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शनिवार, 15 मार्च 2008

बरसों का सफर : कु० डॉ. मिश्कात आबिदी

माँ.........
तुम्हारी झुर्रियों में छुपा है
बरसों का सफर
ज़िंदगी के अनगिनत उतार-चढाव .
तुम्हारी आंखों के धुंधलकों में छुपे हैं .....
ज़िंदगी के हज़ार-हज़ार रंग.
तुम्हारे स्याह बालों पर फैली सफेदी,
बार-बार दुहराती है, अतीत की घडियाँ
और तुम जोड़ती हो
वर्त्तमान से अतीत की कडियाँ .
अब तुममें नहीं दिखता, पहले सा धैर्य
तुम हो गयी हो अधिक
और अधिक संवेदनशील
शायद इसलिए कि
उम्र के इस दौर में,
बढ़ गया है तुम्हारा अकेलापन.
तुम्हारे आँचल में सिमटे,
नन्हे-मुन्नों ने सीख लिया है,
ठहरे हुए कदमों से चलना.
तुम्हारे पंखों में सिमटे परिंदों ने,
सीख लिया है, आकाश में उड़ना.
फिर भी तुम्हें होती है, उनकी फिक्र,
क्योंकि तुम माँ हो.
सदैव दात्री सहनशीला
अतीत की मधुर स्मृतियों से,
अक्सर धुंधली हो जाती हैं,
तुम्हारे चेहरे की झुर्रियां.
यादों की मीठी चुटकी से
फैल जाती है कपोलों पर,
लाज की लालिमा.
स्मृतियों के पटल पर,
कभी तुम दिखाई पड़ती हो,
नन्ही सी मासूम बच्ची.
कभी भावी जीवन का सपना संजोती,
प्रेम की परिभाषा से अंजान,
यौवन के धरातल पर,
सपनों को साकार रूप में पाकर
शुरू होता है तुम्हारी
नई ज़िंदगी का सफर.
नए श्रृंगार के साथ खुलते हैं
जीवन के नए कपाट.
और तुम गढ़ती हो ,
संवारती हो,
अपनी कल्पनाओं सा रचती हो,
अपने जीवन-साथी को.
कभी तुम लगती हो तपस्विनी,
कभी साधिका,
कभी ममत्व की महिमा से मंडित,
ऐश्वर्य-युक्त तेजस्विनी.
सब कुछ सुखमय, आनंदमय.
सहसा आता है तूफान
बिखर जाता है तुम्हारा सिंगार.
घायल हो जाती है
कांच की चूडियों से सजी कलाई.
बेरंग हो जाता है ,
तुम्हारा सतरंगी आँचल.
पर नहीं टूटती हो तुम,
क्योंकि तुम जानती हो
नन्हे-नन्हे मासूम बच्चों का
बनना है तुम्हें कवच.
मजबूत इरादों के साथ,
पथरीली ज़मीन पर,
फिर शुरू होती है, तुम्हारी ज़िंदगी.
शुरू होता है एक एक कर,
सबकी उंगलियाँ थामे,
मंजिल तक पहुँचने का सफर.
तुम कामयाब हो जाती हो,
ईश्वर की इस परीक्षा में,
थमकर पल भर,
विश्राम करना चाहती हो तुम,
उन दरख्तों की घनी छाँव में,
जिन्हें सींच कर तुमने ही बनाया है,
नन्हे पौधे से घना वृक्ष.
टूट जाता है सहसा,
निर्मम समीर के थपेडों से,
तुम्हारी बगिया का सबसे हरा-भरा,
खिलखिलाता, मुस्कुराता वृक्ष.
और तुम बिखर जाती हो
फिर से एक बार.
तुम्हारा बलिदान,
हमारा संबल है,
पर नहीं बाँट पाते हम,
तुम्हारा दर्द, तुम्हारा एकाकीपन.
आज भी तुम,
अपने अरमानों से सजे घर की शोभा हो,
आज भी तुम इसे सजाती हो,
संवारती हो,
करती हो हमारी फिक्र,
क्योंकि तुम माँ हो.
सदैव-दात्री सहनशीला.
हम तुम्हारे पास बैठकर ,
पढ़ना चाहते हैं अक्सर,
तुम्हारी ज़िंदगी का एक-एक पृष्ठ.
देखना चाहते है तुम्हारे अन्दर,
फैला एक विशाल नगर.
तुम्हारी झुर्रियों में छुपा है,
बरसों का सफर.
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