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रविवार, 21 फ़रवरी 2010

हिन्दी ग़ज़ल/ शैलेश ज़ैदी / मुझे इतिहास का पढना अनावश्यक सा लगता है

मुझे इतिहास का पढना अनावश्यक सा लगता है।
कि पग-पग पर यहाँ कोई कथावाचक सा लगता है॥
खरा खोटा नहीं उपयोगिता की दृष्टि से कुछ भी,
समय पर काम जो आये वही साधक सा लगता है॥
तुम्हारे रूप की कुछ रश्मियाँ जब साथ होती हैं,
उजाला ज़िन्दगी का मेरे संवाहक सा लगता है॥
कबीरी तेवरों में छुप के मेरे दिल की धड़कन में,
न जाने कौन है, पढता हुआ बीजक सा लगता है॥
सभी सौन्दर्य के प्रतिमान हैं निज स्वार्थ आधारित,
ये वो बाज़ार है जिसमें हरेक गाहक सा लगता है॥
नहीं होता कभी उन्मुक्त मन से सोचना संभव,
विचार अपना भी कुछ कुछ इन दिनों बंधक सा लगता है॥
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