंद नहीं करते.
मुसलमानों में श्रीप्रद कुरआन के बाद सबसे महत्वपूर्ण वह छे पुस्तकें मानी जाती हैं जिन्हें सहाहे-सित्ता अर्थात छे असत्य से मुक्त ग्रन्थ कहा जाता है. इनमें सहीह बुखारी को सर्वोपरि महत्त्व दिया जाता है. यद्यपि शीआ धर्माचार्य इन पुस्तकों की बहुत सी हदीसें गैर प्रामाणिक मानते हैं फिर भी वे हदीसें जो श्रीप्रद कुरआन के किसी आदेश से नहीं टकरातीं और जिनमें नबीश्री की सुयोग्य सात्विक संतानों की प्रशस्ति और प्रशंसा है, उन्हें न केवल स्वीकार करते हैं अपितु बेझिझक उनके सन्दर्भ भी देते हैं. नबीश्री की एक हदीस ऐसी है जो इन छओ ग्रंथों में संदर्भित है और जिसे सुन्नी और शीआ दोनों ही प्रामाणिक मानते हैं. हदीस इस प्रकार है -"जाबिर बिन समूरा से रिवायत है कि मैं एक बार अपने पिता के साथ नबीश्री की सुहबत में था. मैं ने नबीश्री को कहते सुना "मेरे बाद बारह अमीर होंगे" जाबिर बिन समूरा ने यह भी कहा कि उसके आगे भी नबीश्री ने एक वाक्य कहा जो मैं नहीं सुन सका. मेरे पिता का कहना है कि उन्होंने कहा कि "वे सब कुरैश से होंगे." किसी-किसी ग्रन्थ में अमीर के स्थान पर खलीफा शब्द का भी प्रयोग किया गया है.
उक्त हदीस को लेकर मुस्लिम धर्माचार्यों में जितना विवाद है मुझे सहाहे-सित्ता की किसी हदीस पर इतना वाद-विवाद नहीं दिखायी दिया. एक बात पर सुन्नी शीआ दोनों ही धर्माचार्य एकमत हैं कि इन अमीरों या खलीफाओं में से अन्तिम अमीर या खलीफा नबीश्री की बेटी हज़रत फातिमा की संतान में से हज़रत इमाम मेहदी (र.) होंगे.
प्रख्यात सुन्नी धर्माचार्य अल-जुवायनी ने हदीसों के संग्रह फ़राइज़-अल-सिमतैन (पृ0 160) में इस प्रसंग में कुछ और महत्वपूर्ण सन्दर्भ जोड़े हैं. उन्होंने इब्ने-अब्बास से रिवायत की है कि नबीश्री ने फरमाया "निश्चित रूप से मेरे बाद मेरे खलीफा और मेरे सफीर बारह होंगे. उनमें से पहला मेरा भाई होगा और अन्तिम मेरा प्रपौत्र होगा"
नबीश्री से प्रश्न किया गया "ऐ अल्लाह के रसूल ! आपका भाई कौन है ? नबीश्री ने उत्तर दिया "अली इब्ने-अबी तालिब" फिर पूछा गया "और आपका प्रपौत्र कौन है ?" सम्मानित नबी ने उत्तर दिया " अल-महदी, जो इस पृथ्वी पर न्याय और समता स्थापित करेगा और क़सम है उस रब की जिसने मुझे एक सचेत करने वाला बनाया यदि क़यामत में एक दिन भी शेष रह जायेगा तो वह उस दिन को उस समय तक लंबा करता जायेगा जब तक वह मेरे प्रपौत्र महदी को भेज नहीं देगा. यह पृथ्वी उसके प्रकाश से ज्योतित दिखायी देगी और रूहुल्ल्लाह हज़रत ईसा इब्ने-मरयम उसके पीछे नमाज़ अदा करेंगे." इस प्रसंग में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि नबीश्री ने फरमाया कि ये बारह अमीर मेरे बाद अली, हसन हुसैन और नौ अल्लाह द्वारा पवित्र घोषित की गई सात्विक विभूतियाँ होंगी"
अल-जुवायनी ने यहीं पर यह भी लिखा है कि "खलीफा की संस्था के प्रबुद्ध आचार्यों की सामान्य रूप से यह प्रवृत्ति रही है कि राजनीतिक दबाव के कारण वे इन रिवायतों को आम जनता से छुपाते रहे हैं। अधिकतर आचार्यों ने इन रिवायतों को उलझाव पैदा करने की दृष्टि से प्रस्तुत किया है। उन्होंने अनावश्यक अनुमानों के आधार पर इन रिवायतों में संदर्भित बारह खलीफाओं को रेखांकित करने का प्रयास किया है, जबकि नबीश्री ने स्पष्ट शब्दों में इनके नामों की घोषणा कर दी थी."

**************** क्रमशः

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