रविवार, 31 अगस्त 2008

रिन्दों के लब पे / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

रिन्दों के लब पे मय की ग़ज़ल का खुमार था
मयखाना आज रात बहोत बे-क़रार था
फूलों के साथ रात में क्या हादसा हुआ
हर फूल सुब्ह होने पे क्यों अश्कबार था
जो आखिरी सुतून था कल वो भी गिर गया
घर का उसी सुतून पे दारोमदार था
उस शह्र के थे लोग निहायत थके हुए
चेहरों पे सब के वक़्त का गर्दो-गुबार था
उसको खिज़ाँ ने फेंक दिया जाने किस जगह
वो शख्स पुर-खुलूस था, बागो-बहार था
अफ़साने ज़िन्दगी के वो लिखता था बे-मिसाल
दर-अस्ल वो कमाल का फ़ितरत-निगार था
मेरी मुहब्बतें भी फ़क़त इक दिखावा थीं
उसकी वफ़ाओं का भी कहाँ एतबार था
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2 टिप्‍पणियां:

अमिताभ मीत ने कहा…

फूलों के साथ रात में क्या हादसा हुआ
हर फूल सुब्ह होने पे क्यों अश्कबार था

क्या बात है !! बहुत ख़ूब. कमाल की गज़लें पढने को मिलती हैं यहाँ ... बहुत बहुत शुक्रिया ...

रचना गौड़ ’भारती’ ने कहा…

बहुत खूब लिखा है । बधाई।