गुरुवार, 4 सितंबर 2008

बात निकली और गुल के / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

बात निकली और गुल के मौसमों पर आ गयी।
ख़ुद-ब-ख़ुद मेरी ग़ज़ल उसके लबों पर आ गयी।
सरफ़रोशी के लिए मखसूस थे जो रास्ते,
ज़िन्दगी बेसाख्ता उन रास्तों पर आ गयी।
लोग कहते हैं कि अब फूलों में वो रंगत नहीं,
चूक माली से हुई , तुहमत गुलों पर आ गयी।
ये इमारत पहले तो इस शह्र के मरकज़ में थी,
हादसा कैसा हुआ ? क्यों सरहदों पर आ गई ?
कैसे कर सकती थी मौसीकी ज़माने से गुरेज़,
जैसी फरमाइश हुई, वैसी धुनों पर आ गयी।
बेहिसी की बदलियों में, धड़कनें तक खो गयीं,
क्या मुसीबत प्यार में टूटे दिलों पर आ गयी।
मरघटों ने जबसे मेरे घर पे कब्जा कर लिया,
साँस मेरे जिस्म की ख़ुद मरघटों पर आ गयी।
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सत्य संबल है / कमल किशोर 'श्रमिक'

सत्य संबल है सहज अंतःकरण का।
मूक दर्पण है ये भाषा व्याकरण का।
जब अहेरी बेधते मृग शावकों को
प्रश्न क्यों उठता नहीं है आचरण का।
फूल क्यों अपनी महक खोने लगे हैं
व्यक्ति का है दोष या पर्यावरण का ?
शक्ति की पूजा युगों से चल रही है,
बन गया इतिहास अंगद के चरण का।
सभ्यता सब को सुलभ होने न पाये ,
बढ़ रहा है लोभ स्वर्णिम आवरण का।
नित्य ही हम राजपथ पर देखते हैं,
एक पावन दृश्य सीता के हरण का।
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तुमसे कैसा परिचय पाया / वीरेन्द्र सिंह वर्मा

तुमसे कैसा परिचय पाया
मैं अपनेको ही भूल गया।

अपना सर्वस्व तुम्हें देकर,
प्रतिदान वेदना का लेकर,
सपनों पर जीवन वार दिया
छाया से निर्भर प्यार किया
खिल जाने की आशा ही में
मुरझा जीवन का फूल गया।

पतवार स्नेह की थाम सबल,
बढ़ते रहना चाहा अविरल ,
जीवन की झंझा में पड़कर ,
तूफानों से पल-पल लड़कर,
जैसे तैसे जो पाया था
हाथों से वह भी कूल गया।

छूकर तेरी छाया चंचल
अबतक पीड़ित है अंतरतल
तेरी सुधि के रंगीन दिवस
नयनों में बन झरते पावस,
अनुकूल आज बनते-बनते
विधना क्यों हो प्रतिकूल गया.
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एक ठोस लक्ष्य चाहिए / रामकिशन सोमानी

निश्चय किया
कि तुम पर मुष्टिका प्रहार करूँ
तुम लकडी के हो गए
सोचा
कि तुम्हें आरे से चीर डालूं
तुम लोहे के हो गए
तय किया
कि तुम पर भारी घनों से निरंतर
आघात पर आघात करूँ
तुम अदृश्य हो गए
मौजूदा व्यवस्था के तुम सिद्ध पुरूष
मैं मन्त्र षड़यंत्र से हीन जन
तुम्हारे वायवी हो चुके शरीर पर
कहाँ और कैसे प्रहार करता
मैं सोचता रहा।
आख़िर प्रहार को भी
एक ठोस लक्ष्य चाहिए।
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बुधवार, 3 सितंबर 2008

उस समंदर के कनारे / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

उस समंदर के कनारे था दरख्तों का हुजूम।
गाँव के तालाब पर जिस तर्ह बच्चों का हुजूम।
उनकी ताबीरें थीं कैसी इसका कब आया ख़याल
देखकर मैं डर गया ख़ुद अपने ख़्वाबों का हुजूम।
फिर्कावारीयत का जंगल किस क़दर सर-सब्ज़ था
शहर में फैला था हर जानिब दरिंदों का हुजूम।
जिनकी बद-आमालियाँ दुनिया से पोशीदा न थीं
हमको दिखलाया गया ऐसे फरिश्तों का हुजूम।
भूक, गुरबत, मुफलिसी के नाम पर यकजा थे सब
उस सियासी धूप में था सिर्फ़ सायों का हुजूम।
किससे कहिये दर्दे-दिल, किससे शिकायत कीजिये
ज़िन्दगी में हर क़दम पर जब हो गैरों का हुजूम।
एक शायर घिर गया है नंगी तलवारों के बीच,
वो है तनहा, सामने उसके है लाखों का हुजूम।
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रोशनी का खेल मत खेलो / नोशी गीलानी

तुम्हें पहले कहा भी था
कि हमसे रोशनी का खेल मत खेलो
हमें इस तीरगी से निस्बतें इतनी पुरानी हैं
कि तुम भी हार जाओगे
सो अब देखो ! तुम्हारे हाथ खाली हैं
अब इनके लम्से-ताज़ा में
हमारे नाम का कोई सितारा भी नहीं है।

तुम्हारी चश्मे-नाज़ाँ में
कभी जो इश्क़ की वारफ्तगी के
इतने जुगनू झिलमिलाये थे
वो अपने रक्स की तकमील के पहले ही लम्हे में
कमाले-बेनियाज़ी से अचानक बुझ गए हैं।

तुम्हारी गुफ्तुगू में सच के रंगों की
जो इक क़ौसो-क़ज़ा सी मुस्कुराई थी
बहोत नामेहरबाँ खामोशियों के
बादलों में छुप गई है।

हमारे दरमियाँ ठहरी हुई शब की उदासी में
किसी हरफे-दुआ का इक शरारा भी नहीं है।

तुम्हारे लम्स की हैरान करती नर्म बारिश ने
हवा के रेशमी आँचल पे जो
हलकी गुलाबी आयातों जैसे महकते गीत लिक्खे थे
अब उनमे वस्ल खुशबू का इशारा भी नहीं है।
तुम्हारे दामने-दिल में
वफ़ा का इक सुनहरा इस्तेआरा भी नहीं है।

ज़रा देखो ! तुम्हारे हाथ खाली हैं
अब इनके लम्से-ताज़ा में
हमारे नाम का कोई सितारा भी नहीं है।
तुम्हें पहले कहा भी था
कि हमसे रोशनी का खेल मत खेलो।
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मंगलवार, 2 सितंबर 2008

सफ़र में दिल को / क़ालिब मिर्ज़ापूरी

सफ़र में दिल को मयस्सर कहीं क़रार न था।
कई दरख्त मिले, कोई साया-दार न था।
जो मोतबर थे बज़ाहिर, वो दूर-दूर रहे
उसी ने साथ दिया जिसका एतबार न था।
बशर-नवाज़ों में उसका शुमार होता था,
वो आदमी जिसे इंसानियत से प्यार न था।
नज़र मिला न सकी मुन्सफी अदालत से,
सज़ा मिली थी उसे जो कुसूरवार न था।
मेरे नसीब में लिख दी गई थी महरूमी,
मेरे चमन के लिए मौसमे-बहार न था।
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तितलियाँ दामन में / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

तितलियाँ दामन में, जुगनू मुट्ठियों में ले गया.
मेरा बचपन फिर मुझे हमजोलियों में ले गया.
हड्डियों पर थे टंगे, जिस गाँव में खस्ता लिबास,
ज़ह्न मेरा, फिर मुझे उन बस्तियों में ले गया.
इस से पहले मैं समंदर में कभी उतरा न था
चाँद अपने साथ मुझको पानियों में ले गया.
उसने आवारा ख़यालों को भटकने कब दिया,
क़ैद करके उनको, दिल की वादियों में ले गया.
हादसों का शह्र के, एहसास ही कब था उसे,
काँप उठा वो, जब उसे मैं ज़ख्मियों में ले गया.
कुछ तो कहना था उसे, वरना वो सबके सामने
क्यों मुझे उस बज़्म से, तनहाइयों में ले गया.
नक्श उसका फिर भी मुझसे नामुकम्मल ही रहा
गो मैं अपनी फ़िक्र सारे ज़ावियों में ले गया.

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कामयाबी तो हुई / मृदुल तिवारी

कामयाबी तो हुई हासिल मगर इस दौर में।
क्या कहें, कितना रहे हम बे-असर इस दौर में।
देखिये सब मिल रहे हैं एक जैसी शक्ल में,
क्या सेहर, क्या शाम, कैसी दोपहर इस दौर में।
साज़िशें बाहर हुईं और हादसे घर में हुए,
आदमी फिर भी है कितना बे-ख़बर इस दौर में।
जंगलों की वह्शतें जब से शहर में आ गयीं,
दूर हम से हो गया जंगल का डर इस दौर में।
पत्थरों की बात क्या पत्थर तो पत्थर हैं 'मृदुल'
चोट करते मिल गए शीशे के घर इस दौर में।
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बदन की खुशबू / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

रौज़ने-ख्वाब से आती है बदन की खुशबू।
है यक़ीनन ये उसी गुंचा-दहन की खुशबू।
उसने परदेस में की मेरी जुबां में बातें
मुझ को बे-साख्ता याद आई वतन की खुशबू।
उस मुसव्विर को बहर-तौर दबाया सब ने
रोक पाया न मगर कोई भी फ़न की खुशबू।
धूप सर्दी में पहेनती है गुलाबी कपड़े
बंद कमरों से भी आती है किरन की खुशबू।
पास आये तो लगे दूध सी नदियों का बहाव,
हो जो रुखसत तो मिले गंगो-जमन की खुशबू।
मेरा घर नीम बरहना है किवाड़ों के बगैर,
मेरे घर आयेगी क्यों उसके फबन की खुशबू।
जाने ले जाये कहाँ ये मेरी आशुफ्ता-सरी,
मुझको महसूस हुई दारो-रसन की खुशबू।
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